बॉलीवुड के बड़े-बड़े डायरेक्टर अच्छी स्टोरी के अभाव में अच्छी फिल्में न बनने की बात कहते हैं। लेकिन होमबाउंड फिल्म को ऑस्कर में नामित किया गया है। पत्रकार अणुशक्ति सिंह बता रही हैं कि भारत के मौजूदा दौर की कहानी को बताने वाली यह शानदार फिल्म है।
भारतीय फिल्म होमबाउंड को ऑस्कर पुरस्कार में बेस्ट इंटरनेशनल फिल्म के रूप में नामित किया गया है
होमबाउंड फ़िल्म लगान के बाद ऑस्कर में बेस्ट इंटरनेशनल फ़िल्म केटेगरी में नॉमिनेट होने वाली दूसरी फ़िल्म बन गई है। यह मौक़ा किसी भारतीय फ़िल्म को लगभग 24 सालों बाद मिला है। अलग-अलग अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर अपना परचम पहले ही लहरा चुकी इस फ़िल्म में ऐसा क्या है कि ऑस्कर जैसी प्रतिष्ठित संस्था ने इसे इस लायक समझा। इस फ़िल्म का सिरा जुड़ता है 2020 में छपे एक खबरिया आलेख से।
2020 में न्यू यॉर्क टाइम्स में कश्मीरी लेखक और पत्रकार बशारत पीर का 'टेकिंग अमृत होम' नाम से एक आलेख छपा था। वह आलेख कोरोना के औचक लॉकडाउन से पीड़ित दो दोस्तों की कहानी थी। ये दोस्त किसी क़स्बे या शहर में रहने वाले आम मध्यवर्गीय या खाते-पीते मित्र नहीं थे, जिनकी गतिविधि लॉकडाउन ने केवल उनके घर तक सीमित कर दी थी। उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के देवारी गांव से आने वाले ये दोस्त सूरत में कुछ पैसों की ख़ातिर नौकरी करने वाले अप्रवासी थे। वैसे अप्रवासी जिन्हें न तो सिस्टम रोज़गार दे पाता है, न ही समाज की धर्म और जातिवादिता उनके लिए जगह बना पाती है।
24 साल के दलित युवक अमृत और 22 साल के सैयूब की यह कहानी कोरोना की उन असंख्य दास्तानों में एक थी। जब बिना सोचे-समझे लगाए हुए लॉकडाउन ने लाखों अप्रवासी मज़दूरों को अचानक ही बेसहारा और बेरोजगार बना दिया था। देश के भिन्न कोनों में कमाने की ख़ातिर ठौर पाए इन लोगों के पास कोई रास्ता नहीं बचा था सिवाय इसके कि वे वापस वहीं लौट जाएँ, जहाँ से आए थे। ठप ट्रेन और बस के दौर में कुल जमा चार हज़ार रुपया लेकर अपने घर लौटने के लिए निकले इन दोस्तों के पास लौटने की ख़ातिर कोई साधन भी नहीं था। कभी पैदल तो कभी ट्रक… यात्रा विकट से विकटतम होती जा रही थी, और उसी में अमृत को बुखार आ गया।
कोरोना से डरे हुए लोगों ने सहयात्री बनने की संभावना भी ख़त्म कर दी मगर सैयूब ने अमृत का साथ नहीं छोड़ा। घर से लगभग तीन सौ मील दूर के एक हस्पताल में अमृत की मौत हो जाती है और सैयूब को कोरोना के डर से क्वारंटाइन कर दिया जाता है। हालांकि दोनों ही कोविड नेगेटिव निकलते हैं। अमृत की मौत की वजह सरकारी अदूरदर्शिता के कारण पैदा हुई दिक्कतें थीं। एक बिना सोचा समझा हुआ लॉक डाउन जिसने समाज के इस वर्ग के विषय में सोचा ही नहीं था, न ही उसकी ख़ातिर पर्याप्त इंतजामात किए थे।
बशारत पीर के इस आलेख पर मसान फ़िल्म से अपनी धाक जमा चुके नीरज घेवान ने फ़िल्म बनाने की सोची। उनका साथ दिया करण जौहर के धर्मा प्रोडक्शन ने। अमृत और सैयूब की ज़िंदगियों पर चंदन वाल्मीकि और मोहम्मद शोएब के क़िरदार गढ़े गए। पर्दे पर उतरी हुई कहानी केवल आलेख तक सीमित नहीं रही, भारतीय सामाजिकता में करीने से तहाकर रखी हुई भेदभाव की परतों को भी एक-एक कर खोलती है। फिल्म में एक्टर ईशान खट्टर ने मोहम्मद शोएब की भूमिका निभाई है, जबकि विशाल जेठवा ने अमृत की भूमिका निभाई है। इसमें जाह्नवी कपूर भी हैं। पूरी फिल्म पर नीरज घेवान की छाप है। उन्होंने इसके संवाद भी लिखे हैं।
बतौर उदाहरण एक दृश्य पर नज़र डालते हैं, पुलिस की वर्दी पहनने के लिए बेताब चंदन वाल्मिकी ऑफिस में खुद को 'जनरल' कैटेगरी का बताता है। सामने वाला कर्मचारी उसकी जाति को लेकर संदेह में है और यह कन्फर्म करने के लिए चन्दन का गोत्र पूछता है। उस दृश्य के बाद चन्दन के चेहरे पर एक अजीब बेचैनी दिखती है। एक ऐसा भय जिसमें उसका दोष नहीं फिर भी एक आपराधिक भाव है, मानो उसने दलित होकर कोई अपराध किया है।
चंदन का अपने दोस्त शोएब के मना करने के बावजूद 'जनरल' कैटेगरी में फॉर्म भरना, खुद की आइडेंटिटी को लेकर स्वीकारोक्ति न होना इस तथाकथित सभ्य समाज में तथाकथित निम्न जाति में पैदा होने का डर, शर्म ,पीड़ा को बयां करता है। गौरतलब है कि भारत में जातिवाद कानूनी रूप से अपराध है।
पिछले कुछ दशकों से हिंदू-मुस्लिम विभेद और कट्टरता को चरम पर पहुँचाकर की जा रही राजनीति कैसे एक आम नागरिक को परेशान करती है वह शोएब के पात्र के हवाले से देखा जा सकता है। शोएब एक सेल्स कम्पनी में चपरासी की नौकरी कर रहा है, उसके दफ़्तर के लोग उसके हाथ का पानी पीने से मना करते हैं ,उसके अम्मी अब्बू का आधार कार्ड माँगा जाता है। भारत पाकिस्तान के मैच में भारत के जीतने पर उसे पाकिस्तान के नाम से गाली दी जाती है और जब वह विरोध जताता है तो इसे महज मज़ाक़ करार दिया जाता है।
यह फिल्म सिर्फ पर्दे पर चलती हुई कहानी नहीं है, बल्कि यह उन लाखों अनकही आवाज़ों का दस्तावेज है जिससे लोग रोज़ दो-चार हो रहे हैं। फिल्म का सार इसकी कच्ची वास्तविकता में छिपा है। तमाम कोशिशें, तमाम सामाजिक असंवनशीलताएँ हैं मगर शोएब के लिए चंदन ज़रूरी है। राजनीति से प्रेरित कोई भी कट्टरता उनकी दोस्ती ख़राब नहीं कर पाती है। महामारी का ख़ौफ़ भी उन्हें अलग नहीं कर पाता है।
'होमबाउंड' का असली मर्म यह सवाल है: क्या हम वास्तव में कभी घर लौट पाते हैं? फिल्म बेहद खूबसूरती से बयान करती है कि कैसे सिस्टम, जाति और आर्थिक मजबूरियां इंसान को अपने ही देश में 'परदेसी' बना देती हैं। यहाँ 'होमबाउंड' होने का मतलब सिर्फ घर लौटना नहीं, बल्कि अपनी जड़ों और पहचान को फिर से खोजने की एक दर्दनाक जद्दोजहद है।
इस बेहद ज़रूरी फ़िल्म का ऑस्कर्स की लिस्ट में आना केवल एक जगमगाने वाली उपलब्धि नहीं है, यह उस समस्या को वैश्विक रूप से पहचानने की कोशिश है जिसे भारत में अक्सर बुहारकर किनारे लगा दिया जाता है।