रूस ने एक ऐतिहासिक क़दम उठाते हुए अफगानिस्तान की तालिबान सरकार को औपचारिक मान्यता दे दी। यह पहला मौका है जब किसी देश ने तालिबान के शासन को वैधता प्रदान की है। यह कदम वैश्विक कूटनीति में हलचल मचा रहा है, क्योंकि तालिबान अपने मानवाधिकार और महिला विरोधी नीतियों के लिए कुख्यात है। रूस का यह निर्णय मध्य एशिया की भू-राजनीति को सीधे प्रभावित करेगा।
रूस की तालिबान को मान्यता
3 जुलाई 2025 को, रूस ने तालिबान सरकार को मान्यता देने का ऐलान किया। अब मॉस्को में अफगान दूतावास पर तालिबान का सफेद झंडा फहराया रहा है और तालिबान द्वारा नियुक्त राजदूत गुल हसन हसन के परिचय-पत्र को स्वीकार कर लिया गया। उधर, काबुल में रूसी राजदूत दिमित्री झिरनोव ने तालिबान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्तकी से मुलाकात की। रूसी विदेश मंत्रालय ने इसे व्यापार, सुरक्षा, और बुनियादी ढांचे में सहयोग का मार्ग बताया। मुत्तकी ने इसे “ऐतिहासिक कदम” करार दिया। लेकिन सवाल है कि रूस ने ऐसा किया क्यों?
रूस के लिए अफगानिस्तान रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है। भौगोलिक रूप से, रूस और अफगानिस्तान के बीच कोई सीमा नहीं है, लेकिन मध्य एशियाई देशों—ताजिकिस्तान, उज्बेकिस्तान, और तुर्कमेनिस्तान—के माध्यम से रूस का प्रभाव अफगानिस्तान तक पहुँचता है। ताजिकिस्तान में रूस का 201वाँ सैन्य अड्डा अफगान सीमा से 50-100 किमी दूर है, जो इसे क्षेत्रीय गतिविधियों पर नजर रखने में सक्षम बनाता है। रूस का उद्देश्य हैं:
सुरक्षा: इस्लामिक स्टेट खुरासान (ISIS-K) जैसे आतंकी समूह, जिन्होंने 2024 में मॉस्को में 149 लोगों की हत्या की, रूस के लिए खतरा हैं। तालिबान के साथ सहयोग से रूस इन खतरों को कम करना चाहता है।
आर्थिक हित: रूस अफगानिस्तान को TAPI (तुर्कमेनिस्तान-अफगानिस्तान-पाकिस्तान-भारत) गैस पाइपलाइन के लिए ट्रांजिट हब बनाना चाहता है, जो मध्य और दक्षिण एशिया को जोड़ेगा।
क्षेत्रीय प्रभाव: रूस मध्य एशिया में चीन और पाकिस्तान के प्रभाव को संतुलित करना चाहता है।
अफगानिस्तान का इतिहास
अफगानिस्तान को “साम्राज्यों की कब्र” कहा जाता है, क्योंकि कोई भी विदेशी शक्ति इसे लंबे समय तक नियंत्रित नहीं कर सकी। इसका इतिहास प्राचीन और जटिल है:
प्राचीन काल: अफगानिस्तान गांधार और कंबोज के रूप में जाना जाता था। यह मौर्य, कुषाण, और अन्य भारतीय साम्राज्यों का हिस्सा था। महाभारत में गांधार (आधुनिक कंधार और काबुल) का उल्लेख है, जहाँ गांधारी (धृतराष्ट्र की पत्नी) का जन्म हुआ था। यह क्षेत्र सिल्क रोड का केंद्र था, जहाँ बौद्ध और हिंदू संस्कृति फली-फूली।
विदेशी शासन: पारसी, यूनानी, अरब, मंगोल, मुगल, और ब्रिटिश शक्तियों ने अफगानिस्तान पर शासन करने की कोशिश की, लेकिन जनजातीय संरचना और भौगोलिक कठिनाइयों ने इसे असंभव बनाया। 7वीं सदी में इस्लाम का आगमन हुआ, और महमूद गजनवी ने 11वीं सदी में इसे भारत तक विस्तारित किया।
आधुनिक अफगानिस्तान: 1747 में अहमद शाह दुर्रानी ने दुर्रानी साम्राज्य की स्थापना की, जिसे आधुनिक अफगानिस्तान का आधार माना जाता है। पानीपत की तीसरी लड़ाई (1761) में मराठों को हराकर उसने दिल्ली तक प्रभाव बढ़ाया। अफगानिस्तान में उन्हें राष्ट्रपिता माना जाता है। 19वीं सदी में एंग्लो-अफगान युद्ध (1838-42, 1878-80, 1919) के बाद 1919 में अफगानिस्तान ने अपनी विदेश नीति पर नियंत्रण हासिल किया।
20वीं सदी: मोहम्मद जहीर शाह (1933-1973) के शासन को स्थिरता का युग माना जाता है। 1973 में उनके चचेरे भाई मोहम्मद दाऊद खान ने तख्तापलट कर गणराज्य स्थापित किया।
कम्युनिस्ट शासन और सोवियत हस्तक्षेप
1978 में सौर क्रांति के बाद पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ अफगानिस्तान (PDPA) ने कम्युनिस्ट सरकार स्थापित की। डॉ. मोहम्मद नजीबुल्लाह ने 1987 से 1992 तक शासन किया। उनकी सरकार सोवियत समर्थित थी और शहरी क्षेत्रों तक सीमित थी। नजीबुल्लाह ने शिक्षा, स्वास्थ्य, और महिलाओं के अधिकारों को बढ़ावा देने की कोशिश की, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में जनजातीय और धार्मिक विरोध के कारण यह असफल रहा।
1979 में, सोवियत संघ ने 40,000 सैनिक भेजकर हस्तक्षेप किया ताकि कम्युनिस्ट सरकार को समर्थन मिले। यह शीत युद्ध का हिस्सा था। अमेरिका ने ऑपरेशन साइक्लोन (1979-89) के तहत मुजाहिदीन को हथियार, प्रशिक्षण, और अरबों डॉलर की मदद दी, जिसे पाकिस्तान की ISI और सऊदी अरब ने वितरित किया। स्टिंगर मिसाइलें ने सोवियत हेलीकॉप्टरों को नष्ट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1989 में सोवियत सेनाएँ वापस लौटीं, और 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद नजीबुल्लाह की सहायता रुक गई। 1992 में मुजाहिदीन ने काबुल पर कब्जा कर लिया, और नजीबुल्लाह ने संयुक्त राष्ट्र संघ के काबुल परिसर में शरण ली।
तालिबान का उदय
1994 में, मुल्ला उमर ने तालिबान का गठन किया। तालिबान ( तालिब यानी “छात्र” और तालिबान, तालिब का बहुवचन) ने पाकिस्तान की ISI और सऊदी अरब के समर्थन से 1996 में काबुल पर कब्जा कर लिया और इस्लामिक अमीरात स्थापित किया। नजीबुल्लाह को क्रूरता से मार दिया गया। तालिबान ने कठोर शरिया लागू की:
- महिलाओं पर प्रतिबंध: छठी कक्षा से आगे शिक्षा पर रोक, बुर्का अनिवार्य।
- सांस्कृतिक विनाश: 2001 में बामियान की बुद्ध मूर्तियों को नष्ट किया।
- मानवाधिकार: अल्पसंख्यकों, खासकर हजारा शिया पर अत्याचार।
9/11 और अमेरिकी हस्तक्षेप
11 सितंबर 2001 को, अल-कायदा ने न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला करके 2,977 लोगों की जान ले ली। तालिबान ने अल-कायदा के नेता ओसामा बिन लादेन को शरण दी थी। अमेरिका ने उसे सौंपने की मांग की, लेकिन तालिबान के इनकार पर 7 अक्टूबर 2001 को ऑपरेशन एंड्योरिंग फ्रीडम शुरू हुआ। नॉर्दर्न एलायंस के साथ मिलकर तालिबान को सत्ता से हटाया गया। हामिद करजई के नेतृत्व में 2001 में अंतरिम सरकार बनी।
2001-2021 तक, अमेरिका ने 2 ट्रिलियन डॉलर खर्च किए और 2,400+ सैनिक खोए। ओसामा बिन लादेन को 2011 में मार दिया गया, लेकिन तालिबान ग्रामीण क्षेत्रों में मजबूत रहा। 2020 दोहा समझौते के तहत अमेरिका ने 2021 तक वापसी का वादा किया। 31 अगस्त 2021 तक अमेरिकी सैनिक वापस लौट गये, और तालिबान ने 15 अगस्त 2021 को काबुल पर कब्जा कर लिया।
वर्तमान तालिबान शासन
2021 में तालिबान ने इस्लामिक अमीरात को पुनर्स्थापित किया। हिबातुल्लाह अखुंदज़ादा सर्वोच्च नेता हैं, और मोहम्मद हसन अखुंद कार्यवाहक प्रधानमंत्री। यह हनफी शरिया पर आधारित धर्मतंत्र है, जिसमें सारी शक्ति रहबारी शूरा के पास है। कोई संविधान या विधायिका नहीं है। संयुक्त राष्ट्र ने इसे मान्यता नहीं दी, और मानवाधिकार उल्लंघन (महिलाओं की शिक्षा पर रोक, अल्पसंख्यकों पर अत्याचार) के कारण वैश्विक समुदाय इसे स्वीकार करने में हिचक रहा है।
पाकिस्तान और डूरंड रेखा
1893 में अंग्रेज़ों द्वारा खींची गयी डूरंड रेखा ने पश्तून जनजातियों को विभाजित किया। तालिबान इसे वैध सीमा नहीं मानता, जिससे पाकिस्तान के साथ तनाव है। तालिबान का TTP (तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान) को अप्रत्यक्ष समर्थन भी विवाद का कारण है।
भारत और तालिबान
भारत ने तालिबान को मान्यता नहीं दी, लेकिन नौकरशाही के स्तर पर कूटनीतिक संपर्क बनाा हुआ है। ऑपरेशन सिंदूर (7-10 मई 2025) के दौरान तालिबान ने भारत को समर्थन दिया। इज़रायल के अलावा ऐसा करने वाला अफ़ग़ानिस्तान अकेला देश है। इसकी वजह पाकिस्तान के साथ उसका संबंध ख़राब होना है। दूसरी तरफ़ भारत ने अफगानिस्तान के विकास के लिए 3 बिलियन डॉलर की मदद भी की थी।
रूस की तालिबान को मान्यता मध्य एशिया की भू-राजनीति को बदल सकती है। अफगानिस्तान का इतिहास बताता है कि आधुनिकता थोपी नहीं जा सकती। तालिबान की सत्ता और भारत के साथ उसका नरम रुख क्षेत्रीय गतिशीलता को दर्शाता है। भू-राजनीतिक जरूरतें ही भविष्य तय करेंगी।