विवेक अग्निहोत्री ने कश्मीरी पंडितों पर अपनी फिल्म कश्मीर फाइल्स में मीडिया को आतंकवादियों की रखैल, आस्तीन का साँप बताया है। पता नहीं हमारे राष्ट्रवादी चैनल इसे मान-अपमान की किस श्रेणी में लेंगे। हाँ, फिल्म में एक संवाद के माध्यम से यह स्वीकार भी किया गया है कि यह नैरेटिव्स का वॉर है।
विवेक अग्निहोत्री ने कहानी कहने का जो अंदाज, जो नैरेटिव चुना है वह कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचार, हिंसा के बहाने मुसलमानों के साथ साथ समूची उदारवादी सोच को देश के दुश्मन, गुनाहगार की तरह दिखाता है। जिसका असर फिल्म के दर्शकों की गालीगलौज वाली प्रतिक्रियाओं में दिखता भी है। फ़िल्मकार को अपने नज़रिये से कहानी कहने की आज़ादी है लेकिन जिस तरह से उसे कहा गया है, ऐसा नहीं लगता है कि बात एक पीड़ित समुदाय को न्याय दिलाने की हो रही है, बल्कि ज़ोर दूसरे समुदाय को अपराधी क़रार देने पर है। कश्मीरी पंडितों को न्याय न मिल पाने में समूची व्यवस्था की नाकामी को लेकर मौजूदा सरकार पर कोई सवाल नहीं है। ऐसे में विवेक अग्निहोत्री की नीयत और मक़सद पर सवाल उठता है। बक़ौल मुक्तिबोध - पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?
फिल्म का तकनीकी पक्ष अच्छा है। लेकिन आतंकवादी हिंसा का चित्रण डरावना से ज़्यादा वीभत्स है। जुगुप्सा पैदा करता है। तीन घंटे की फिल्म में या तो तड़ातड़ चलती गोलियाँ हैं, हिंसा है या अनुपम खेर, पल्लवी जोशी और अपराध बोध, ग्लानि से पीड़ित चार बुजुर्ग हो चुके पात्रों के माध्यम से राजनीति, सरकार, मीडिया, प्रशासन, सेकुलरिज़्म के ख़िलाफ़ बोझिल भाषणबाज़ी। अभिनय के मामले में सबसे अच्छा काम दर्शन कुमार का लगा जो केंद्रीय चरित्र पुष्कर नाथ (अनुपम खेर) के पोते कृष्णा के किरदार में हैं। छात्रसंघ चुनाव लड़ने वाला पूरा प्रसंग जेएनयू के कन्हैया कुमार प्रकरण की याद दिलाता है।
फ़ैज़ की नज़्म ‘बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे’ गा रहे कृष्णा को उसकी प्रोफ़ेसर मेनन (पल्लवी जोशी) बरगलाती है। प्रोफ़ेसर कहती है कि एक हीरो है तो एक विलेन भी तो होना चाहिए। फ़्लैशबैक में विलेन ही विलेन हैं। दिलचस्प है कि छात्रसंघ चुनाव में कश्मीरी मुसलिम वोटर बहुतायत में बताये गये हैं।
प्रोफ़ेसर का किरदार वामपंथी रुझान वाली सोच को नकारात्मक दिखाता है। आजकल की टीवी वाली बहसों की भाषा में अर्बन नक्सल टाइप। विवेक अग्निहोत्री अर्बन नक्सल्स शीर्षक से किताब भी लिख चुके हैं।
पल्लवी जोशी, अनुपम खेर के अलावा पत्रकार की छोटी सी भूमिका में अतुल श्रीवास्तव का काम भी अच्छा है। सबसे ख़राब अभिनय ब्यूरोक्रेट बने मिथुन चक्रवर्ती का लगा। मुख्यमंत्री के बारे में टिप्पणी है कि उन्हें तो गोल्फ खेलने और हीरोइनों से फ़ुर्सत नहीं है। निशाना फ़ारूख अब्दुल्ला पर है। अनुपम खेर एक दृश्य में नारा लगाते हैं आर्टिकल 370 हटाओ, कश्मीरी पंडितों को वापस लाओ।
कुल मिलाकर, एक बेहद संवेदनशील विषय पर एक प्रोपेगैंडा फिल्म है कश्मीर फाइल्स। विवेक अग्निहोत्री इससे पहले ताशकंद फाइल्स बना चुके हैं। मोदी युग में प्रधानता पाने वाले फ़िल्मकारों में उनका भी नाम है। प्रधानमंत्री के साथ उनकी फोटो जताती है कि वे सरकार के नज़दीकियों में हैं। उनकी फिल्म के प्रमोशन के लिए मंत्रियों से लेकर सरकार समर्थकों की तमाम टोलियों की तरफ से तरह तरह के आह्वान किये जा रहे हैं। विवेक अग्निहोत्री भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (आईसीसीआर) में सिनेमा के प्रतिनिधि हैं। कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्म से अंदाज़ा लगा सकते हैं वह किस तरह के सिनेमा का प्रतिनिधित्व करते हैं।
सिनेमा सिर्फ मनोरंजन का माध्यम नहीं है। जनता से संवाद का सीधा और बहुत ताक़तवर माध्यम है। इसलिए फिल्में बनाने वालों की भूमिका समाज में बहुत अहम होती है, काफी ज़िम्मेदारी की। अच्छा सिनेमा अच्छा संवेदनशील इंसान बनने में और अच्छा नागरिक बनने में मददगार हो सकता है।
फिल्म में पत्रकार बना अभिनेता कहता है- सच जब तक जूते पहन रहा होता है, झूठ पूरी दुनिया का चक्कर लगा चुका होता है। बड़े विडंबनापूर्ण अर्थ में यह संवाद इस फिल्म के अंदाज़े बयां और उससे पैदा होने वाले असर को भी संक्षेप में समेट देता है। लेकिन ‘हिंदू अब जाग गया है‘ की चिंघाड़ के आगे किसी सच की ज़रूरत और जगह ही कहाँ बची है।
अपनी राय बतायें