राष्ट्रपिता कहे जाने वाले महात्मा गाँधी के जीवित रहते हुए और उनकी एक कट्टरपंथी हिंदू के हाथों हत्या के बाद के 71 बरसों में बार-बार यह सवाल खड़ा किया गया है कि गाँधी के विचारों और उनके सिद्धांतों की प्रासंगिकता क्या है?

एक ऐसे समय में जब राजनीति का मक़सद किसी भी तरह से सत्ता हासिल करना रह गया हो और समाज में सब तरफ़ पैसे की ताक़त का बोलबाला हो, सामान्य लोग भी निजी और सार्वजनिक जीवन में मन वचन और कर्म से बहुत हिंसक हो चुके हों, राजनीति में सेवाभाव की अहमियत पर ज़ोर देने वाले गाँधीजी के पहलू के बारे में बात करना ज़्यादा ज़रूरी हो गया है।
गाँधी के जीवन काल में ही भारत की आज़ादी की लड़ाई के तमाम शीर्षस्थ नेता- नेहरू, पटेल, सुभाष, आम्बेडकर, मौलाना आज़ाद, जयप्रकाश नारायण- उनकी बहुत-सी बातों से तीखी असहमतियाँ रखते थे और उन्हें खुलेआम ज़ाहिर भी करते थे। गाँधी ने कभी किसी को भी अपनी आलोचना की वजह से खारिज नहीं किया। हर बड़े युगप्रवर्तक की तरह उन्हें भी इस बात का अहसास था कि उनको हमेशा प्रासंगिकता की कसौटी पर कसा जाएगा। इसलिए उन्होंने अपने जीते जी ही ख़ुद को किसी वाद का प्रवर्तक मानने से इनकार करते हुए कहा था कि उनका जीवन ही उनका संदेश है।
यह बहुत महत्वपूर्ण बात है। क्योंकि इसके आधार पर गाँधी की प्रासंगिकता तय करने के लिए हमें उनके समूचे जीवन की तरफ़ देखना होगा। देखना होगा उनके देहांत के बाद से भारत समेत पूरी दुनिया के राजनैतिक-सामाजिक हालात में आए बदलावों और चुनौतियों की तरफ़ और फिर उनसे निपटने का रास्ता तलाशने के लिए जब गाँधी के जीवन और उनके चिंतन की तरफ़ मुड़ेंगे तब हम पाएँगे कि पूरी दुनिया को वहीं से रोशनी लेनी पड़ेगी।