कृष्णा सोबती, अज्ञेय, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, निर्मल वर्मा, श्रीलाल शुक्ल, केदारनाथ सिंह और अब नामवर सिंह के रूप में हिंदी के इस हरे-भरे जंगल से एक-एक कर पुराने दरख्त ख़त्म हो चुके हैं।
नामवर सिंह परलोक लीन हो गए। ऐसा लग रहा है कि मानो मेरे भीतर कुछ टूट गया हो। कुछ अपूरणीय-सा। असहनीय-सा। यह हिन्दी आलोचना की तीसरी परम्परा का चले जाना है।
हिन्दी के विख्यात आलोचक और विद्वान शिक्षक डॉ. नामवर सिंह नहीं रहे। लेकिन अपनी प्रतिभा और विद्वता के बल पर वह अपने समकालीन तमाम लेखकों और शिक्षकों में विशिष्ट नज़र आते हैं।
19 फ़रवरी, 2019। यह तारीख़ हिंदी साहित्य की अपूरणीय क्षति के रूप में याद की जाती रहेगी। क्योंकि इसी तारीख़ को हिंदी के विद्वान नामवर सिंह ने दिल्ली के एम्स में 93 साल की उम्र में अंतिम साँस ली।
नब्बे साल का होना भी अब खबर नहीं क्योंकि आम तौर पर दीर्घायुता में वृद्धि हुई है, लेकिन किसी आलोचक का तकरीबन सत्तर साल तक रचनात्मक रूप से सक्रिय बने रहना ज़रूर खबर है।
ललित सहगल के नाटक ‘हत्या एक आकार की’ का 30 जनवरी को मंचन हुआ। उसी दिन ऐन शहीद दिवस को अलीगढ़ में कुछ हिन्दूसभाइयों ने गाँधी-हत्या को रिएनेक्ट किया। ऐसा क्यों?
स्त्री की शारीरिक ज़रूरतें और उस पर थोपे गई यौन शुचिता के पाखंड को अपने उपन्यास मित्रो मरजानी में कृष्णा सोबती ने बखूबी उभारा था। क्या कहना है मैत्रेयी पुष्पा का?
क़ैफी आज़मी के रोमांटिक गीतों ने धूम मचा दी और वे बॉलिवुड पर छा गए, पर मूल रूप से वे विद्रोह के कवि था। कम्युनििस्ट विचारधार पर चलने वाले क़ैफी ने कई विषयों पर कलम चलाई।