दुनिया में हिंदी के किसी प्रसिद्ध स्कॉलर के भारत आने से क्या दिक्कत हो सकती है? यह सवाल हिंदी स्कॉलर फ्रांसेस्का ऑर्सिनी को एयरपोर्ट से ही भारत से निष्कासित किए जाने के बाद उठ रहा है। ऑर्सिनी लंदन के स्कूल ऑफ़ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज यूनिवर्सिटी में हिंदी और उर्दू साहित्य की प्रोफेसर हैं। उनको सोमवार देर रात दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर रोका गया और बिना किसी स्पष्टीकरण के भारत से निष्कासित कर दिया गया। उनके पास वैध पांच वर्षीय ई-वीजा था, फिर भी इमीग्रेशन अधिकारियों ने उन्हें प्रवेश की अनुमति नहीं दी। द वायर ने यह रिपोर्ट दी है। यह घटना तब आई है जब भारत में शैक्षिक गतिविधियों से जुड़े लोग और एक्टिविस्ट आरोप लगाते रहे हैं कि शैक्षणिक स्वतंत्रता पर हाल में खतरा बढ़ा है। 

ऑर्सिनी दक्षिण एशियाई साहित्यिक संस्कृतियों में बहुभाषावाद पर दशकों से शोध कर रही हैं। वह चीन में एक शैक्षणिक सम्मेलन में भाग लेने के बाद हांगकांग के रास्ते दिल्ली पहुंची थीं। उनका इरादा भारत में दोस्तों से मिलने का था और वे अक्टूबर 2024 में भी भारत यात्रा कर चुकी थीं। लेकिन रात के समय हवाई अड्डे पर इमीग्रेशन काउंटर पर पहुंचते ही अधिकारियों ने उन्हें रोक लिया। द वायर की रिपोर्ट के मुताबिक, उन्हें तुरंत ही लौटाने का आदेश दिया गया, बिना कोई कारण बताए। लंदन में रहने वाली ऑर्सिनी को खुद ही घर लौटने की व्यवस्था करनी पड़ी। ऑर्सिनी ने बताया कि अधिकारियों ने कोई कारण नहीं बताया और सिर्फ़ इतना कहा, 'मुझे केवल यही बताया गया कि मैं प्रवेश नहीं कर सकती।' 

ऑर्सिनी का हिंदी साहित्य में योगदान

इटली की रहने वाली फ्रांसेस्का ऑर्सिनी ने वेनिस यूनिवर्सिटी से हिंदी में स्नातक किया और नई दिल्ली के सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ हिंदी तथा जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी यानी जेएनयू में आगे की पढ़ाई की। बाद में एसओएएस से पीएचडी प्राप्त करने वाली ऑर्सिनी ने दक्षिण एशिया की साहित्यिक परंपराओं पर गहन कार्य किया है। उनकी 2002 की पुस्तक 'द हिंदी पब्लिक स्फीयर 1920-1940: लैंग्वेज एंड लिटरेचर इन द एज ऑफ नेशनलिज्म' राष्ट्रवाद के दौर में हिंदी साहित्य की भूमिका को समझने में मील का पत्थर साबित हुई। 

फ्रांसेस्का ऑर्सिनी का कार्य हिंदी-उर्दू सामग्री पर केंद्रित है, जो दक्षिण एशियाई साहित्य में बहुभाषावाद की खोज करता है। भारत सरकार द्वारा प्रचारित हिंदी को वैश्विक मंच पर मजबूत करने वाली ऑर्सिनी का निष्कासन विडंबना वाला फैसला है।

सरकार पर हमला

इस घटना पर सोशल मीडिया और बुद्धिजीवी जगत में तीखी प्रतिक्रियाएँ हुईं। इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने एक्स पर लिखा, 'प्रोफेसर फ्रांसेस्का ऑर्सिनी भारतीय साहित्य की महान विद्वान हैं, जिनके कार्य ने हमारी सांस्कृतिक विरासत को समृद्ध किया है। बिना कारण निष्कासित करना एक असुरक्षित, पैरानॉयड और यहां तक कि सरकार की मूर्खता की निशानी है।'

इतिहासकार मुकुल केसवान ने ट्वीट किया, 'एनडीए सरकार की विद्वानों और शोध के प्रति गहरी शत्रुता देखने लायक है। हिंदी के प्रति वैचारिक प्रतिबद्धता वाली सरकार ने फ्रांसेस्का ऑर्सिनी को प्रतिबंधित कर दिया। इसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते।'

टीएमसी सांसद सागरिका घोष ने एक्स पर लिखा, 'हैरानी वाली और दुखद। फ्रांसेस्का ऑर्सिनी दक्षिण एशियाई साहित्य और हिंदी की विश्व प्रसिद्ध विद्वान हैं, जिन्हें वैध वीजा के बावजूद निष्कासित कर दिया गया। संकीर्ण मानसिकता वाली और पिछड़ा नजरिया रखने वाली मोदी सरकार भारत की उदार शोध और उत्कृष्टता को तबाह कर रही है।' दिल्ली यूनिवर्सिटी के हिंदी प्रोफेसर और सत्य हिंदी के स्तंभकार अपूर्वानंद ने इसे शॉकिंग और शोध पर सीधा हमला बताया। 

शैक्षणिक स्वतंत्रता पर सिकुड़ता स्थान

यह घटना हाल के वर्षों में विदेशी विद्वानों के प्रवेश नकारे जाने की चौथी घटना है। मार्च 2022 में ब्रिटिश एंथ्रोपॉलोजिस्ट फिलिप्पो ओसेल्ला को तिरुवनंतपुरम हवाई अड्डे से बिना स्पष्टीकरण निष्कासित किया गया था। उसी वर्ष वास्तुकला प्रोफेसर लिंडसे ब्रेमनर को भी प्रवेश नकारा गया। 2024 में यूके-आधारित कश्मीरी विद्वान निताशा कौल को बेंगलुरु हवाई अड्डे पर रोका गया और उनकी ओसीआई कार्ड रद्द कर दिया गया। स्वीडन-आधारित विद्वान अशोक स्वैन का ओसीआई कार्ड रद्द कर दिया गया था, जो बीजेपी की राजनीति के आलोचक हैं। हालाँकि दिल्ली हाईकोर्ट से उन्हें राहत मिली। हाल ही में एक वैश्विक रिपोर्ट में भारत को शैक्षणिक स्वतंत्रता के सिकुड़ते स्थान का प्रमुख उदाहरण बताया गया, जहां विश्वविद्यालयों और राजनीतिक समूहों द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सीमित हो रही है। 

सरकार की चुप्पी से बढ़ा विवाद

सरकार की ओर से अभी तक कोई आधिकारिक बयान नहीं आया है, जिससे अटकलें तेज हो गई हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि यह घटना भारत की सॉफ्ट पावर और सांस्कृतिक कूटनीति को नुकसान पहुंचा सकती है, खासकर जब ऑर्सिनी जैसी विद्वान हिंदी को वैश्विक पटल पर मजबूत कर रही हों। यह मामला न केवल एक विद्वान की निजी त्रासदी है, बल्कि भारत में आलोचनात्मक शोध की जगह सिकुड़ने का संकेत है। क्या सरकार स्पष्टीकरण देगी या यह सिलसिला जारी रहेगा?