नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन (NATO) का शिखर सम्मेलन नीदरलैंड्स के हेग शहर में ( 24 और 25 जून 2025) आयोजित हुआ है। इस सम्मेलन में नाटो के 32 सदस्य देशों के नेता रक्षा खर्च को जीडीपी के 5% तक बढ़ाने जैसे बड़े फैसले पर विचार कर रहे हैं। इस सबके केंद्र में हैं अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप, जिनके बयानों ने नाटो की एकता पर सवाल खड़े कर दिये हैं। ट्रंप ने धमकी दी है कि अगर बाकी देश रक्षा खर्च नहीं बढ़ायेंगे, तो अमेरिका नाटो की सुरक्षा गारंटी से पीछे हट सकता है। आखिर नाटो है क्या और क्यों इस सम्मेलन को इतना महत्वपूर्ण माना जा रहा है।

नाटो और वार्सा संधि: शीत युद्ध की देन

नाटो की कहानी समझने के लिए हमें 80 साल पीछे जाना होगा, जब द्वितीय विश्व युद्ध ने दुनिया को तबाह कर दिया था। इस युद्ध में करीब 8 करोड़ लोग मारे गए, जिनमें 5 करोड़ से ज्यादा आम नागरिक थे। एक तरफ थे जर्मनी, जापान और इटली जैसे धुरी राष्ट्र, तो दूसरी तरफ अमेरिका, ब्रिटेन और सोवियत संघ जैसे मित्र राष्ट्र। हिटलर की नस्लवादी नीतियों ने 60 लाख यहूदियों को मौत के घाट उतारा, लेकिन स्टालिन के नेतृत्व में सोवियत संघ की सेनाओं ने हिटलर के सपनों को चकनाचूर कर दिया।
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युद्ध खत्म होने के बाद मित्र राष्ट्रों को सोवियत संघ की बढ़ती ताकत और कम्युनिस्ट विचारधारा का डर सताने लगा। पूंजीवादी देशों ने इसे रोकने के लिए 1949 में नाटो की स्थापना की, जिसका मकसद सामूहिक सुरक्षा था। शुरुआत में नाटो में 12 देश थे, लेकिन आज इसमें 32 सदस्य हैं, जिनमें हाल ही में स्वीडन और फिनलैंड शामिल हुए हैं।

जवाब में, सोवियत संघ ने 1955 में वार्सा संधि बनाई। पोलैंड की राजधानी वार्सा में हुए इस समझौते में सोवियत संघ, पोलैंड, पूर्वी जर्मनी, चेकोस्लोवाकिया जैसे 8 कम्युनिस्ट देश शामिल थे। इसका मकसद भी सामूहिक सुरक्षा था, लेकिन यह सोवियत संघ के नेतृत्व में था और नाटो के खिलाफ बनाया गया।

नाटो और वार्सा की तुलना

उद्देश्य: दोनों का मकसद सामूहिक सुरक्षा था, लेकिन नाटो लोकतांत्रिक देशों का गठबंधन था, जबकि वार्सा संधि कम्युनिस्ट देशों का।
सदस्य: नाटो में शुरू में 12, अब 32 देश हैं। वार्सा में 8 देश थे।
सैन्य शक्ति: नाटो की ताकत, खासकर अमेरिका के कारण, हमेशा ज्यादा थी। वार्सा सोवियत संघ पर निर्भर था।
आज की स्थिति: 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद वार्सा संधि खत्म हो गई। इसके कई पूर्व सदस्य, जैसे पोलैंड और हंगरी, अब नाटो में हैं। नाटो आज भी सक्रिय है, जबकि रूस के पास अब कोई ऐसा सैन्य गठबंधन नहीं है।

ट्रंप और नाटो: अलगाव या दबाव की रणनीति?

ट्रंप ने बार-बार कहा है कि नाटो में अमेरिका का योगदान बहुत ज्यादा है और बाकी देश "फ्री राइड" ले रहे हैं। 2024 में नाटो का कुल खर्च 818 बिलियन डॉलर था, जिसमें अमेरिका का हिस्सा 70% था। ट्रंप ने 2018 में 4% जीडीपी खर्च का लक्ष्य रखा था और अब 5% की मांग कर रहे हैं। उनकी धमकी है कि अगर बाकी देश खर्च नहीं बढ़ाएंगे, तो अमेरिका नाटो से बाहर निकल सकता है। लेकिन विशेषज्ञ मानते हैं कि ट्रंप का मकसद नाटो को खत्म करना नहीं, बल्कि अपने दबदबे से इसे चलाना है।

ट्रंप की नीति यूरोपीय यूनियन को भी कमजोर करने की रही है। उन्होंने ब्रेक्सिट का समर्थन किया और यूरोपीय एकता पर सवाल उठाये। लेकिन नाटो और यूरोपीय यूनियन अलग-अलग हैं। नाटो एक सैन्य गठबंधन है, जबकि यूरोपीय यूनियन आर्थिक और राजनीतिक एकता का प्रतीक है। ट्रंप का फोकस नाटो पर ज्यादा है, क्योंकि वे इसे अमेरिका के लिए बोझ मानते हैं।
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हेग सम्मेलन: रक्षा खर्च और विवाद

नीदरलैंड्स के हेग में हो रहे नाटो सम्मेलन का मुख्य एजेंडा रक्षा खर्च को जीडीपी के 5% तक बढ़ाना है, जिसमें 3.5% सैन्य खर्च और 1.5% साइबर सिक्योरिटी व इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए होगा। यह फैसला ट्रंप के दबाव का नतीजा माना जा रहा है, जिन्होंने 2% खर्च के लक्ष्य को अपर्याप्त बताया था। लेकिन स्पेन जैसे देश इस लक्ष्य से छूट मांग रहे हैं, जिससे गठबंधन में दरार की आशंका है। सम्मेलन में रूस-यूक्रेन युद्ध और मध्य पूर्व की स्थिति पर भी चर्चा होगी, लेकिन ट्रंप की रूस के प्रति नरम नीति के चलते इन मुद्दों पर कम जोर रह सकता है।

आर्टिकल फाइव

नाटो का आर्टिकल फाइव गठबंधन की रीढ़ है, जो कहता है कि किसी एक सदस्य देश पर हमला सभी पर हमला माना जाएगा। 9/11 हमले के बाद यह पहली बार लागू हुआ, जब नाटो ने अमेरिका के साथ मिलकर अफगानिस्तान में कार्रवाई की। लेकिन ट्रंप ने इस पर सवाल उठाये हैं। हेग जाते वक्त जब उनसे पूछा गया कि क्या वे इसकी गारंटी देंगे, तो उन्होंने टालमटोल जवाब दिया, "यह आपकी परिभाषा पर निर्भर करता है।" यह बयान यूरोपीय देशों के लिए चिंता का सबब है, क्योंकि अगर ट्रंप इस गारंटी को कमजोर करते हैं, तो नाटो की एकता खतरे में पड़ सकती है।

ट्रंप की नाटो नीति

ट्रंप का रुख नाटो को कमजोर कर सकता है, क्योंकि उनकी धमकियाँ और अनिश्चितता गठबंधन की एकता को चुनौती देती हैं। स्पेन जैसे देशों का 5% लक्ष्य से बाहर रहना और ट्रंप का अमेरिका को छूट देने की बात कहना असमानता को बढ़ा सकता है। लेकिन दूसरी तरफ, उनका दबाव कुछ देशों को खर्च बढ़ाने के लिए मजबूर कर रहा है। जर्मनी ने 2029 तक 3.5% का लक्ष्य रखा है, और पोलैंड पहले से ही 4.7% खर्च कर रहा है। यह तय करना मुश्किल है कि ट्रंप की नीति नाटो को मजबूत करेगी या कमजोर।

नोबल पुरस्कार का दावा

ट्रंप का दावा है कि वे युद्ध नहीं चाहते। उनके पहले कार्यकाल में कोई नया युद्ध शुरू नहीं हुआ, जो एक रिकॉर्ड है। उन्होंने 2016 में वादा किया था कि वे अमेरिका को लंबे युद्धों से बाहर निकालेंगे। 2020 में उनकी सरकार ने तालिबान के साथ दोहा समझौता किया, जिसके तहत 2021 तक पूरी वापसी का प्लान था। उनके कार्यकाल में अफगानिस्तान में सैनिकों की संख्या 14,000 से घटकर 2,500 हो गई। हालांकि, पूर्ण वापसी 2021 में बाइडन प्रशासन ने पूरी की। ट्रंप इसे अपनी जीत बताते हैं, लेकिन काबुल में अराजकता के लिए बाइडन को दोष देते हैं।

ट्रंप ने अब्राहम समझौते के जरिए इसराइल और कई अरब देशों के बीच संबंध बनवाए। हाल ही में इसराइल-ईरान युद्धविराम का भी उन्होंने श्रेय लिया है और मानते हैं कि ऐसे प्रयासों के लिए उन्हें नोबल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित किया जाना चाहिए। लेकिन आलोचक उनके नोबल दावे को गंभीर नहीं मानते, खासकर ईरान को दी गई धमकियों और परमाणु ठिकानों पर हमले को देखते हुए।
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नाटो की वैश्विक मौजूदगी

नाटो ने अफगानिस्तान (2001-2021), लीबिया (2011), और इराक में आईएसआईएस के खिलाफ अभियानों में हिस्सा लिया। इसकी वैश्विक मौजूदगी में 1,30,000 से ज्यादा सैनिक हैं, जो मुख्य रूप से यूरोप, खासकर पोलैंड, रोमानिया और बाल्टिक देशों में तैनात हैं। अफ्रीका और मध्य पूर्व में भी छोटी टुकड़ियां हैं।

यूक्रेन और रूस: नाटो की चुनौती

यूक्रेन की नाटो सदस्यता रूस के लिए "लाल रेखा" है। 2022 में यूक्रेन पर हमले से पहले रूस ने इसे स्पष्ट कर दिया था। नाटो ने यूक्रेन को अभी तक सदस्यता नहीं दी, लेकिन सैन्य और आर्थिक मदद दी है। ट्रंप की रूस के प्रति नरम नीति के चलते यूक्रेन को कम समर्थन मिलने की आशंका है। रूस के प्रवक्ता दिमित्री पेसकोव ने कहा कि नाटो टकराव के लिए बना है और रूस को बदनाम करने पर तुला है।

इसराइल-ईरान युद्ध और नाटो

हाल के इसराइल-ईरान युद्ध में अमेरिका ने इसराइल का साथ दिया, लेकिन नाटो के किसी भी सदस्य देश ने इसमें सीधे हिस्सा नहीं लिया। नाटो के महासचिव मार्क रूट ने साफ किया कि ईरान पर हमले नाटो के एजेंडे का हिस्सा नहीं हैं। नाटो का फोकस यूक्रेन और रूस पर है।

नाटो और वार्सा संधि शीत युद्ध की उपज थे। आज नाटो वैश्विक सुरक्षा में अहम भूमिका निभा रहा है, जबकि वार्सा संधि इतिहास बन चुकी है। ट्रंप की नीतियां नाटो को मजबूत करेंगी या कमजोर, यह भविष्य बताएगा। ट्रंप की धमकियां और रूस के प्रति नरम रुख ने गठबंधन में अनिश्चितता पैदा की है। क्या नाटो इस चुनौती से उबर पाएगा? इसका जवाब भविष्य के गर्भ में है।