भारत के संविधान की प्रस्तावना से "समाजवादी" और "पंथनिरपेक्ष" शब्दों को हटाने की माँग करके राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने फिर एक पुराने विवाद को हवा दे दी है। 2024 के लोकसभा चुनावों में संविधान बदलने के आरोपों से बैकफुट पर आई भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के वैचारिक स्रोत आरएसएस की इस माँग को संविधान के मूल ढांचे पर हमला माना जा रहा है। क्या ये शब्द वास्तव में भारतीय सभ्यता के अनुरूप नहीं हैं, जैसा कि आरएसएस दावा करता है? अगर ऐसा हो तो स्वतंत्रता संग्राम के नायकों ने समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष भारत का सपना क्यों देखा था?

सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले का बयान

25 जून 2025 को आपातकाल की 50वीं वर्षगांठ के अवसर पर बीजेपी ने इसे "संविधान हत्या दिवस" के रूप में मनाया जिसका उद्देश्य कांग्रेस को निशाना बनाना था। लेकिन दिल्ली में इससे जुड़े एक आयोजन में आरएसएस के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने इमरजेंसी के दौरान संविधान की प्रस्तावना से "समाजवादी" और "धर्मनिरपेक्ष" शब्द जोड़ने की निंदा करते हुए कहा:
"क्या समाजवाद कभी भारत की सभ्यतागत भावना के अनुरूप था? क्या धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा हमारे देश की संस्कृति और परंपराओं के साथ मेल खाती है?"
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होसबाले का यह बयान संकेत देता है कि आरएसएस भारत के संविधान को पूरी तरह स्वीकार करने को तैयार नहीं है। यह माँग उसके "हिंदू राष्ट्र" प्रोजेक्ट के लिए संविधान को सबसे बड़ी बाधा मानने की सोच को दर्शाती है। लेकिन सवाल यह है कि आरएसएस ने यह माँग 1975 में 42वें संविधान संशोधन के समय क्यों नहीं उठाई, जब ये शब्द जोड़े गए थे? जवाब है कि आरएसएस अपने ऊपर लगे प्रतिबंध से घबराया हुआ था। तत्कालीन सरसंघचालक बाला साहेब देवरस ने प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को पत्र लिखकर गुजरात और बिहार में चल रहे आंदोलन में संघ के शामिल होने से इंकार किया था। यही नहीं, यह वादा भी किया था कि अगर स्वयंसेवक रिहा कर दिये जायें तो वे सरकार के बीस सूत्री कार्यक्रम को सफल बनाने में मदद करेंगे।

आरएसएस और संविधान

आरएसएस का स्वतंत्रता आंदोलन में कोई योगदान नहीं था। इसके विपरीत, उसके विचारक अंग्रेजी शासन को भारत के लिए बेहतर मानते थे। जब 26 नवंबर 1949 को भारत का संविधान तैयार हुआ, तब चार दिन बाद आरएसएस के मुखपत्र ऑर्गनाइजर ने 30 नवंबर 1949 को एक संपादकीय में लिखा:
"भारत के नए संविधान के बारे में सबसे खराब बात यह है कि इसमें कुछ भी भारतीय नहीं है... इसमें प्राचीन भारतीय संवैधानिक कानूनों, संस्थानों, नामकरण और पदावली का कोई निशान नहीं है... मनु के नियम स्पार्टा के लाइकर्गस या फारस के सोलोन से बहुत पहले लिखे गए थे। आज तक मनुस्मृति में प्रतिपादित कानून दुनिया भर में प्रशंसा जगाते हैं और भारत में हिंदुओं के बीच सहज आज्ञाकारिता और अनुरूपता पैदा करते हैं। लेकिन हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए इसका कोई मतलब नहीं है।”
यह संपादकीय बताता है कि आरएसएस का लक्ष्य एक "आज्ञाकारी और अनुरूप" समाज बनाना है जहाँ विविधता की जगह एकरूपता हो। वर्ण व्यवस्था और लैंगिक असमानता को ईश्वरीय विधान मानने वाली मनुस्मृति को आरएसएस संविधान से बेहतर मानता था। जबकि विपरीत, भारत का संविधान पांच हजार साल के इतिहास में पहली ऐसी किताब है, जिसने हर भारतीय को लिंग, धर्म, जाति, और क्षेत्र के आधार पर वैधानिक रूप से समान माना।

समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता का अर्थ

आरएसएस को "समाजवाद" और "धर्मनिरपेक्षता" शब्दों से क्यों परेशानी है? इसे समझने के लिए इन शब्दों का अर्थ जानना जरूरी है:
समाजवाद: समाजवाद एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें उत्पादन के साधनों पर राज्य का नियंत्रण हो। यह साम्यवाद की तरह ही वामपंथ का ही एक स्वरूप है जिसका उदय 1789 की फ्रांसीसी क्रांति से हुआ जब सम्राट लुई सोलहवें द्वाारा बुलाई गयी एस्टेट्स जनरल की बैठक में आम मेहनतकशों और मध्यवर्ग के हित में माँग करने वाले बाईं और बैठे और सामंतों के विशेषाधिकार पर बल देने वाले दायीं ओर। वाम यानी बायाँ। वामपंथी विचारधारा आम लोगों की जिंदगी को केंद्र में रखती है। इसके विपरीत दक्षिणपंथ यथास्थिति को बनाये रखना चाहता है। आज के दौर में इसका अर्थ अबाध पूंजीवादी तंत्र की व्यवस्था का समर्थन करना है, जहां मुनाफाखोरी और श्रमिकों के शोषण पर कोई रोक नहीं होती। जब सरकारें कारपोरेट के इशारे पर काम करती हैं, तो यह "क्रोनी कैपिटलिज्म" में बदल जाता है, जिसका भारत में उदाहरण देखा जा रहा है।
धर्मनिरपेक्षता: धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि राज्य का कोई धर्म नहीं होगा। यह सभी धर्मों से समान दूरी रखता है और प्रत्येक व्यक्ति को अपनी धार्मिक स्वतंत्रता देता है। धर्मनिरपेक्षता राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देती है, क्योंकि यह धर्म को राष्ट्रीयता का आधार नहीं बनाती। भारत इसी राह पर चला जबकि धर्म को राष्ट्रीयता का आधार बनाने वाला पाकिस्तान टूट गया।

आरएसएस का समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता से विरोध इसलिए है, क्योंकि यह उनकी क्रोनी कैपिटलिज्म और हिंदू राष्ट्र की विचारधारा के खिलाफ है। इस ख़तरे को सरदार पटेल ने बख़ूबी पहचाना था और आरएसएस के हिंदू राष्ट्र के विचार को "पागलपन" बताया था।

सुप्रीम कोर्ट का रुख

आरएसएस जो माँग कर रहा है उसे सुप्रीम कोर्ट कई बार ख़ारिज कर चुका है। उसने बार-बार स्पष्ट किया है कि समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता संविधान के मूल ढाँचे का हिस्सा हैं, जिन्हें बदला नहीं जा सकता। प्रमुख निर्णय:
  • केसवनंद भारती केस (1973): सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा हैं।
  • एस.आर. बोम्मई केस (1994): धर्मनिरपेक्षता को संविधान की मूलभूत संरचना का हिस्सा माना गया।
  • नवंबर 2024: सुप्रीम कोर्ट ने "समाजवादी" और "धर्मनिरपेक्ष" शब्दों को हटाने की याचिका खारिज की।
संविधान के अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता), अनुच्छेद 15 (धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव का निषेध), और अनुच्छेद 16 (सार्वजनिक रोजगार में समान अवसर) पहले से ही धर्मनिरपेक्षता और समाजवादी सिद्धांतों को लागू करते हैं। इसीलिए 1949 में इन शब्दों को प्रस्तावना में जोड़ने की जरूरत नहीं समझी गई। लेकिन इंदिरा गांधी ने 1975 में आपातकाल के दौरान 42वें संशोधन के जरिए इन्हें जोड़ा, ताकि इन सिद्धांतों पर अतिरिक्त जोर दिया जाए।

स्वतंत्रता संग्राम के नायकों के विचार

आरएसएस भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस, और डॉ. बी.आर. आंबेडकर का सम्मान करने का दावा करता है, लेकिन इन नेताओं के विचार उसके हिंदू राष्ट्र प्रोजेक्ट के खिलाफ थे। वे भारत को समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष देखना चाहते थे।
भगत सिंह: घोषित नास्तिक और समाजवादी थे। भगत सिंह भारत में रूस जैसी बोल्शेविक क्रांति चाहते थे। उनका मानना था कि जब तक शोषण का अंत नहीं होगा, आजादी अधूरी और लड़ाई जारी रहेगी फिर चाहे शासक गोरे हों या काले।
सुभाष चंद्र बोस: पक्के समाजवादी, बोस ने 1944 में टोक्यो विश्वविद्यालय में आज़ाद भारत के बारे में अपनी कल्पना स्पष्ट करते हुए कहा था: "भारत में कई धर्म हैं। अत: आज़ाद भारत की सरकार का रुख सभी धर्मों के प्रति पूरी तरह तटस्थ और निष्पक्ष होना चाहिए... हमारा राजनीतिक दर्शन नेशनल सोशलिज्म और कम्युनिज्म का समन्वय होगा। (नेताजी संपूर्ण वाङ्मय, खंड 12, पेज 272-289)
डॉ. बी.आर. आंबेडकर: आंबेडकर राजकीय समाजवाद और भूमि के राष्ट्रीयकरण के समर्थक थे। उन्होंने जो संविधान बनाया उसके हर कोर में समता और समानता का सिद्धांत था। उन्होंने समाजवाद शब्द न जोड़े जाने का तर्क देते हुए संविधान सभा में कहा: "संविधान का उद्देश्य एक लचीला ढांचा प्रदान करना है, न कि किसी विशेष आर्थिक व्यवस्था को थोपना। यदि हम समाजवाद को संविधान में शामिल करते हैं, तो यह भविष्य की सरकारों को बाध्य करेगा, जो उचित नहीं है।”

विश्लेषण से और
यानी आंबेडकर मानते थे कि समाजवाद एक बेहतर व्यवस्था है लेकिन भविष्य में इससे भी बेहतर व्यवस्था आ सकती है। इसलिए आने वाली पीढ़ियों को किसी विशेष सिद्धांत से बाँध देना उचित नहीं होगा। आरएसएस के हिंदू राष्ट्र के विचार को उन्होंने लोकतंत्र के लिए विपत्ति बताते हुए हर हाल में उसे रोकने का आह्वान किया था।

समाजवादी स्वामी विवेकानंद

आरएसएस ने स्वामी विवेकानंद को हिंदू धर्म का प्रतीक चेहरा बनाया हुआ है लेकिन वे भी ख़ुद को समाजवादी कहते थे। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था:
मैं समाजवादी हूं। इसलिए नहीं कि मैं इसे पूर्ण रूप से निर्दोष व्यवस्था मानता हूं, बल्कि इसलिए कि एक पूरी रोटी न मिलने से तो अच्छा है, आधी रोटी ही सही।
स्वामी विवेकानंद
11 सितंबर 1893 को शिकागो की विश्व धर्म संसद में विवेकानंद ने कहा:
"मुझे गर्व है कि मैं उस धर्म से हूँ जिसने दुनिया को सहिष्णुता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है। हम सिर्फ सार्वभौमिक सहिष्णुता पर ही विश्वास नहीं करते, बल्कि सभी धर्मों को सच के रूप में स्वीकार करते हैं।”

स्वामी विवेकानंद ने यह भी कहा था कि "इस्लामी शरीर और वेदांती मस्तिष्क के मेल में ही भारत का भविष्य है।" विवेकानंद समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष दोनों थे।

असफलताओं पर पर्दा डालने की कोशिश

कई विश्लेषक मानते हैं कि समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता पर बहस छेड़कर बीजेपी और आरएसएस मौजूदा सरकार की असफलताओं— जैसे आर्थिक असमानता, बेरोजगारी, और दलितों तथा अल्पसंख्यकों के खिलाफ भेदभाव— से ध्यान हटाना चाहते हैं। भारत में क्रोनी कैपिटलिज्म बढ़ रहा है, और धर्मनिरपेक्षता पर हमले अल्पसंख्यकों के अधिकारों को कमजोर कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार इन सिद्धांतों को संविधान का अभिन्न हिस्सा माना है, लेकिन आरएसएस की मांगें वैचारिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा दे रही हैं।

भारतीय सभ्यता का कुतर्क

आरएसएस कहता है कि समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता भारतीय सभ्यता के अनुरूप शब्द नहीं हैं। लेकिन उपनिषदों का एक श्लोक कहता है:

अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्!
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्!!

अर्थात, "यह मेरा है, यह पराया है, ऐसी गणना छोटे चित्त वाले करते हैं। उदार हृदय वालों के लिए तो पूरी धरती एक परिवार है।" यह श्लोक समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के सभ्यतागत भाव को दर्शाता है। भारत का संविधान इसी भावना को धरातल पर उतारने का उपकरण है।