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मोदी-शाह के लिए चिंता का सबब बनी सिकुड़ती बीजेपी!

राजनीति में हर दिन आपका सिक्का नहीं चलता और भारतीय राजनीति में तो ऐसे कई उदाहरण हैं जब अजेय माने जाने वाले नेताओं को जनता ने उनकी ज़मीन दिखा दी है। इस वाक्य से इस ख़बर की शुरुआत करने का सीधा मतलब झारखंड विधानसभा चुनाव के नतीजों से है। बीजेपी बड़े जोर-शोर से झारखंड की जीत का दावा कर रही थी लेकिन चुनाव परिणाम आने के बाद उसे सोचना होगा कि इतना विपरीत परिणाम क्यों आया है। 

झारखंड के पूरे चुनाव प्रचार और चुनाव नतीजों को ध्यान से देखें तो समझ आता है कि वहां स्थानीय मुद्दों पर जोर देने के बजाय बीजेपी का जोर राष्ट्रीय मुद्दों पर रहा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, बीजेपी अध्यक्ष और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने रैलियों में जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाने का जिक्र किया। अमित शाह ने चुनाव रैलियों में देश भर में एनआरसी को लागू करने की भी बात कही और यह भी बताने की कोशिश की कि कांग्रेस की सरकार ने राम मंदिर समेत कई मुद्दों को लटकाया। इस सबके बीच स्थानीय मुद्दों पर ज़्यादा बात नहीं हुई। जल, जंगल, ज़मीन, किसान- आदिवासियों के हक़, मॉब लिंचिंग में मुसलमानों की हत्या जैसे मुद्दों को लगभग दरकिनार कर दिया गया। 

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ख़ैर, यहां बात करते हैं कि पिछले कुछ सालों में बीजेपी किस तरह तेज़ी से शीर्ष पर पहुंची और फिर उसी तेज़ी से वह सिकुड़ भी गई। 2014 में जब केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी तो 7 राज्यों में बीजेपी के मुख्यमंत्री थे। 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद जब अमित शाह बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने तो उसके बाद मोदी-शाह की जोड़ी ने कमाल ही कर दिया। इस जोड़ी के दम पर पार्टी ने एक के बाद एक कई राज्यों में चुनाव जीते। 2015 से 2018 तक दिल्ली, बिहार जैसे कुछ राज्यों को छोड़ दें तो बीजेपी का विजय रथ सरपट दौड़ रहा था। 

'अजेय' होने का भ्रम टूटा

2018 तक देश के 21 राज्यों में बीजेपी और उसके सहयोगी दलों की सरकार बन चुकी थी और माना यह गया कि 2019 का लोकसभा चुनाव जीतना उसके लिए बेहद आसान रहेगा। लेकिन दिसंबर 2018 में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के चुनाव नतीजे आने के बाद यह भ्रम टूट गया कि मोदी-शाह की जोड़ी 'अजेय' है। इन तीनों ही राज्यों में बीजेपी की सरकारें थीं और कांग्रेस ने इन सरकारों को उखाड़ फेंका था। 

हालाँकि लोकसभा चुनाव 2019 में एक बार फिर मोदी का जादू मतदाताओं के सिर चढ़कर बोला और पार्टी को पिछली बार से भी बड़ी जीत हासिल हुई। इसके बाद अक्टूबर में महाराष्ट्र और हरियाणा में विधानसभा के चुनाव हुए। इन दोनों राज्यों में बीजेपी नेतृत्व का यह मानना था कि पार्टी आसानी से जीत जाएगी। लेकिन हुआ उल्टा। महाराष्ट्र में तो वह सरकार ही नहीं बना सकी और हरियाणा में उसे एक नई जन्मी पार्टी को सत्ता में हिस्सेदारी देनी पड़ी। 

हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव नतीजों ने राजनीतिक विश्लेषकों को यह सोचने के लिए मजबूर किया कि लोकसभा चुनाव में बड़ी जीत हासिल करने वाली बीजेपी को इन दो राज्यों में वोट क्यों नहीं मिले। इसके पीछे बदतर आर्थिक हालात, बढ़ती बेरोज़गारी को भी जिम्मेदार माना गया।

इस तरह बीजेपी दिसंबर, 2017 में जहाँ देश के 71 फ़ीसदी नक्शे पर छाई दिखती थी, वह दिसंबर 2019 में 35 फ़ीसदी पर आ गई है। झारखंड की हार से निश्चित रूप से नरेंद्र मोदी और अमित शाह को सोचने की ज़रूरत है कि आख़िर उनके पूरी ताक़त झोंकने के बाद भी लोगों ने उन्हें क्यों नकार दिया। 

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झारखंड में मिली हार के बाद बीजेपी के सामने सबसे बड़ी चुनौती अगले दो महीने के भीतर होने वाले दिल्ली विधानसभा चुनाव की है। क्योंकि अब उसके ऊपर जीत हासिल करने का मनोवैज्ञानिक दबाव बढ़ गया है और विपक्षी दलों को भी यह भरोसा हुआ है कि अगर वह झारखंड की तर्ज पर एकजुट होकर लड़ें तो बीजेपी को सत्ता से बेदख़ल  किया जा सकता है। झारखंड से सटा हुआ राज्य बिहार है तो झारखंड में बीजेपी को हराने वाले कांग्रेस-जेएमएम-आरजेडी गठबंधन को बिहार में भी ताल ठोकनी है। बिहार में अगले साल नवंबर में चुनाव होने हैं। ऐसे में बीजेपी के लिए चुनौतियां कम नहीं हैं और मुश्किल यह भी है कि जिस जनता दल यूनाइटेड के साथ मिलकर उसे बिहार में चुनाव लड़ना है, वह झारखंड में उसके ख़िलाफ़ चुनाव लड़ चुकी है। 
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पवन उप्रेती
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