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मौत के मुँह में क्यों धकेला जाता रहा है सफ़ाई कर्मियों को?

सीवर लाइन में उतरने वाले सफ़ाई कर्मियों की जान जाने के मामले लगातार आने के बावजूद सुरक्षा के उपाय नहीं हो पा रहे हैं। एक दिन पहले ही गुरुवार को गाज़ियाबाद के नंदग्राम में पाँच सफ़ाई कर्मियों के साथ हादसा हो गया। सीवरलाइन में पहले एक सफ़ाई कर्मी गया था। वह बाहर नहीं आया तो दूसरा गया। दूसरा नहीं आया तो तीसरा गया। इसी तरह पाँचों सीवर लाइन में उतर गए। नीचे उतरते ही उनकी साँसें अटकती गईं। पाँचों का अंदर ही दम घुट गया। इनकी पहचान भी नहीं हो पाई है। ऐसे में फ़ेस मास्क, साँस लेने के उपकरण जैसे सुरक्षा की बात करना ही बेईमानी होगी। मीडिया रिपोर्टें हैं कि किसी ठेकेदार के कहने पर वे सीवरलाइन में सफ़ाई के लिए उतर गए थे। अब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने घटना पर दुख व्यक्त किया और मृतकों के परिजनों को 10-10 लाख रुपये की सहायता राशि देने की घोषणा की है। मुख्यमंत्री ने प्रबंध निदेशक को जाँच के आदेश दिए हैं। परिवारों को सहायता तो मिल जाएगी, लेकिन क्या इससे आगे होनी वाली संभावित घटनाएँ नहीं हो पाएँगी? क्या सुरक्षा के उपाय नहीं किए जाने चाहिए?

सवाल यह है कि एक के बाद एक सफ़ाई कर्मियों की मौत के बाद भी समाधान क्यों नहीं निकलता? क्या फ़ेस मास्क, साँस लेने के उपकरण और वर्दी जैसे सुरक्षा के उपकरण भी उपलब्ध नहीं कराए जा सकते हैं? क्या दुर्घटना की स्थिति में आकस्मिक योजना नहीं होनी चाहिए?

क्या यह शर्म की बात नहीं कि सफ़ाई करने में लोगों की जानें चली जाएँ और कान पर जूँ तक न रेंगे? क्या संवेदनाएँ मर चुकी हैं? यदि ऐसा नहीं है तो इसे रोक पाने में नाकाम क्यों हैं?

देश भर में सीवर में मरने वालों की सही संख्या कितनी है, इसका ठीक-ठीक आँकड़ा तक नहीं है। 

समाधान कैसे निकलेगा?

सरकार के पास देश भर के ठोस आँकड़े तक नहीं हैं। मोटे तौर पर हर पाँच दिन में एक कर्मचारी की मौत होती है। हालाँकि, सरकार की ओर से अख़बारों की कटिंग और इधर-उधर की सूचनाओं के आधार पर जनवरी, 2017 से लेकर 2018 के आख़िरी के महीनों तक सीवर लाइन में मरने वालों की संख्या 123 बताई गई। यह रिपोर्ट नेशनल कमीशन फॉर सफ़ाई कर्मचारी ने तैयार की है। लेकिन दिक्कत यह है कि इस संख्या का आधार ठोस नहीं है। ऐसा इसलिए है कि कुछ महीने पहले ही एक रिपोर्ट आई थी कि 29 राज्यों और सात केंद्र शासित प्रदेशों में से सिर्फ़ 13 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने आँकड़े भेजे हैं। 

आँकड़े इकट्ठा करने का काम सामाजिक न्याय मंत्रालय की इंटर-मिनिस्ट्रियल टास्क फ़ोर्स करती है। इसकी गिनती भी सिर्फ़ 18 राज्यों के 170 ज़िलों में ही होती है। यानी 400 से ज़्यादा ज़िलों को शामिल ही नहीं किया गया है। इन 170 ज़िलों में से सिर्फ़ 109 ज़िलों ने ही रिपोर्ट सौंपी है।

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ज़्यादा जानें गईं: सफ़ाई आंदोलन

हालाँकि, मैग्सेसे अवार्ड जीतने वाले बेज़वादा विल्सन की संस्था सफ़ाई कर्मचारी आंदोलन ने सरकार के आँकड़ों को ग़लत बताया है और इसकी संख्या 300 बताई। संस्था ने यह दावा सफ़ाई कर्मचारियों की मौत के आँकड़ों और उनकी पोस्टमार्टम रिपोर्ट के आधार पर किया है। विल्सन ने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ से बातचीत में कहा था कि सामाजिक न्याय मंत्रालय का काम मुख्य तौर पर मुआवजा देने से जुड़ा रहा है। यानी किसी कर्मचारी की मौत के बाद उनके परिवार की देखभाल करने में। वह कहते हैं कि इससे ज़्यादा किए जाने की ज़रूरत है।

अख़बार की रिपोर्ट के अनुसार, बेज़वादा विल्सन ने कहा, ‘सफ़ाई कर्मचारियों की मौत को कम कर के आँका जाता है और उनकी ज़िंदगी को भी। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो भी इससे सहमत था कि मौतों के लिए अलग-अलग डॉक्यूमेंट तैयार किए जाने चाहिए। लेकिन कुछ भी नहीं किया गया।’

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सेप्टिक टैंक, नाली और मल-जल की सफ़ाई कराने के मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन जारी है। ऐसा इसलिए कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फ़ैसले में मल जल, सीवेज, सेप्टिक टैंक या नाले की सफ़ाई हाथ से करने पर पूरी तरह से रोक लगा दी है। इसलिए इस काम में मज़दूरों को लगाना ग़ैर-क़ानूनी है। सफ़ाई कर्मचाारी आंदोलन की एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने साल 2014 में इससे जुड़े आयोग से कहा कि वह पता लगाए कि इस तरह की कितनी मौतें हुई हैं। आयोग ने सभी राज्य सरकारों और केंद्र प्रशासित क्षेत्रों से रिपोर्ट देने को कहा। सिर्फ़ 13 यानी आधे से भी कम राज्यों ने ही रिपोर्ट दी है। 

ऐसे में जब समस्या को ही नहीं माना जाएगा तो इसका समाधान कैसे निकलेगा? 

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क़मर वहीद नक़वी
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