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क्या भारत में कोरोना के आँकड़ों की तुलना पश्चिमी देशों से हो सकती है?

भारत जहाँ अब प्रति दस लाख की आबादी पर क़रीब 126 टेस्ट के स्तर तक पहुँचा है, वहीं विकसित देश क़रीब 10 हज़ार टेस्ट कर रहे हैं। उनका मक़सद संक्रमितों को ढूँढना है लेकिन हमारा मक़सद पॉजिटिव और नेगेटिव का पता लगाना है। यही है, टेस्टिंग के अलग-अलग पैमानों की महिमा! ज़ाहिर है कि यदि पैमाने अलग-अलग हैं तो फिर आँकड़ों की तुलना कैसे हो सकती है?
मुकेश कुमार सिंह

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने यह दावा देश के सामने पेश किया है कि भारत में कोरोना संक्रमण के फैलने की दर दुनिया के तमाम विकसित देशों से बेहतर और संतोषजनक है। काश! यह वाक़ई सच होता कि 1 अप्रैल के बाद से देश में कोरोना के संक्रमितों की ‘वास्तविक’ संख्या में 40 फ़ीसदी की कमी आयी है और राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन की सफलता की वजह से देश में संक्रमितों की संख्या के दोगुना होने की अवधि 3 दिन से बढ़कर 6.2 दिन हो गयी है! और, भारत के 19 राज्यों तथा केन्द्र शासित प्रदेशों में लॉकडाउन और अन्य उपायों ने उत्साहजनक नतीज़े दिये हैं। दिलचस्प बात यह भी है कि 17 अप्रैल का यह दावा किसी सियासी हस्ती की ओर से नहीं, बल्कि भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR) की ओर से किया गया है, ताकि यदि आगे चलकर ऊँट दूसरी करवट बैठ जाए तो राजनेताओं की छीछालेदर नहीं हो।

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आइए ICMR के दावे की जाँच करते हैं। इसका नियम भी बहुत आसान है कि ‘Compare the comparable’ यानी, ‘तुलना का आधार समान होना चाहिए’। विज्ञान ने हमें सिखाया है कि दो आँकड़ों के बीच छोटे-बड़े का अंतर तय करने के लिए उनकी इकाई (यूनिट) का एक होना ज़रूरी है। इसीलिए हमें रुपये की तुलना डॉलर से करने से पहले एक्सचेंज रेट का हिसाब रखना पड़ता है। किलोमीटर और मील, दोनों दूरियाँ हैं लेकिन दोनों के आँकड़ों की तुलना उन्हें किसी एक यूनिट में बदलकर ही की जाती है। सेल्सियस और फॅरनहाइट, दोनों तापमान की इकाई हैं, लेकिन दोनों की तुलना करने से पहले हमें संख्या को किसी एक इकाई में बदलना पड़ता है।

आइए, अब इन्हीं सामान्य नियमों के आधार पर ICMR के आँकड़ों को परखें। ICMR का कहना है कि केरल, उत्तराखंड, हरियाणा, लद्दाख, चंडीगढ़, पुडुचेरी, बिहार, ओडिशा, तेलंगाना, तमिलनाडु, आँध्र प्रदेश, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, जम्मू-कश्मीर, पंजाब, असम और त्रिपुरा में कोरोना संक्रमितों की संख्या के दोगुना होने की दर राष्ट्रीय औसत से बेहतर है। 15 मार्च से 31 मार्च के दौरान इन प्रदेशों में नये संक्रमितों के पाये जाने का ग्रोथ फ़ैक्टर 2.1 था, जो 1 अप्रैल से 15 अप्रैल के दो हफ़्तों में गिरकर 1.2 हो गया है। यानी, 40 फ़ीसदी का सुधार। ग्रोथ फ़ैक्टर का मतलब है– हरेक पुराने संक्रमित से नये व्यक्ति के संक्रमित होने की रफ़्तार।

अब सवाल यह है कि यदि भारत में टेस्ट ही बेहद कम होंगे तो सही तसवीर कैसे सामने आएगी? लेकिन ICMR यहाँ सवाल को घुमा देता है और बताता है कि भारत में अब तक 130 करोड़ की आबादी में से महज 3,18,449 लोगों की ही टेस्टिंग हुई है, लेकिन हमें तो अभी तक देश में सिर्फ़ 14,098 पॉज़िटिव केस मिले हैं।

दूसरे शब्दों में, भारत में 24 लोगों की टेस्टिंग करने पर एक पॉज़िटिव मिला है, जबकि जापान में हरेक 11.7 व्यक्ति में एक पॉज़िटिव मिला है। इसी तरह, इटली में 6.7 लोगों की जाँच के बाद एक पॉज़िटिव मिला है तो अमेरिका में यही अनुपात 5.3 व्यक्ति का है और ब्रिटेन में 3.4 व्यक्ति का।

ये आँकड़े तभी तक प्रभावशाली लगेंगे, जब तक कि आप इस तथ्य पर ग़ौर नहीं करेंगे कि इन विकसित देशों और भारत की जाँच के पैमाने में क्या फ़र्क़ है? भारत में अभी सिर्फ़ उन लोगों की कोरोना जाँच की जा रही है, जिन्होंने बीते महीने-डेढ़ महीने में विदेश यात्रा की है और जिनमें खाँसी, बुखार, कफ या साँस लेने में तकलीफ़ की शिकायत उभरी है, या जिन्होंने 14 दिन का क्वरंटीन (एकान्तवास) पूरा किया है या फिर जो अन्य लोग इनके सम्पर्क में आये हैं और जिनके बारे में ये तय करना ज़रूरी है कि कहीं वो संक्रमित नहीं हो चुके हैं। इनके अलावा भारत अभी तक सिर्फ़ उन चिकित्साकर्मियों की जाँच कर रहा है जो संक्रमित लोगों के इलाज़ से जुड़े हुए हैं।

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जबकि ज़्यादा टेस्टिंग करने वाले देशों की असली चिन्ता उन लोगों की पहचान करने की है जो संक्रमित तो हैं, लेकिन जिनमें कोरोना के लक्षण अभी नहीं उभरे हैं। इन्हें asymptomatic कहते हैं और यही लोग न चाहते हुए भी कोरोना को फैलाने का ज़रिया बनते हैं। चीन और सिंगापुर में व्यापक पैमाने पर हुई टेस्टिंग से पता चला है कि ऐसे लक्षण-रहित लोगों की संख्या 48 से लेकर 62 प्रतिशत तक है। भारत में टेस्टिंग कम हो रही है, इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि हमारे पास इसकी क्षमता ही बेहद मामूली है। फिर चाहे बात टेस्टिंग लैब की संख्या की हो या टेस्टिंग किट की उपलब्धता की। यही वजह है कि हम यह कहते हैं कि भारत के 10,000 संक्रमितों का पता लगाने के लिए जहाँ 2.17 लाख टेस्ट करने पड़े वहीं अमेरिका को इतने ही संक्रमितों का पता लगाने में 1.39 लाख और ब्रिटेन को 1.13 लाख टेस्ट करने पड़े। इटली के लिए ये आँकड़ा क़रीब 73 हज़ार लोगों का रहा तो कनाडा के लिए 2.95 लाख लोगों का।

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यहीं पर आँकड़ों की बाज़ीगरी शुरू हो जाती है। ICMR की ओर से इन आँकड़ों को सुलभ करवाते वक़्त जानबूझकर इस तथ्य को कमतर करके (यानी डाउन प्ले) पेश किया जाता है कि भारत का पूरा ज़ोर सिर्फ़ उन संक्रमितों की जाँच पर रहा है जिनमें लक्षण उभरे हैं, जबकि उन देशों का ज़ोर ऐसे संक्रमितों का भी पता लगाने पर है, जिनमें अभी तक लक्षण उभरे नहीं हैं। भारत जहाँ अब प्रति दस लाख की आबादी पर क़रीब 126 टेस्ट के स्तर तक पहुँचा है, वहीं विकसित देश क़रीब 10 हज़ार टेस्ट कर रहे हैं। उनका मक़सद संक्रमितों को ढूँढना है लेकिन हमारा मक़सद पॉजिटिव और नेगेटिव का पता लगाना है। यही है, टेस्टिंग के अलग-अलग पैमानों की महिमा! ज़ाहिर है कि यदि पैमाने अलग-अलग हैं तो फिर आँकड़ों की तुलना कैसे हो सकती है?

भारत सरकार इस तकनीकी पक्ष से पूरी तरह वाक़िफ़ है।

तमाम आँकड़ों को मीडिया को देने के बाद ICMR की ओर से एक तरफ़ तो कहा जाता है कि 130 करोड़ लोगों की विशाल आबादी वाले देश की तुलना विकसित देशों से नहीं की जा सकती, लेकिन हमारे यहाँ फलाँ-फलाँ आँकड़े बेहतर हैं।

अरे! जब हमारी और उनकी तुलना नहीं हो सकती तो हमारे आँकड़े बेहतर कैसे हो गये? दूसरी तरफ, हमें आने वाले दिनों में ख़तरा साफ़ दिख रहा है, तभी तो हम ये भी बताते हैं कि हम लगातार टेस्टिंग की रफ़्तार बढ़ा रहे हैं, लाखों नयी टेस्टिंग का आयात कर रहे हैं, रोज़ाना टेस्टिंग सेंटर्स की संख्या बढ़ा रहे हैं, नयी और तेज़ टेस्टिंग तकनीकें ढूँढ रहे हैं, कोरोना से लड़ने के लिए अस्पताल बना रहे हैं, वहाँ मरीज़ों के बिस्तरों की संख्या बढ़ा रहे हैं और ज़्यादा मास्क, सुरक्षा उपकरणों (PPE) तथा वेंटिलेटर्स का इन्तज़ाम करने में जुटे हुए हैं।

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