मेडिकल छात्रों की आत्महत्या हमारे देश में मामूली बात है। तमाम समस्याओं के बीच इस पर ध्यान देने की फुरसत किसी को नहीं। यही कारण है कि देहरादून में शिशुरोग के पीजी मेडिकल छात्र डॉ. दिवेश गर्ग की आत्महत्या भी महज एक संख्या बनकर रह गई।
पलवल (हरियाणा) के एक मध्यवर्गीय परिवार ने जिंदगी भर की कमाई दांव पर लगाकर, 38 लाख रुपये देकर बेटे का एडमिशन कराया था। पूरे कोर्स पर लगभग 1.20 करोड़ का खर्च आता। लेकिन 17 मई की रात उसने कॉलेज के होस्टल में आत्महत्या कर ली। चार बहनों का इकलौता भाई था। शोकाकुल पिता कहते हैं- “क्या कहें भाई, हमारी तो जिंदगी ही लुट गई।"
नेशनल मेडिकल कमीशन (एनएमसी) ने आरटीआई के तहत डॉ. विवेक पांडेय को चौंकाने वाली सूचना दी थी। वर्ष 2018 से 2022 के बीच देश में कुल 122 मेडिकल छात्रों ने आत्महत्या कर ली। इनमें एमबीबीएस के 64 तथा पीजी के 58 छात्र शामिल थे। वर्ष 2023 और 2024 में भी यह सिलसिला जारी है। अनुमान है कि डॉ. दिवेश गर्ग की संख्या एक सौ पचासवीं होगी। यह संख्या कुछ कम या अधिक हो सकती है।
मध्यवर्गीय परिवारों के बच्चों का एमबीबीएस कर लेना एक बड़ा सपना होता है। इसके बाद पीजी में बेहद कम सीटें होने के कारण एडमिशन काफी मुश्किल समझा जाता है। लेकिन वर्ष 2018 से 2022 के बीच 1270 मेडिकल छात्रों ने पढ़ाई छोड़ दी। इसमें पीजी छात्रों की संख्या 1117 है। यह बेहद चिंताजनक आंकड़ा है। ऐसे छात्रों के सामने दुनिया छोड़ देने अथवा पढ़ाई छोड़ देने के बीच विकल्प चुनने की नौबत थी। जिस मुकाम तक पहुंचने के लिए लाखों युवक तरसते हैं, वहां पहुंचने के बाद जिंदगी और मौत का यह संकट पैदा होना अमृतकाल से गुजर रहे देश के लिए कतई चिंता का विषय नहीं दिखता।
डॉ. दिवेश गर्ग के पिता रमेशचंद्र गर्ग ने पुलिस को दिए आवेदन में एसजीआरआर मेडिकल कॉलेज प्रबंधन पर गंभीर आरोप लगाए हैं। कुछ प्रोफेसर्स द्वारा मानसिक प्रताड़ना के कारण आत्महत्या की बात लिखी है। डॉ. दिवेश को 104 डिग्री बुखार होने के बावजूद लगातार 36 घंटे काम कराया गया और सोने नहीं दिया गया। उसकी थिसिस को बार-बार रिजेक्ट किया गया। मरीजों तथा छात्रों के सामने गालियाँ देकर अपमानित किया गया।
देश में मेडिकल शिक्षा का नियंत्रण ‘नेशनल मेडिकल कमीशन‘ (एनएमसी) करता है। यह भी मेडिकल कॉलेजों में आत्महत्याओं से वाकिफ है। लिहाजा, मई 2024 में एनएमसी ने मेडिकल स्टूडेंट्स के मानसिक स्वास्थ्य पर एक ऑनलाइन सर्वेक्षण कराया। मात्र दस दिनों के भीतर 37667 स्टूडेंट्स और फैकल्टी सदस्यों ने इसमें भागीदारी करके स्थिति की भयावहता सामने ला दी है।
इस सर्वेक्षण के नतीजे अब तक नहीं आए हैं। लेकिन नाम उजागर नहीं करने की शर्त पर एक पीजी स्टूडेंट ने कहा कि यह सर्वेक्षण हमारी असल समस्याओं के बदले पारिवारिक वातावरण और अपने परिजनों से मिलने वाले सहयोग पर ज्यादा केंद्रित है। संभव है कि इसकी अनुशंसाओं में स्टूडेंट्स को योगा और मेडिटेशन करने तथा परिस्थितियों का सामना करने संबंधी उपदेश दिया जाएगा। घरवालों को कुछ टिप्स दिए जाएंगे। जबकि असल समस्या मेडिकल कॉलेजों का विषाक्त माहौल है। लगातार काम का दबाव, स्टाइपेंड के भुगतान में धांधली, तरह-तरह से पैसों की वसूली, सपोर्ट स्टाफ की कमी, प्रोफेसर्स की मनमानी जैसे विषयों पर सर्वेक्षण में गंभीरता नहीं देखने को मिली है।
यह बात किसी को अतिश्योक्ति लग सकती है। लेकिन यह एक भयावह सच है। मेडिकल स्टूडेंट्स को अस्पताल में लगातार 36 घंटे तक काम करने का दबाव बनाना, खाने-नहाने या सोने का अवसर नहीं देना, साप्ताहिक अवकाश भी नहीं देना एकदम सामान्य बात है।
खासकर पीजी स्टूडेंट्स को बेहद नारकीय स्थिति में रो-रोकर जीवन गुजारने की नौबत आती है। एक स्टूडेंट ने बताया कि ‘गायनो‘ विभाग में एक बार उसकी लगातार पांच दिन की ‘कमांडो ड्यूटी‘ लगी थी। इस दौरान उसे लगातार अस्पताल में ही रहकर वहीं रहना, वहीं खाना और वहीं सोना पड़ा।
एनएमसी ने पीजी मेडिकल एडुकेशन रेगुलेशन 2023 बनाया। स्टूडेंट्स को उम्मीद थी भारतीय श्रम कानूनों के अनुसार दैनिक आठ घंटे और साप्ताहिक 48 घंटे कार्यावधि का स्पष्ट नियम बनेगा। लेकिन एनएमसी की नियमावली बिल्कुल अस्पष्ट, मनमानी, शोषणपूर्ण और चौंकाने वाली थी। उसमें लिखा गया- “सभी पीजी स्टूडेंट पूर्णकालिक रेजिडेंट डॉक्टर के रूप में काम करेंगे। वे उचित कार्य घंटों के लिए काम करेंगे। उन्हें एक दिन में आराम के लिए उचित समय प्रदान किया जाएगा।“
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इसमें काम के अधिकतम घंटों का स्पष्ट निर्धारण नहीं होने के कारण कुछ कॉलेजों में स्टूडेंट्स से औसतन 70 से 90 घंटे तक साप्ताहिक कार्य कराने की शिकायतें मिलती हैं।
साप्ताहिक अवकाश का प्रावधान भी अजीब है- “कार्य की अत्यावश्यकता के अधीन एक साप्ताहिक अवकाश की अनुमति दी जाएगी।" इसमें साप्ताहिक अवकाश को स्टूडेंट्स का अधिकार नहीं बनाया गया है बल्कि प्रबंधन की मेहरबानी पर छोड़ दिया गया है।
एक पीजी स्टूडेंट ने गोपनीयता की शर्त पर कहा कि इंटरनेशनल लेबर कन्वेन्शन और भारत के श्रम कानूनों में दैनिक आठ घंटे और साप्ताहिक 48 घंटे का स्पष्ट प्रावधान है। मेडिकल स्टूडेंट्स के मामले में यह लागू क्यों नहीं होता। क्या सुप्रीम कोर्ट इसका स्वतः संज्ञान लेगा?
एक अन्य पीजी मेडिकल स्टूडेंट के अनुसार अत्यधिक काम के दबाव पर आधारित प्रशिक्षण का यह तरीका अमेरिका के एक डॉक्टर के प्रयोग पर आधारित है। मेडिकल शिक्षा में उनका महत्वपूर्ण योगदान था। डॉ. विलियम स्टीवर्ट हैलस्टेड भोजन और नींद के बगैर लगातार लंबे समय तक काम करते रहते थे। वह अपने साथ काम करने वाले प्रशिक्षु डॉक्टरों को भी अपनी तरह लगातार काम कराते थे। लेकिन उनकी मौत के बाद पता चला कि वह कोकीन और अफीम के आदी थे। इसके प्रभाव में वह लंबे समय तक काम करते थे। “क्या भारत के मेडिकल स्टूडेंट्स से भी उसी कोकीन के प्रभाव में काम करने की उम्मीद की जाती है?“ उस स्टूडेंट ने व्यंग्यपूर्वक पूछा।
अगर इस बात में सच्चाई हो तो यह भी जांच का विषय है कि हमारे मेडिकल स्टूडेंट्स को ऐसी विपरीत स्थितियों से निपटने के लिए किसी नशे की आदत लग रही है, अथवा नहीं।
रेडियोलॉजी की एक रेजिडेंट डॉक्टर ने कहा कि मेडिकल शिक्षा में दबाव और शोषण की परंपरा को ख़त्म करने के लिए सरकार को बड़े क़दम उठाने होंगे। ‘सास भी कभी बहू थी‘ वाला सिलसिला बंद करना होगा। जिन लोगों ने पहले ऐसे विषाक्त माहौल को झेला है, वे लोग खुद प्रोफेसर या विभागाध्यक्ष बनने के बाद छात्रों से वैसा ही सलूक करते हैं। जबकि उन्हें तो ज्यादा संवेदनशील होना चाहिए।
गायनो फाइनल इयर की एक स्टूडेंट ने कहा कि कई घंटों तक लगातार काम कराने का महिमामंडन नहीं होना चाहिए। यह गलत धारणा बनी हुई है कि इससे डॉक्टर्स में दबाव सहने की क्षमता बढ़ती है। उसने कहा कि अगर सही तरीके से सर्वेक्षण किया जाए तो पता चलेगा कि ज्यादा काम करने से हमारी क्षमता पर प्रतिकूल असर पड़ता है। इससे मरीजों के संबंध में हमारे गलत फैसलों की भी संभावना होती है। जिस डॉक्टर की नींद ही पूरी नहीं होगी, वह किसी मरीज के लिए काफी नुकसानदेह हो सकता है। कुछ अस्पतालों में बाथरूम और मेस वगैरह की हालत भी बेहद दयनीय होती है। वहां कोई इंसान कैसा जिंदा रहेगा?
एक अन्य पीजी स्टूडेंट ने कहा कि जनहित में लगातार काम करने की उम्मीद सिर्फ डॉक्टर्स से ही क्यों की जाती है? अदालतों में करोड़ों मुकदमे लंबित हैं? फिर भी गर्मी के दिनों में लंबा अवकाश होता है। लेकिन हमसे 36 घंटे लगातार काम की उम्मीद की जाती है।
एमएमसी की नियमावली 2023 ने कई मामलों में स्टूडेंट्स को निराश किया है। इसमें ‘स्टाइपेंड‘ भी प्रमुख विषय है। एमएमसी से इस पर स्पष्ट नियम की उम्मीद थी। लेकिन इसमें भी अस्पष्टता है। लिखा गया है कि स्टूडेंट्स राज्य/केंद्र सरकार के अस्पतालों में स्टूडेंट्स को मिलने वाले स्टाइपेंड के अनुरूप भुगतान किया जाएगा। लेकिन इसमें हर राज्य और केंद्र के नियमों में एकरूपता नहीं होने के कारण स्टूडेंट्स को कई प्रकार की परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। यहां तक कि कुछ कॉलेजों में स्टाइपेंड का भुगतान ही नहीं किया जाता। खानापूर्ति के लिए उन्हें कोई राशि देकर वापस ले लिया जाता है। इस बात से एनएमसी के उच्चाधिकारी अच्छी तरह वाकिफ होने के बावजूद कोई कदम नहीं उठा पाते।
ऐसे विषाक्त माहौल में कोई स्टूडेंट अपने सपनों की पीजी की पढ़ाई छोड़कर निकल भागने को व्याकुल हो उठता है। लेकिन ऐसा करने के बजाय आत्महत्या कर लेना उसे ज्यादा आसान लगता है। कारण है सीट छोड़ने के एवज में उसे भारी जुर्माने का भुगतान करना पड़ता है। ऐसी बॉन्ड पॉलिसी के कारण स्टूडेंट के लिए कोर्स छोड़ना भी मुश्किल होता है।
डॉ. दिवेश गर्ग की आत्महत्या के बाद आईएमए के जूनियर डॉक्टर्स नेटवर्क की उत्तराखंड इकाई ने एक मांगपत्र सौंपा है। इसमें काम के घंटे निर्धारित करने के साथ ही भोजन का समय निर्धारित करने की भी मांग की है। इस मांग से समझा जा सकता है कि सबके स्वास्थ्य का ध्यान रखने वाले डॉक्टर्स को खुद भोजन तक का वक्त नहीं मिलता। अन्य मांगों में अस्पताल परिसर के भीतर मेस की सुविधा, सरकारी कॉलेज के अनुरूप 71257 रुपये स्टाइपेंड, अनावश्यक जुर्मानों से मुक्ति दिलाना जैसी मांगें शामिल हैं।
एक छात्रा ने कहा- “हमारी जिंदगी तो खुद मजाक बन गई है। सभी मरीजों को हम न्यूनतम आठ घंटे की नींद, समय पर भोजन, चार लीटर पानी और स्वस्थ जीवन शैली अपनाने की सलाह देते हैं। लेकिन खुद हमें ही यह नसीब नहीं है।“
एनएमसी ने एक बार फिर सक्रियता दिखाई है। मेडिकल स्टूडेंट्स की भलाई के रास्ते तलाशने के लिए 27 मई को एक हाईब्रिड मिटिंग बुलाई गई है। इसमें संबंधित लोग भौतिक रूप से अथवा ऑनलाइन तरीके से जुड़ सकते हैं।
हालांकि देश की मेडिकल शिक्षा में कतिपय माफिया और बेहद प्रभावशाली लोगों का नियंत्रण होने तथा अरबों-खरबों का व्यवसाय होने के कारण फिलहाल स्टूडेंट्स को किसी ठोस कदम की उम्मीद नहीं दिखती।
पिछले दिनों राष्ट्रीय मानवााधिकार आयोग ने भी मेडिकल स्टूडेंट्स की समस्याओं पर गंभीरता के साथ बैठक के बाद संबंधित विभागों और अधिकारियों से ठोस बिंदुओं पर कदम उठाकर रिपोर्ट भेजने का निर्देश दिया था। इसमें राजस्थान सरकार से भी कुछ अपेक्षा की गई थी। लेकिन अब तक इसका कोई परिणाम सामने नहीं आया है।
पिछले साल तमिलनाडु के एक मेडिकल कॉलेज में एनेस्थिसिया की छात्रा सुगीर्था सेल्वाकुमार ने खुद को इंजेक्शन लगाकर आत्महत्या कर ली थी। नोट में उसने प्रतिदिन लगातार 20 घंटे काम और मानसिक दबाव की बात लिखी। भोपाल के एक मेडिकल कॉलेज में गत वर्ष डॉ. बाला सरस्वती की आत्महत्या भी चर्चा में रही। वह गर्भवती थीं, लिहाजा हमारे मेडिकल एडुकेशन सिस्टम ने दो जानें लीं। हालांकि 150वें डॉक्टर की गिनती में उस बच्चे की गिनती कभी नहीं होगी।
डॉ. दिवेश गर्ग की आत्महत्या के बाद देश भर के गमगीन मेडिकल स्टूडेंट्स ने सोशल मीडिया पर दुख बांटा। एक दिन बांह में काला फीता लगाया। दूसरी शाम कुछ कैंडल-वैंडल भी जलाए। यह कहते हुए- “क्या ही हो जाएगा, कोई हो तो सुने।“
अमृतकालीन चुनावी शोर में 150वें डॉक्टर की आत्महत्या भी अनसुनी रह गई दिखती है!
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