इस समय जो हम देश भर में देख रहे हैं वह एक दिन या एक साल में नहीं हुआ है। वर्षों से भीतर ही भीतर यह हो रहा था। आज़ादी के पहले अंग्रेजों ने ‘बांटो और शासन करो’ की नीति पर चलते हुए दोनों समुदायों के बीच गहरी खाई खोद दी जिसके नतीजे में विभाजन के समय 16 लाख बेगुनाह लोगों की जान चली गई। लेकिन उसके बाद लगा कि देश में सौहार्द्र की भावना आ गई है और दोनों समुदायों में वैमनस्य ख़त्म हो गया है। कुछ साल अच्छे बीते लेकिन फिर संकीर्ण राजनीति घुसने लगी।
मुसलमानों के मन में भय भरा जाने लगा कि कट्टर हिन्दू तुम्हें चैन से रहने नहीं देंगे। उन्हें हिन्दू महासभा या फिर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का भय दिखाया जाने लगा। दरअसल आज़ादी के पहले से ही कांग्रेस यह प्रचार कर रही थी। उनके इसी प्रचार ने दोनों समुदायों के बीच शक की दीवार खड़ी करनी शुरू की। कांग्रेस के बाद क्षेत्रीय दलों- द्रमुक, सपा, राजद, बसपा, एनसीपी और बाद में तृणमूल में इस बात की होड़ लग गई कि मुसलमानों का असली खैरख्वाह कौन है। सबने उन्हें भर-भर कर डराया और चुपके से सत्ता हथिया ली।
बिहार और यूपी का कुख्यात एम-वाय कॉम्बिनेशन सभी के सामने है। यह फॉर्मूला सत्ता में आने के लिए जबरदस्त हिट हुआ। लेकिन इसने न केवल सामाजिक ताने-बाने को बहुत क्षति पहुंचाई बल्कि अल्पसंख्यकों का बड़ा अहित किया। उनके अंदर से स्वाभाविक रूप से उठने वाला नेतृत्व दब गया। पार्टियों के हिन्दू नेता ही उनके रहनुमा या पैरोकार बन गये। उन्होंने उनकी बुनियादी समस्याओं को बट्टे-खाते में डालकर मामला महज हिन्दू-मुसलमान में बांट दिया।
आम मुसलमानों की बजाय अपराधी मुसलमान जैसे बिहार में शाहबुद्दीन, तस्लमुद्दीन और यूपी में मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद वगैरह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता में भागीदारी करने लगे। गुंडा गुंडा ही होता है और उसका धर्म अपराध करना ही होता है। उन जैसे लोगों का अपने समुदाय के लोगों से कोई खास लेना-देना नहीं था और वे उन्हें दबाये रखने के सत्तारूढ़ दल के औजार मात्र बन गये। इससे मुसलमान वहीं के वहीं रह गये। उनकी बुनियादी समस्याओं का कोई हल नहीं निकला। यह उनके मन में असंतोष का बड़ा कारण बना।
मुसलमानों में शिक्षा का बड़ा अभाव रहने का एक कारण यह भी रहा कि उन्होंने अपने बच्चों की शिक्षा पर उतना ध्यान नहीं दिया क्योंकि कारीगरी में वे लोग बहुत आगे थे और उन्हें लगता था कि इससे ही काम चल जायेगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ। आबादी बढ़ते जाने से रोजगार का टोटा पड़ गया।
एक और बात हुई। 80 के दशक में सऊदी अरब ने सारी दुनिया में मुसलमानों का सरपरस्त बनने के लिए बड़े पैमाने पर मुस्लिम धार्मिक संगठनों को दान देना शुरू किया। यह वहाबी इस्लाम यानी कट्टर इस्लाम की ओर ले जाने वाला कदम था।
कच्चे तेल की बढ़ी हुई कीमतों से भारी मुनाफा कमाने के कारण उसका खजाना लबालब भरा हुआ था। यह पैसा जब भारत-पाकिस्तान आने लगा तो इसने यहां इस्लाम को और कट्टर बनाया। इसका सबसे बड़ा उदाहरण था कि कट्टर सुन्नी मौलवियों ने अपने अनुयायिओं को खुदा हाफिज बोलने की बजाय अल्लाह हाफिज कहने पर ज़ोर दिया।
पाकिस्तान में तो अहमदिया मुसलमानों को मुसलमान मानने से ही इनकार कर दिया गया। उन पर जुल्म ढाये जाने लगे। शिया मुसलमानों पर भी गाज गिरी। हिन्दुओं और सिखों की तो हालत ही खराब कर दी गई। इसके छींटे भारत में भी गिरे। 1979 के बाद देवबंद से कट्टरपंथी मौलवी तैयार होकर निकलने लगे। वह वही देवबंद है जहां हिन्दू, ईसाई विद्वान आकर खुले दिल से उनके विद्वानों के साथ धार्मिक बहस करते थे। उन्होंने देश के बंटवारे का विरोध भी किया। लेकिन बाद में देवबंदी वहाबी इस्लाम की ओर झुकने लगे। उन्होंने बड़ी तादाद में भारत, पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान में मदरसे खुलवाये। ध्यान रहे कि अफ़ग़ानिस्तान के कई तालिबानी वहां से शिक्षा पाकर गये। इनमें पहले के मौलवियों की तरह सॉफ्टनेस नहीं थी और न ही वे खुले विचारों के थे। जो वह हर कदम में सख्ती करते रहे। इसका एक उदाहरण मैं यहां देना चाहूंगा।
कांग्रेस ने हर दंगे के लिए राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ या हिन्दू महासभा को जिम्मेदार ठहराने की कोशिश की। लेकिन सच्चाई यह है कि देश में उनके कार्यकर्ताओं की संख्या 1980 के पहले बहुत ही कम थी।
वह जमाना सोशल मीडिया का भी नहीं था कि बात दूर तक तुरंत फैल जाये। ज्यादातर दंगे स्थानीय कारणों से होते थे जैसे होली में किसी अल्पसंख्यक महिला पर रंग फेंक देना या रामनवमी के जुलूस पर पत्थर फेंक देना। या फिर किसी ज़मीन पर मंदिर या मस्जिद बनाने को लेकर झगड़ा।
दूसरा बड़ा कारण यह है कि शहरों में मौलवी अपनी प्रासंगिकता खोते जा रहे हैं और उनके लिए यही परेशानी है। इसलिए वे तकरीर के नाम पर भड़काऊ भाषण देते हैं जिसका नतीजा यह होता है कि हिंसा हो जाती है। अपनी धाक जमाने के लिए और मुसलमानों का चौधरी बनने के लिए वे ऐसा करते हैं। कई इलाकों में स्थानीय नेता भी यही काम करते हैं और भोले-भाले मुसलमानों को भड़काते हैं ताकि उनका नाम हो।
तीसरा बड़ा कारण यह भी रहा कि नन्हें से अरब देश क़तर ने नूपुर शर्मा प्रकरण में बिना कुछ जाने-समझे भारत जैसे बड़े देश को चेतावनी दे डाली। उसके बाद तो मुस्लिम देश एक के बाद एक बयान देने लगे। उनमें होड़ लग गई। कुवैत, सऊदी अरब, इराक, बहरीन, तुर्की, मलेशिया, इंडोनेशिया, मालदीव वगैरह सभी एक लाइन से निंदा करने लगे।
हैरानी की बात है कि भारत सरकार क़तर की उस चेतावनी के बाद सकते में आ गई जबकि क़तर की भारत के सामने कोई औकात नहीं है, न ही धन के मामले में और न ही साइज या आबादी के मामले में।
वहां की जितनी स्थानीय आबादी है उसके दो गुने से भी ज़्यादा आबादी भारतीयों की है। भारत के इस तरह से झुकते ही तो स्थानीय स्तर पर गरमपंथी गुटों के हौसले बुलंद हो गये। हमारे विदेश मंत्रालय से लेकर अन्य सभी सफाई देने लगे। इस तरह की हरकतों ने भारत को उनकी नज़रों में छोटा दिखा दिया जिससे भारत के अंदर उपद्रवियों और कट्टरवादियों को मौका मिल गया। जो हुआ वह सभी के सामने है। अब तक अरब देशों का भारत को निर्बाध समर्थन हर मुद्दे पर मिलता रहा है। लेकिन इस मामले में रेल पटरी से उतर गई। अब भारत सरकार डैमेज कंट्रोल में लग गई।
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