भारत का लोकतंत्र दुनिया का सबसे बड़ा और जीवंत है, जिसकी रीढ़ है हर नागरिक का वोट देने का अधिकार। लेकिन इस अधिकार को लागू करने और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी केंद्रीय चुनाव आयोग की है, जो एक संवैधानिक संस्था है। संविधान ने इसे सरकार से स्वतंत्र रखा, लेकिन हाल के वर्षों में आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठ रहे हैं। विपक्ष का आरोप है कि आयोग सरकार के इशारों पर काम कर रहा है। ऐसे में एक नाम बार-बार याद आता है – टी.एन. शेषन का जिनके चुनाव आयुक्त रहते निष्पक्ष चुनाव की मिसाल क़ायम हुई थी और देश को पहली बार आयोग का वह मतलब समझ में आया था जिसकी कल्पना संविधान ने की थी।

एक वोट का अधिकार

आजादी के बाद, भारत ने एक ऐतिहासिक कदम उठाया – हर 18 साल से ऊपर के नागरिक को वोट का अधिकार। लेकिन यह विचार संविधान सभा में गर्मागर्म बहस का विषय बना था। कुछ सदस्यों का मानना था कि मतदाताओं को शिक्षित होना चाहिए, क्योंकि निरक्षर लोग गलत नेताओं को चुन सकते हैं। लेकिन जवाहरलाल नेहरू ने इस विचार को सिरे से खारिज कर दिया। उन्होंने कहा, “लोकतंत्र की ताकत हर नागरिक की भागीदारी में है, चाहे वह पढ़ा-लिखा हो या नहीं। आजादी की लड़ाई में अनपढ़ और गरीब लोगों ने सबसे ज्यादा कुर्बानी दी, तो उन्हें इसके फल से कैसे वंचित किया जा सकता है?” डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने इसे सामाजिक समानता का हथियार बताया।
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नतीजतन, 26 जनवरी 1950 को लागू हुए संविधान ने सभी वयस्कों को बिना शर्त मतदान का अधिकार दिया। यह उस समय का क्रांतिकारी कदम था, जब कई नव स्वतंत्र देश तानाशाही की चपेट में थे। भारत का पहला आम चुनाव (1951-52) दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक प्रयोग था, जिसे संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत स्वतंत्र चुनाव आयोग ने संभव बनाया।

सुकुमार सेन: पहले चुनाव की नींव

भारत के पहले मुख्य चुनाव आयुक्त सुकुमार सेन ने इस विशाल चुनौती को स्वीकार किया। 1898 में कोलकाता में जन्मे सेन, लंदन विश्वविद्यालय से गणित में स्वर्ण पदक विजेता और 1921 बैच के ICS अधिकारी थे। 1950 में उन्हें पहला मुख्य चुनाव आयुक्त बनाया गया। उस समय भारत में 17.3 करोड़ मतदाता थे, जिनमें 85% निरक्षर थे। मतदाता सूची बनाना एक असंभव-सा कार्य था। कई महिलाएँ अपने नाम की जगह “किसी की पत्नी” बताती थीं, जिसके कारण 28 लाख महिलाओं के नाम सूची से हटाने पड़े। सेन ने सख्ती से नियम बनाया कि हर मतदाता का व्यक्तिगत नाम दर्ज हो।

गाँव-गाँव जाकर लाखों कर्मचारियों और स्वयंसेवकों की मदद से सेन ने मतदाता सूची तैयार की। उन्होंने हर मतदाता को 2 किलोमीटर के दायरे में मतदान केंद्र उपलब्ध कराया और 35 लाख मतपेटियाँ बनवाईं। 

1951-52 के चुनाव में 45% मतदान हुआ, जो उस समय की परिस्थितियों में एक बड़ी उपलब्धि थी। सेन ने भारत के लोकतंत्र को दुनिया में एक मिसाल बनाया।

1977 का चुनाव

चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर शुरुआती वर्षों में शायद ही सवाल उठे। इसका सबसे बड़ा उदाहरण 1977 का आम चुनाव है। इमरजेंसी (1975-77) के दौरान इंदिरा गांधी पर तानाशाही के आरोप लगे। कई लोगों को संदेह था कि वह आयोग पर दबाव डालकर अपनी जीत सुनिश्चित करेंगी। लेकिन इंदिरा ने निष्पक्ष चुनाव की घोषणा की, और आयोग ने अपनी स्वतंत्रता साबित की। इंदिरा गांधी हार गईं, और मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी। यह आयोग की निष्पक्षता का सुनहरा उदाहरण था।

टी.एन. शेषन: लोकतंत्र का शेर

1970-80 के दशक में बूथ कैप्चरिंग और चुनावी गड़बड़ियाँ बढ़ने लगी थीं। सत्ताधारी दलों में यह धारणा बन गई कि आयोग सरकार का एक विभाग है। लेकिन 1990 में सब बदल गया, जब टी.एन. शेषन को मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्त किया गया। तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने 12 दिसंबर 1990 को शेषन को यह जिम्मेदारी सौंपी। केरल के तिरुनेलै में जन्मे शेषन, 1955 बैच के IAS टॉपर थे। शुरुआत में वह इस पद के लिए उत्सुक नहीं थे, लेकिन एक बार नियुक्त होने के बाद उन्होंने दिखा दिया कि संविधान की शक्ति क्या हो सकती है।

शेषन के सुधार

आदर्श आचार संहिता: शेषन ने नेताओं को जवाबदेह बनाया। प्रचार, खर्च और रैलियों पर सख्त नियम लागू किए।

बूथ कैप्चरिंग पर रोक: बिहार जैसे राज्यों में बूथ कैप्चरिंग आम थी। शेषन ने अर्धसैनिक बलों की तैनाती बढ़ाकर इसे लगभग खत्म कर दिया।

वोटर आईडी कार्ड: फर्जी वोटिंग रोकने के लिए मतदाता पहचान पत्र शुरू किया।

चुनावी खर्च: उम्मीदवारों के खर्च की सीमा तय की और सख्त निगरानी शुरू की।

जब नेताओं ने वोटर आईडी कार्ड को खर्चीला बताकर विरोध किया, तो शेषन ने जवाब दिया, “1 जनवरी 1995 के बाद बिना वोटर आईडी के कोई चुनाव नहीं होगा।” कई चुनाव स्थगित हुए, क्योंकि वोटर आईडी तैयार नहीं थे। शेषन ने पर्यवेक्षकों को सख्त निर्देश दिए कि किसी भी गड़बड़ी के लिए वे जिम्मेदार होंगे। उनकी सख्ती से नेताओं में हड़कंप मच गया।
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शेषन की निडरता

शेषन की निडरता कोई नई बात नहीं थी। 1972 में, परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष होमी सेठना ने उनकी गोपनीय रिपोर्ट खराब की थी। शेषन ने 10 पन्नों का पत्र लिखकर इसका विरोध किया। मामला तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी तक पहुँचा, जिन्होंने सेठना से जवाब माँगा और शेषन की रिपोर्ट दुरुस्त कराई।

इसी तरह, नरसिम्हा राव के कार्यकाल में, जब कानून मंत्री विजय भास्कर रेड्डी ने आयोग को संसद के सवालों का जवाब देने को कहा, तो शेषन ने साफ कहा, “मैं कोई कोऑपरेटिव सोसाइटी नहीं हूँ। आयोग सरकार का विभाग नहीं है।” 

एक अन्य घटना में, जब विधि सचिव रमा देवी ने इटावा उपचुनाव टालने को कहा, तो शेषन ने सीधे राव को फोन कर कहा, “मैं यह स्वीकार नहीं करूँगा कि सरकार घुड़सवार है और मैं घोड़ा।”

2 अगस्त 1993 को शेषन ने 17 पन्नों का आदेश जारी किया, जिसमें कहा गया, “जब तक सरकार आयोग की शक्तियों को मान्यता नहीं देती, कोई चुनाव नहीं होगा।” उन्होंने पश्चिम बंगाल की राज्यसभा सीट पर चुनाव रोका, जिसके कारण केंद्रीय मंत्री प्रणव मुखर्जी को इस्तीफा देना पड़ा।

तीन सदस्यीय आयोग

शेषन की सख्ती से परेशान सरकार ने 1 अक्टूबर 1993 को चुनाव आयोग को तीन सदस्यीय बनाया, जिसमें जी.वी.जी. कृष्णमूर्ति और एम.एस. गिल को नए आयुक्त नियुक्त किया गया। शेषन ने इसका विरोध किया और इनके साथ सहयोग नहीं किया। जब वह अमेरिका गए, तो उन्होंने चार्ज डी.एस. बग्गा को सौंपा, न कि गिल को। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि शेषन की अनुपस्थिति में गिल मुख्य आयुक्त होंगे।

शेषन के बाद, जे.एम. लिंगदोह ने उनकी विरासत को आगे बढ़ाया। लेकिन 2002 में, गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने लिंगदोह पर दंगों के बाद चुनाव में देरी करने का आरोप लगाया और उनके ईसाई होने को सोनिया गांधी से जोड़ा, जिससे विवाद हुआ।

हालिया विवाद: अशोक लवासा से लेकर आज तक

2019 में, चुनाव आयुक्त अशोक लवासा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषणों में आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन की शिकायतों की जाँच की माँग की। लेकिन बहुमत के फैसले से शिकायतें खारिज हुईं। बाद में, लवासा को एशियाई विकास बैंक में नियुक्ति मिली, जिसे कई लोग “हटाने की रणनीति” मानते हैं।
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सीईसी नियुक्ति पर विवाद

कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट ने मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति में पारदर्शिता की माँग की और सुझाव दिया कि चयन समिति में प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता, और मुख्य न्यायाधीश शामिल हों। लेकिन सरकार ने नए कानून में मुख्य न्यायाधीश की जगह एक वरिष्ठ मंत्री को शामिल किया, जिससे विपक्ष की राय बेमानी हो गई।

राजीव कुमार और ज्ञानेश कुमार के समय, आयोग की निष्पक्षता पर सवाल गहरे हुए। 2024 के लोकसभा चुनावों में, राहुल गांधी ने मतदाता सूची में हेरफेर और EVM पर सवाल उठाए। CSDS-Lokniti सर्वे के अनुसार, 2024 में केवल 55% लोग आयोग पर भरोसा करते थे, जो 2014 के 70% से कम है। विपक्ष के देशव्यापी आंदोलनों और “वोट चोरी” के आरोपों ने आयोग की साख को और कमजोर किया।

भारत का लोकतंत्र और उसकी संवैधानिक संस्थाएँ उसकी ताकत हैं। सुकुमार सेन ने पहला चुनाव कराकर लोकतंत्र की नींव रखी, और टी.एन. शेषन ने इसे निष्पक्ष और पारदर्शी बनाया। लेकिन आज आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठ रहे हैं। अगर 50% से कम लोग आयोग पर भरोसा करें, तो लोकतंत्र का मतलब क्या रह जाएगा? शायद देश को एक और शेषन की जरूरत है, लेकिन इसके लिए ऐसी सरकार भी चाहिए जो शेषन को मौका दे। अभी तो लवासा बनाकर छोड़ दिया जाता है।