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फोटो साभार: ट्विटर/विनोद कापड़ी/वीडियो ग्रैब

पूरी दुनिया में फैली थी झूठ बोलने की महामारी!

जब से महामारी का वर्तमान दौर शुरू हुआ है कोविड से मृत्यु का मामला विवाद में रहा है। शुरू में कोविड से मरने वालों की संख्या सिर्फ़ इसलिए कम दिखाई गई क्योंकि जो लोग कोविड के कारण निमोनिया या हृदयघात जैसे रोगों का शिकार हुए उनकी मौत को कोविड मौत माना ही नहीं गया।
हरजिंदर

सरकारी आँकड़े झूठे होते हैं, यह भारत में एक आम धारणा है। इसलिए लोग यही मानते हैं कि देश में कोरोना वायरस संक्रमण को लेकर जितने आँकड़े दिए जा रहे हैं वे सच नहीं हो सकते। एक वजह यह भी है कि महामारी के आतंक को लेकर लोगों के अनुभव कुछ अलग क़िस्म के हैं, जिनकी झलक उन्हें इन आँकड़ों में नहीं मिलती। 

दुनिया भर में इसे कुछ अलग तरह से देखा जाता है और सांख्यिकी की दुनिया में यह कहा जाता है कि भारत में आँकड़ों की दरिद्रता वाला समाज है, यानी डाटा डेफिसियेंट सोसायटी।

भारत सरकार के आँकड़े बताते हैं कि यहाँ कोविड संक्रमण से मरने वालों की कुल संख्या अभी तक साढ़े चार लाख से कुछ ज़्यादा रही। कुछ समय पहले ब्रिटिश पत्रिका इकानामिस्ट ने कहा था कि हमें इन आँकड़ों को छह से गुणा करके देखना चाहिए। कुछ दूसरे अनुमान बताते हैं कि भारत में कोरोना वायरस संक्रमण के कारण मरने वालों की संख्या लगभग 40 लाख रही होगी।

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लेकिन फ़िलहाल दुनिया में चर्चा भारत के आँकड़ों की नहीं है, बल्कि पूरी दुनिया के आँकड़ों पर हो रही है। अब कुछ विशेषज्ञों ने पता लगाया है कि कम या ज़्यादा ऐसा झूठ इस दौरान दुनिया के तकरीबन सभी देशों में बोला गया है। इस्राइल में हिब्रू यूनिवर्सिटी ऑफ़ जेरूसलम के एरियल कारलिंस्की ने जब पिछले 18 महीनों की घटनाओं को इंटरनेट पर खंगाला तो उन्हें साफ़-साफ़ दिखाई दिया कि सच छुपाया गया है।

अपने देश के आँकड़ों को देखने के बाद उन्होंने बाक़ी दुनिया के कई देशों के आँकड़ों को खंगालना शुरू किया तो उन्हें वहाँ भी यही कहानी दिखाई दी। यहाँ तक कि उन विकसित देशों में भी जो डाटा के मामले में कोई कोताही नहीं बरतने के लिए जाने जाते हैं। उनका कहना है कि कई देशों ने आँकड़े ठीक से जमा ही नहीं किए और कई देशों ने उन्हें ठीक से जमा तो कर लिया लेकिन प्रकाशित नहीं किया। 

इसी दौरान ट्विटर के ज़रिये कारलिंस्की की मुलाक़ात जर्मनी की यूनिवर्सिटी ऑफ़ टबिनजेन के दिमित्रि कोबक से हुई। कारलिंस्की ने जो आँकड़े जुटाए थे कोबक ने उनका विश्लेषण शुरू कर दिया।

दोनों ने अपने विश्लेषण में उन आँकड़ों का उपयोग नहीं किया जो अप्रत्यक्ष रूप से कोविड से जुड़े थे। मसलन, कोविड की वजह से अगर किसी कैंसर मरीज का इलाज नहीं हो सका और उसकी मृत्यु हो गई तो ऐसे मामलों को इस शोध से अलग रखा गया। फिर भी उन्होंने पाया कि सिर्फ़ महामारी के कारण मरने वालों की संख्या बहुत ज़्यादा है।

जबसे महामारी का वर्तमान दौर शुरू हुआ है कोविड से मृत्यु का मामला विवाद में रहा है। शुरू में कोविड से मरने वालों की संख्या सिर्फ़ इसलिए कम दिखाई गई क्योंकि जो लोग कोविड के कारण निमोनिया या हृदयघात जैसे रोगों का शिकार हुए उनकी मौत को कोविड मौत माना ही नहीं गया।

बहुत बाद में इन पर सहमति बन सकी लेकिन फिर भी इस पर विवाद बना रहा।

लेकिन अब जो बातें सामने आ रही हैं, वे इस विवाद से अलग हैं। अब यह पाया गया है कि आँकड़े सीधे तौर पर छिपाए गए। 

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कुछ महामारी विशेषज्ञों ने इस पर आश्चर्य ज़रूर व्यक्त किया था कि कोरोना वायरस संक्रमण पिछली एक-डेढ़ सदी का सबसे मारक रोग माना गया है फिर भी इससे मरने वालों की संख्या 1918 के स्पैनिश फ्लू से काफ़ी कम क्यों है। इसके जवाब में यह कहा गया था कि पिछली एक सदी में जांच और स्वास्थ्य सुविधाओं में काफ़ी सुधार हुआ है जिससे इस रोग को कुछ हद तक रोका जा सका। बेशक ऐसा हुआ भी है लेकिन अब लगता है कि यह तर्क उतना पुख्ता नहीं है जैसा कि दावा किया जा रहा है। 

जाँच में पाया गया कि महामारी का यह झूठ अलग-अलग देशों में अलग-अलग स्तर पर बोला गया। कहीं आँकड़े कम छुपाए गए तो कहीं बहुत ज़्यादा, और बहुत से देशों में तो यह पता भी नहीं चल सका कि दूर-दराज के गांवों-देहातों में कितने लोग संक्रमित हुए और कितने संक्रमण की वजह से जान गवां बैठे।

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