पंजाब की यादों में बंगाल का दर्द
कुछ दिन पहले एक ड्रॉइंग रूम में, जहाँ हँसी गूँज रही थी और क्रिस्टल के गिलास चमक रहे थे, मैंने एक पंजाबी सोशलाइट — शहर की पढ़ी-लिखी, समझदार महिला— से कहा कि अब शायद भूलने और माफ़ करने का वक्त आ गया है। हमें एक ऐसा भारत बनाना है जो सबको साथ लेकर चले, जो आगे देखे। वो मेरी तरफ़ देखती हैं, आँखों में कुछ मिला-जुला—गर्व भी, दर्द भी। और कहती हैं: "जिस तन लगा, वही जाने।"
यानी जिसके साथ हुआ है, वही समझ सकता है। मैं चुपचाप उनकी तरफ़ देखता रहा और सोचने पर मजबूर हो गया—क्या भारत का विभाजन सिर्फ़ पंजाब में ही हुआ था? मैं उन्हें बता सकता था कि मेरी शादी एक ऐसे परिवार में हुई है जो पूर्वी बंगाल के उजड़े हुए घरों से आया है—ढाका, बरिशाल, मैमनसिंह, सिलहट।
मेरा अपना परिवार भी उस सरहद से बस एक पीढ़ी दूर है। मैं उन लोगों के बीच बड़ा हुआ हूँ जिनकी ज़िंदगी उजड़ गई—पर जिन्होंने अपनी इज़्ज़त नहीं खोई। पंजाब की त्रासदी बहुत बड़ी थी। लाशों से भरी ट्रेनें, खून से सनी ज़मीनें, डर से भागते काफ़िले—हर आँसू जायज़ है। लेकिन हमारे देश की याददाश्त एकतरफ़ा हो गई है। जब भी बँटवारे की बात होती है, ज़्यादातर लोग पंजाब की कहानी सुनाते हैं।
बंगाल की कहानी?
वो या तो भूली जाती है, या एक छोटा-सा फुटनोट बनकर रह जाती है। बँटवारा तो पहले ही शुरू हो गया था। बंगाल का दर्द 1947 से पहले ही शुरू हो चुका था। 1905 में लॉर्ड कर्ज़न ने बंगाल को बाँट दिया—बोलकर कि ये प्रशासन के लिए है, लेकिन असल में ये "फूट डालो और राज करो" की चाल थी। 1911 में ये बँटवारा वापस हुआ, लेकिन लोगों के दिलों में दरार रह गई। पहचानें बँटने लगीं—पूर्व और पश्चिम के बीच, बोली और बर्ताव के बीच। पूर्वी बंगाल में तनाव बढ़ता गया। धीरे-धीरे, बँटवारे की सोच ने जड़ पकड़ ली।
पहला पलायन
1947 से पहले ही, लोग डर के मारे पश्चिम बंगाल आने लगे। लेकिन वहाँ भी उन्हें अपनापन नहीं मिला। उनकी बोली का मज़ाक उड़ाया गया, उनके खाने को नीचा दिखाया गया, और उनकी मौजूदगी से लोग चिढ़ते थे। वे दो बार शरणार्थी बने—पहले अपने उजड़े हुए घरों से, फिर उस ज़मीन पर जहाँ उन्हें अपनाया नहीं गया।
खून की होली
1946 में जिन्ना के आह्वान से बहकाया गया एक तबका इसे मार-काट की खुली छूट समझ बैठा। खून की नदियाँ बह गईं। जवाबी कार्रवाई भी कोई कम जानलेवा नहीं थी। क्या इन बातों को अब सिर्फ़ दंगा भड़काने वाली फ़िल्में ही याद करेंगी? जब 1947 में बँटवारा हुआ, पंजाब और बंगाल दोनों जल उठे। लेकिन बंगाल की आग जल्दी नहीं बुझी।
1971 में बांग्लादेश की लड़ाई के दौरान फिर लाखों लोग भारत आए। और हर बार जब ढाका की राजनीति बिगड़ी, बंगाल की सरहद पर नए चेहरे दिखे।
झटके और हलाल का फर्क
1947 में पंजाब को एक झटके में अलग किया गया। हफ़्तों और महीनों में लाखों जानें चली गईं। लाज़मी है कि ये मंज़र इंसानी दिमाग़ पर गहरा असर छोड़ गया। लेकिन बंगाल को तो 1905 से ही हलाल किया जा रहा था। धीरे-धीरे, उसकी समृद्धि, एकता और राष्ट्रवाद को काटा गया। खून बहता रहा—और आज तक बह रहा है। पंजाब में हस्तांतरण लगभग पूरा हो गया था। इसलिए वहाँ शरणार्थियों की नई खेप नहीं आती।
पर बंगाल? जब भी बांग्लादेश में हालात बिगड़ते हैं, नज़रें भारत की तरफ़ उठती हैं। नदियाँ पार होती हैं। स्टेशन भरते हैं। कॉलोनियाँ फैलती हैं। बंगाल का बँटवारा कभी ख़त्म नहीं हुआ। वो आज भी जारी है—धीमे ज़ख़्म की तरह, जो रिसता रहता है।
सिर्फ पंजाब की तस्वीरें क्यों?
हमारे राष्ट्रीय पार्टीशन म्यूज़ियम में ज़्यादातर तस्वीरें पंजाब की हैं—लाशों से भरी ट्रेनें, सड़कों पर काफ़िले। लेकिन क्या किसी ने देखा है सियालदह स्टेशन पर ठुसी हुई भीड़? पद्मा पार करती नावें? कोलकाता के बाहर की शरणार्थी कॉलोनियाँ?
पुनर्वास में भी भेदभाव
पंजाबियों को ज़मीन मिली, पैकेज मिले, और अपना राज्य भी। उन्होंने बंजर ज़मीन को हरा-भरा बना दिया। बंगालियों को क्या मिला? तंग कॉलोनियाँ, टूटी सड़कें, और राजनीतिक अनदेखी। पंजाब का दर्द बोला गया, सुना गया, और समझा गया। बंगाल का दर्द बस सहा गया।
राजनीति की चुप्पी
33 साल की कम्युनिस्ट सरकार ने पहचान की राजनीति को रोका, लेकिन शरणार्थियों की तकलीफ़ को कभी मुद्दा नहीं बनाया। 1979 में मरिचझांपी में जब उजड़े हुए लोगों ने आवाज़ उठाई, तो उन्हें गोलियाँ मिलीं। सैकड़ों मारे गए। ये कहानी किसी किताब में नहीं मिलती। जो लोग धर्म और पहचान के नाम पर आंदोलन करते हैं, यहाँ चुप हैं। जब तक कोई चुनावी फ़ायदा न हो, इन शरणार्थियों की तकलीफ़ उन्हें नहीं दिखती।
कला में भी भुला दिया गया
बंगाल के बँटवारे की कहानियाँ रित्विक घटक ने सुनाईं—मेघे ढाका तारा, सुबर्णरेखा, कोमल गंधार। वो खुद उजड़े हुए थे। उनकी फ़िल्में दर्द की चीख़ हैं। सुनील गंगोपाध्याय, महाश्वेता देवी, समरेश मजूमदार ने भी लिखा—पर ज़्यादातर बांग्ला में। बंगाल के बाहर, ये कहानियाँ नहीं पहुँचीं।
पंजाब की कहानियाँ हिंदुस्तानी और उर्दू में थीं—अमृता प्रीतम, मंटो, भीष्म साहनी, कमलेश्वर। उनकी आवाज़ें दिल्ली, बॉम्बे, दूरदर्शन तक पहुँचीं। बंगाल की आवाज़ें वहीं रह गईं—स्थानीय, अनसुनी।
विडंबना और सवाल
पंजाब और बंगाल का एक हिस्सा भारत में इसलिए रह पाया क्योंकि श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने हस्तक्षेप किया। जब बंगाल जल रहा था, गांधी नोआखाली में थे—शांति का संदेश लेकर, आग बुझाते हुए। लेकिन आज उनके विचारों के वारिस सिर्फ़ उत्तर की तरफ़ क्यों देखते हैं? क्या राजनीति ने दूरदर्शिता को पीछे छोड़ दिया?
अब याद करने का वक्त है
पंजाब ने बहुत कुछ झेला। लेकिन बहुत सालों तक, सिर्फ़ पंजाब की पीड़ा को देश ने याद रखा। बंगाल की पीड़ा को भुला दिया गया। जब उस पंजाबी सोशलाइट ने कहा—"जिस तन लगा, वही जाने"—तो वो सही थीं। पर वो भूल गईं कि तन सिर्फ़ पंजाब में नहीं लगा था। वो ढाका में भी लगा था, बरिशाल में भी, दमदम की गलियों में भी, पद्मा पार करती नावों में भी।
और पते की बात करें तो ‘तन’ तो पूरे भारत का था, किसी एक भूगोल का नहीं। भारत पर लगे ज़ख़्म तभी भरेंगे जब हम अपना दर्द साझा कर लें— नहीं तो बँटवारों का भी बँटवारा हो सकता है।