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ज्योति कुमारी: मज़दूरों की मज़बूरी पर सत्ता का टैलेंट हंट कार्यक्रम

ज्योति कुमारी पासवान के ही साथ कोई हादसा हो जाता तो फिर कह दिया जाता कि कोई इस तरह से सड़क पर निकल जाए तो उसे कैसे रोका जा सकता है? मालगाड़ी के नीचे कुचल गए सोलह मज़दूरों के बारे में यही तो कहा गया था न कि कोई रेल की पटरियों पर सोना चाहे तो उसे कैसे रोका जा सकता है?
श्रवण गर्ग

बिहार में दरभंगा क्षेत्र के एक छोटे से गाँव की पंद्रह-वर्षीय बहादुर बालिका ज्योति कुमारी पासवान के अप्रतिम साहस और उसकी व्यक्तिगत उपलब्धि को अब सत्ता प्रतिष्ठानों से जुड़े हुए लोग लॉकडाउन की देन बताकर उसे सम्मानित और पुरस्कृत करना चाह रहे हैं। एक बालिका के अपने बीमार पिता के प्रति प्रेम और लॉकडाउन के कारण उत्पन्न हुई पीड़ादायक परिस्थितियों से एकल लड़ाई की शर्मनाक त्रासदी को राष्ट्रीय उपलब्धि की गौरव गाथा के रूप में स्थापित करने का इससे अधिक पीड़ादायक उदाहरण कोई और नहीं हो सकता। 

पिता को पाँच सौ रुपए में ख़रीदी गई एक पुरानी साइकल पर पीछे बैठाकर हरियाणा के गुरुग्राम से दरभंगा के अपने गाँव तक बारह सौ किलोमीटर की यात्रा पूरी कर लेने के बाद ज्योति रातों-रात एक नायिका और प्रेरणा का स्रोत बन गई है। ज्योति के साहस की आड़ में उन लाखों-करोड़ों मज़दूरों की तकलीफ़ों और दर्द को छुपा देने की कोशिशें तलाश की जा सकती हैं जो अभी भी बीच रास्तों पर हैं। भारतीय खेल प्राधिकरण और भारतीय साइकिलिंग महासंघ को कहा जा रहा है कि वे ज्योति को ट्रायल का अवसर प्रदान करे। अमेरिकी राष्ट्रपति की बेटी इवांका ट्रम्प द्वारा की गई ज्योति की तारीफ़ को देश के पराक्रम की उपलब्धि के रूप में ग्रहण किया जा रहा है।

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ज्योति कुमारी ने जब आठ मई की रात तय किया होगा कि देश की नाक से सटे गुरुग्राम में मकान मालिक की किराया चुकाने की धमकी सहते हुए भूखे मर जाने के बजाय पिता को साइकिल पर बैठाकर निकल पड़ना ही ज़्यादा ठीक होगा तब इस बालिका की ज़िंदगी वर्तमान से अलग थी। ज्योति भी उन लाखों-करोड़ों मज़दूरों और उनके बच्चों में ही एक थी जो आधुनिक भारत के मानवों द्वारा निर्मित पलायन की पीड़ा भोग रहे हैं, सड़कों पर कुचले जा रहे हैं, मालगाड़ी के नीचे कट रहे हैं। ज्योति की उपलब्धि यह है कि वह हर तरह के भय के बावजूद सुरक्षित घर पहुँच गई। देश को अभी पता चलना शेष है कि यह जो रैला इस समय भूख, अपमान और लाठियाँ झेल रहा है उसमें कितनी प्रतिभाएँ बीच रास्तों में ही कुंद हो चुकी हैं।

यह एक अद्भुत प्रयोग है कि ग़रीबी, अभाव और तिरस्कार के जंगलों में इस तरह से प्रतिभाओं की तलाश को अंजाम दिया जा रहा है। बारह सौ किलोमीटर की आठ दिनों की यात्रा के दौरान ऐसी कोई भी एजेन्सी सड़क पर प्रकट नहीं हुई जो ज्योति के जज़्बे को सलाम करते हुए उसे और उसके बीमार पिता को दरभंगा तक पहुँचा देती। सोशल मीडिया पर ज्योति के वीडियो भी चलते रहे और उसकी साइकिलिंग भी जारी रही। रास्ते में कुछ भले लोग मिलते रहे और भूख-प्यास मिटती रही। 

व्यवस्थाएँ दूसरों की उपलब्धियों को पुरस्कृत कर ख़ुद का सम्मान करने की कोशिशों में अपनी ही ज़िम्मदारियों में बरती जाने वाली कोताही के लिए न तो शर्मिंदा होना चाहती हैं और न ही क्षमा माँगना चाहती हैं।

फिर यह भी तो है कि ऐसा होने लगे तो कितने लोगों से क्षमा माँगी जाए? कोई एक ज्योति कुमारी तो है नहीं। ऐसी कहानियाँ तो हज़ारों-लाखों में हैं। ज्योति के ही साथ कोई हादसा हो जाता तो फिर कह दिया जाता कि कोई इस तरह से सड़क पर निकल जाए तो उसे कैसे रोका जा सकता है? मालगाड़ी के नीचे कुचल गए सोलह मज़दूरों के बारे में यही तो कहा गया था न कि कोई रेल की पटरियों पर सोना चाहे तो उसे कैसे रोका जा सकता है?

सही पूछा जाए तो ज्योति कुमारी के साहस के प्रति सम्मान को सत्ता प्रतिष्ठानों की इस ईर्ष्या के रूप में भी लिया जा सकता है कि हमारी कृपा के बिना ही तुमने ऐसा कैसे कर लिया! यह दृष्टिकोण वैसा ही तो है कि हमारी अनुमति के बिना तुम लॉकडाउन कैसे तोड़ सकते हो?

पैदल कैसे निकल सकते हो? बिना आज्ञा के हमारे राज्य की सीमा में कैसे प्रवेश कर सकते हो? हमारी मंज़ूरी के बिना भूखे-प्यासे कैसे रह सकते हो? हम चाहें तो इसे सत्ता प्रतिष्ठानों के इस डर के रूप में भी ले सकते हैं कि इस छोटी सी बालिका की सफलता को कहीं लाखों की संख्या में नाराज़ मज़दूरों की भीड़ व्यवस्था के ख़िलाफ़ अपनी लड़ाई और संकल्प का प्रतीक नहीं बना ले।

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राजनीति की फ़िल्मों में ऐसे कथानकों की कमी नहीं है जिनमें अभावों और शोषण के ख़िलाफ़ संघर्ष करने वाले नायक-नायिकाओं को व्यवस्था के दलाल अपने पालों में डाल लेते हैं। ज्योति कुमारी ने चाहे अपने आगे के भविष्य को लेकर अभी कुछ भी तय नहीं किया हो कि वह गाँव में ही रहकर पढ़ना चाहती है या साइकिलिंग महासंघ की पेशकश को स्वीकारना चाहती है पर वे तमाम लोग जो अलग-अलग जगहों पर बैठे हुए हैं, उसके बारे में अपने तरीक़ों से सोच में जुटे हुए हैं। इन लोगों के सोच में अभी भी वे लाखों मज़दूर शामिल नहीं हैं जिनके साथ पैदल चलते हुए ज्योति कुमारी जैसी और भी कई प्रतिभाएँ यात्रा की पीड़ाएँ झेल रही होंगी।

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