मैं वहाँ मौजूद था — 1988 की वो शाम, दिल्ली के सीरी फोर्ट ऑडिटोरियम में, जब राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कारों का समारोह था। शाम सलीके से आगे बढ़ रही थी — जब मंच से दादा साहब फाल्के पुरस्कार के लिए राज कपूर का नाम लिया गया। राष्ट्रपति आर. वेंकटरमण खड़े हुए, तालियाँ बजने लगीं। पूरा हॉल उठ खड़ा हुआ। मगर राज कपूर नहीं उठे। उठ नहीं सके। एक तेज़ अस्थमा का दौरा उन्हें उनकी पत्नी के कंधे पर ढहा चुका था— जैसे साँसें ही साथ छोड़ गई हों।

तभी एक ऐसा मंज़र सामने आया जो शायद फिर कभी न दोहराया जाए— भारत के राष्ट्रपति मंच से नीचे उतरे और सीधे उस बीमार कलाकार के पास पहुँचे। शायद तालियों की गूंज कपूर की बेहोशी को चीर गई। या शायद वो था उनका फ़ितरी जज़्बा — एक ज़िंदगी जो हमेशा पर्दे पर जिया गया था। तकलीफ़ साफ़ थी, मगर पत्नी कृष्णा कपूर का सहारा लेकर वो उठे। मुस्कुराने की कोशिश की। सर झुकाया। और फिर वहीं निढाल गिर पड़े।

एक महीने बाद, लिवरपूल में द गार्डियन में उनके निधन की ख़बर पढ़ी। आगे की पढ़ाई के इरादे से गया था, मामूली रसद से एक सिगरेट खरीदी और एक वीरान, भीगी सड़क पर अकेला चलता रहा— गुनगुनाते हुए कल खेल में हम हो न हो… कोई नहीं था जो मेरे आँसू देखता।

राज कपूर की फ़िल्में सोवियत यूनियन में भी हिट

मगर दुनिया ने उन्हें देखा था। और सिर्फ़ देखा नहीं — चाहा था, सराहा था। पचास और साठ के दशक में, राज कपूर भारत के सबसे बड़े सांस्कृतिक प्रतिनिधि थे। आवारा (1951) और श्री 420 (1955) सोवियत यूनियन में सिर्फ़ हिट नहीं हुए — वो वहाँ की यादों का हिस्सा बन गए। “आवारा हूँ” जैसे गीत रूसी ज़बान में कल कारखानों, स्कूलों और मज़दूरों की शामों में गूंजते थे। सोवियत संघ के उस दौर में, जब दुनिया का कमर्शियल सिनेमा वहाँ पर नहीं पहुँच सकता था, कपूर का ट्रैम्प — थोड़ा चार्ली चैपलिन, थोड़ा हिंदुस्तानी आम आदमी — उम्मीद की एक तस्वीर बन गया था।

पंडित नेहरू ने भी उनके काम को सिर्फ़ मनोरंजन नहीं समझा। उन्होंने आवारा की खुलकर तारीफ़ की — फ़िल्म के समाजवादी सुर उनके उस ख़्वाब से मेल खाते थे जिसमें भारत तरक़्क़ीपसंद, ख़ुदमुख़्तार और दुनियाभर के असरात को तमगे सा लगाकर भी दिल से हिंदुस्तानी था।

सोवियत यूनियन में वो सिर्फ़ एक्टर नहीं थे — वो एक जज़्बा थे। मास्को, लेनिनग्राड, ताशकंद, अल्मा-अता — हर शहर में उनकी फ़िल्मों के लिए लंबी कतारें लगतीं। जब वो नर्गिस के साथ वहाँ पहुँचे, तो इस्तक़बाल दीवानगी की हद तक पहुँच गया — फूलों की बारिश, नामों की सदाएं, हाथ मिलाने की होड़। वहाँ के नेता उन्हें “जनता का दोस्त” कहते — ये इस बात का सुबूत था कि भारतीय सिनेमा इलाक़ाई सरहदें ही नहीं बल्कि तहज़ीबों की सरहदों को भी पार कर सकता है।

चीन में भी राज कपूर की फ़िल्मों को दिल से अपनाया गया। 1950 के दशक में, जब “हिंदी-चीनी भाई-भाई” का जज़्बा ज़िंदा था, आवारा बीजिंग, शंघाई और ग्वांगझोउ में हाउसफुल चला।

आवारा “द ट्रैम्प” का जज़्बा और फ़िल्म की इंसानियत भरी थीम एक ऐसे मुल्क में गूंज उठी जो सालों की उथल-पुथल से निकल रहा था। बरसों बाद भी, पुराने चीनी सिनेप्रेमी “आवारा हूँ” को हिंदी में गुनगुनाते मिल जाते — ये इस बात का सबूत था कि कपूर की शख़्सियत ने न सिर्फ़ सियासी बल्कि ज़बानी सरहदें भी पार कर ली थीं।

पूर्वी यूरोप — वारसा, प्राग, बुडापेस्ट — में भी उनकी फ़िल्मों को वही अपनापन मिला। जहाँ पश्चिमी तहज़ीब पर सेंसरशिप थी, वहाँ राज कपूर की फ़िल्में मोहब्बत, ख़्वाब और इंसाफ़ का पैग़ाम लेकर आईं। उनके किरदार आम लोगों की तरह जूझते थे — मगर हमेशा एक नग़मे, एक मुस्कान और एक उम्मीद के साथ।

मध्य पूर्व में भी पहचान बनाई

मध्य पूर्व में भी उन्होंने अपनी पहचान बनाई। संगम (1964), अपने रंगीन मंज़रों और जज़्बाती गहराई के साथ, तेहरान में ज़बरदस्त हिट रही। हिंदुजा भाइयों ने, अपने कारोबारी सफ़र की शुरुआत में, इसे ईरान में रिलीज़ कर बड़ी कामयाबी हासिल की।

ये था कपूर का असली तोहफ़ा भारतीय सिनेमा को — उन्होंने दुनिया के बाज़ारों को न सिर्फ़ मुमकिन बल्कि मुनाफ़ेदार बना दिया। उनसे पहले, भारतीय फ़िल्में विदेशों में सिर्फ़ आर्ट-हाउस तक सीमित थीं। उनके बाद, कमर्शियल फ़िल्मों ने भी बड़े ख़्वाब देखना शुरू किए। जो रास्ता उन्होंने खोला, उसी पर शोले, डिस्को डांसर, और बाद में दंगल, आरआरआर, पठान जैसी फ़िल्में चलीं। इन सबने किसी न किसी तरह उस आलमी दर्शक वर्ग का फ़ायदा उठाया जिसे राज कपूर ने दशकों पहले अपनी कलाकारी के झंडे गाड़ कर और दिल जीत कर तैयार किया था।

दुनिया भर के रहनुमा भी उनकी तबीयत की ज़िंदादिली के क़ायल थे। सोवियत प्रीमियर निकिता ख्रुश्चेव ने उन्हें मुल्कों के दरमियान पुल कहा, माओ ने उनका नग़मा गुनगुनाया। बरसों बाद, व्लादिमीर पुतिन ने माना कि राज कपूर की पेशक़दमी से भारतीय सिनेमा ने भारत-सोवियत रिश्तों को मज़बूत करने में सॉफ्ट पावर का काम किया। अफ़्रीका और लैटिन अमेरिका के दूरदराज़ इलाकों में भी उनके नग़मे स्ट्रीट परफॉर्मेंस और मोहल्ला स्क्रीनिंग में ज़िंदा रहे — बहुत बाद तक, जब फ़िल्में थिएटर से उतर चुकी थीं।
करोड़ों लोगों के लिए वो सिर्फ़ एक्टर या डायरेक्टर नहीं थे — वो ख़ुद हिंदुस्तान थे। मुश्किलों में मुस्कुराते हुए, मायूसी में गाते हुए, और बारिश में नाचते हुए। उनकी फ़िल्में आज़ाद थीं — मगर उनमें उस नौजवान मुल्क की उम्मीद थी जो दुनिया में अपनी आवाज़ तलाश रहा था।

सीरी फोर्ट की उस रात, जब उन्होंने अपनी आख़िरी ताक़त से उठकर सलाम किया, वो सिर्फ़ एक इनाम कबूल नहीं कर रहे थे। वो एक ज़िंदगी का क्लाइमैक्स था — जो मंच और पर्दे पर गुज़री थी — उन रोशनियों के नीचे जो बीमारी में भी बुझी नहीं थीं। लगता था कि राज कपूर ने अपनी आख़िरी अदाकारी का आख़िरी सीन ख़ुद ही लिख डाला था। राष्ट्रपति स्वयं, एक समूचे देश का आभार व्यक्त करते नज़र आए।

एक महीने बाद, वो रोशनियाँ बुझ गईं — मगर उनकी चमक रह गई, फ़िल्मी रीलों में और उन अनगिनत दिलों में जो हज़ारों मील दूर थे। राज कपूर का जन्म 14 अगस्त 1922 को हुआ था — आज़ादी की पूर्व संध्या पर। हर साल की 14 अगस्त, एक याद, एक जश्न — उस शोमैन का, जिसने दुनिया के तसव्वुर में हिंदुस्तान को ज़िंदा कर दिया।