आपातकाल के पचास वर्ष पूरे होने पर एक बार फिर भारतीय लोकतंत्र संदेह के गहरे वातावरण में फंस गया है। अब तक ऐसा लगता था कि भारतीय समाज और लोकतंत्र अपने भीतर बहुसंख्यकवादी हो चला है और यही वजह है कि वह लगातार पिछले तीन आम चुनावों से भारतीय जनता पार्टी को सत्ता सौंपता जा रहा है। यही भी माना जा रहा था कि इस देश के शासक वर्ग ने कॉरपोरेट के साथ मिलकर राजनीति का ऐसा आख्यान खड़ा कर दिया है कि लोग एक किस्म के अधिनायकवादी नेतृत्व और हिंदुत्ववादी दल को पसंद करने लगे हैं। 

भले ही इस काम में वर्तमान के प्रति झूठ, पूर्वाग्रह और इतिहास की दुराग्रहपूर्ण व्याख्या की मदद ली जा रही हो। प्राचीन इतिहास को स्वर्ण युग, मध्ययुगीन इतिहास को अंधकार युग और आधुनिक युग में राष्ट्रीय आंदोलन के नेतृत्व को एक दूसरे से भिड़ाकर दागदार बनाने की कोशिशों ने पूरे भारतीय समाज को गहरे अविश्वास और भ्रम में डाल रखा है। लेकिन वास्तव में पूरे समाज के दुराग्रही हो जाने का आभास चोरी, झूठ और छल के आधार पर निर्मित किया गया लगता है वरना जनता के लोकतांत्रिक सोच का संतुलन इतना भी नहीं बिगड़ा है।

वोट चोरी पर राहुल गांधी के आरोप

संदेह का वह वातावरण उस समय और भी गहरा गया जब पिछले दिनों लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने एक प्रेस कांफ्रेंस करके सबूतों के साथ यह आरोप लगाया कि महाराष्ट्र, हरियाणा और दूसरे राज्यों के विधानसभा चुनावों में ही नहीं लोकसभा चुनावों में वोटों की बड़े पैमाने पर चोरी करके भाजपा ने कम से कम 25 सीटें जीती हैं। उन्होंने तो कर्नाटक की एक लोकसभा सीट पर तो एक लाख वोटों की धांधली प्रमाणित करने की कोशिश की है। उनका कहना है कि अगर यह सीटें न जीती गई होतीं तो भाजपा सत्ता से बाहर होती। चुनाव में कभी कभी सीट दर सीट पर गड़बड़ी की शिकायतें मिलती थीं और या तो चुनाव आयोग वहां दोबारा चुनाव करवा देता था या फिर वह मामला अदालत में जाता था। ऐसी गड़बड़ियां राजनीतिक दलों के इक्का दुक्का उम्मीदवार करते थे। लेकिन बड़े पैमाने पर ऐसी संगठित गड़बड़ी की शिकायतें नहीं मिलती थीं जिसमें चुनाव आयोग स्वयं शामिल हो।
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पहले जब विपक्ष सत्ता पक्ष पर किसी प्रकार के भ्रष्टाचार का आरोप लगाता था तो सत्तापक्ष पहले इंकार करता था और बाद में दबाव बनने पर सुप्रीम कोर्ट के किसी रिटायर जज की अध्यक्षता में जांच आयोग बना दिया जाता था या फिर संयुक्त संसदीय समिति का गठन कर दिया जाता था, भले ही इस तरह की जांचों में कुछ न निकलता हो। कभी कभी कुछ इस्तीफे भी हो जाते थे। लेकिन इस बार मामला थोड़ा अलग है। 

चुनाव आयोग अहंकारी है, विपक्ष पर शक कर रहा

नेता प्रतिपक्ष ने जो आरोप लगाया है वे ऐसी संस्था को कटघरे में खड़ा करते हैं जिस पर लोकतंत्र के मूलभूत व्यावहारिक पक्ष की पवित्रता और पारदर्शिता की जिम्मेदारी है। हालांकि यह बात भी ध्यान देने की है कि लोकतंत्र सिर्फ उतना ही नहीं है। वह उससे और आगे मूल्यों और संस्थाओं के विविध आयामों के मिलकर सृजित होता है। फिर भी लोकतंत्र के इस बुनियादी पक्ष पर चुनाव आयोग जैसी संस्था को पाक साफ दिखना चाहिए। लेकिन आयोग की प्रतिक्रिया न सिर्फ अहंकारी है बल्कि गोलमोल भी है। वह नेता प्रतिपक्ष पर ही अविश्वास कर रही है। इससे पहले चुनाव आयोग ने बिहार के एसआईआर के मामले में विरोध जताने गए विपक्षी नेताओं के साथ उपेक्षा और अवमानना पूर्ण व्यवहार किया था।

इंदिरा गांधी की बात करने वाली बीजेपी अपने गिरेबान में झांके

दूसरी ओर सरकार के अधिकारी और सत्तारूढ़ दल के प्रवक्ता विपक्ष पर वोट बैंक की राजनीति करने का आरोप लगा रहे हैं। सरकार कह रही है कि चुनाव आयोग मतदाता सूची का शुद्धीकरण कर रहा है। बिहार के सघन पुनरीक्षण अभियान पर उठे विवाद और सुप्रीम कोर्ट में चल रहे मुकदमे के बीच उस विवादित अभियान को पूरे देश में लागू करने की तैयारी है। ऐसे में यह बात समझ से परे है कि इंदिरा गांधी और कांग्रेस पार्टी को इमरजंसी के लिए कोसने और अपने को प्रतिबद्ध लोकतांत्रिक बताने वाली भाजपा क्यों एक संदेहास्पद मतदाता सूची के आधार पर चुनावों का संपादन कराना चाहती है? जबकि आपातकाल लगाने वाली इंदिरा गांधी ने भी ऐसा कोई प्रयास नहीं किया और 1977 का चुनाव भी हार गईं।
इसकी वजहें कई हैं लेकिन एक बात साफ है कि जो लोग मतदाता सूची के शुद्धीकरण को लोकतंत्र के लिए महान अभियान की संज्ञा दे रहे हैं उनमें एक बड़ा वर्ग है जो सार्वभौमिक मताधिकार के साथ बहुत सहज नहीं है।

मुस्लिमों, पिछड़ों और दलितों के वोट से इतनी नफरत क्यों

ऐसे लोगों का एक वर्ग तो ऐसा है जो मानता है कि जब पाकिस्तान बन गया तो पहली बात तो अल्पसंख्यकों और विशेषकर मुस्लिमों को यहां रहने नहीं देना चाहिए था। अब अगर वे रह भी गए तो उन्हें मताधिकार नहीं होना चाहिए था। अगर वह भी मिल गया तो उन्हें राजनीति में प्रतिनिधित्व नहीं मिलना चाहिए। दूसरा तबका पिछड़ों, दलितों और स्त्रियों को यकायक सार्वभौमिक मताधिकार मिलने को भी गलत निर्णय मानता है। उन्हें इस बात से भी परेशानी है कि इसी अधिकार का प्रयोग करके यह तबका समाज सुधार करता है, अपना सबलीकरण करता है और सबसे बड़ी बात यह है कि तथाकथित सनातन धर्म या ब्राह्मणवादी व्यवस्था को चुनौती देता है। 

संघ और भाजपा के लोग क्या दोहरे चरित्र वाले हैं

संघ प्रमुख भले ही समय समय पर पिछड़ों और दलितों के साथ हुए अत्याचारों का जिक्र कर दिया करते हों लेकिन वे खुले आम वर्ण- व्यवस्था और जाति व्यवस्था के समूल नाश का आह्वान नहीं करते। भाजपा के नेता और संघ के पदाधिकारी भले वर्ण व्यवस्था की खुली वकालत न करते हों लेकिन वे उन तमाम धर्मगुरुओं, शंकराचार्यों और बाबाओं को संरक्षण देते हैं, उनके आगे नतमस्तक होते हैं और उनके पीछे भक्तों की मंडली भेजते रहते हैं, जो वर्ण व्यवस्था के साथ वर्णाश्रम धर्म की पैरवी करते हैं। यह महज संयोग नहीं है कि एक ऐसे धर्माचार्य को ज्ञानपीठ सम्मान दिलाया गया जो न सिर्फ ब्राह्मण धर्म की वकालत करते हैं बल्कि ब्राह्मणों में भी ऊंच नीच की राजनीति करते हैं।

सत्ता और विपक्ष का संघर्ष राज बनाम हिंदू राज का संघर्ष

वास्तव में नेता प्रतिपक्ष और सत्ता पक्ष के बीच जो संघर्ष है वह कानून के राज बनाम हिंदू राज का संघर्ष है। राहुल गांधी की जो भी क्षमता है और उनकी पार्टी के भीतर जो भी अंतर्विरोध है उसके बावजूद वे चाहते हैं कि भारतीय लोकतंत्र संविधान के दायरे में अधूरी सामाजिक क्रांति को पूरा करे और इस देश के पिछड़े, दलित, अल्पसंख्यक, महिला और आदिवासी अपने अधिकारों को न सिर्फ कागज पर कायम रखें बल्कि हकीकत में भी उसका उपभोग करें। दूसरी ओर हिंदू राज कायम करने की तैयारी में लगे लोग चाहते हैं कि संविधान उन्हें जितनी दूरी तक अपना मकसद पूरा करने में मदद करे वहां तक वे इससे काम चलाएंगे और जहां उससे काम न चले वहां उसे अपने ढंग से तोड़ मरोड़ देंगे। 

आंबेडकर की पूजा लेकिन उनके विचार स्वीकार करने को तैयार नहीं

उन्हें नेहरू से नाराजगी इसी बात की है कि उन्होंने देश के आजाद होने के साथ कम से सभी बालिग नागरिकों को समान राजनीतिक अधिकार दे दिया। विभाजन के रक्तपात से लहूलुहान देश में भी नेहरू ने नागरिकता की उदार अवधारणा पेश की जो बात आज के शासकों को हजम नहीं हो रही। वे दिखाने के लिए डॉ आंबेडकर की पूजा भले करें लेकिन आंबेडकर की उस बात को स्वीकार करने को नहीं तैयार हैं जिसमें वे एक ओर हिंदू राष्ट्र को एक भयानक विचार बताते हैं और दूसरी ओर जाति के समूल नाश की बात करते हैं। आंबेडकर जानते थे कि हिंदू समाज का ढांचा गैर- बराबरी के मूल सिद्धांत में यकीन करता है इसलिए अगर उसमें सुधार नहीं किया गया तो यहां लोकतंत्र का चल पाना कठिन है। लेकिन जब वे सुधार नहीं कर पाए तो उन्होंने इस असमानता पर आधारित ढांचे को ही छोड़ दिया और एक ऐसे धर्म की शरण में गए जो गैर बराबरी के सिद्धांत पर नहीं खड़ा है।
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भारत में फिर से वर्ण व्यवस्था कायम करने की कोशिश

आज भारत उस दोराहे पर खड़ा है जहां एक रास्ता देश के सभी नागरिकों को समान राजनीतिक अधिकार देने के साथ उसे अधिकतम सामाजिक और आर्थिक समता प्रदान करने की ओर जाता है और दूसरा रास्ता सार्वभौमिक मताधिकार से मिले राजनीतिक समता के अधिकार पर मतदाता सूची के शुद्धीकरण के बहाने अंकुश लगाने और परोक्ष रूप से एक ढीली ढाली ही सही लेकिन श्रेष्ठता पर आधारित एक वर्ण व्यवस्था कायम करने की ओर जाता है। खींचतान के इस माहौल में देश गहरे संदेह में डूब रहा है। 
जाहिर है संदेह के वातावरण में लोकतंत्र का क्षय होता है और अधिकनायकवाद फलता फूलता है। वास्तव में लोकतंत्र महज एक चुनावी ढांचा नहीं है वह उच्चतर मानवीय मूल्यों की एक व्यवस्था है जिसे निरंतर साफ सफाई की आवश्यकता होती है। उसकी संस्थाओं में अहंकार और अधिकार भाव से अधिक कर्तव्य और सेवा भाव होने की आवश्यकता है। इसलिए आज मतदाता सूची के शुद्धीकरण के संदेहास्पद अभियान से अधिक जरूरी है मूल्य आधारित नैतिक लोकतंत्र के शुद्धीकरण की।