“हम, स्वयं की शक्ति के दुरूपयोग की वज़ह से पारिस्थितिक पतन  के कगार पर खड़े हैं” (युवाल नोआ हरारी, नेक्सस, पृ. X|)  

संयोग से आपातकाल की अर्द्धसदी के साल में मैं डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिका में हूँ। संयोग है कि इसी समय अचानक ईरान-इसराइल जंग भी शुरू हो गई है। दोनों देशों ने एक-दूसरे पर तड़ातड़ बमों की बरसात शुरू कर दी। जन्म से भड़ैती देश इसराइल ने ईरान के साथ जंग का अध्याय खोला। लेख के लिखे जाने तक दोनों देशों ने परस्पर तबाह करने के दावे किये हैं। लेकिन, तेहरान के हाथों तेल अवीव ने अप्रत्याशित रूप से मार खाई है। इसराइल के आका डोनाल्ड ट्रम्प भी भौंचक्के रह गए हैं। अब युद्ध विराम की जुगत में हैं। संयोग से इससे पहले पिछले महीने वे भारत-पाक के बीच संघर्ष विराम कराने का दावा भी कर चुके हैं। दोनों घटनाएं सप्ताह भर में निपट भी गईं। इसमें भी ट्रम्प और मोदी की भूमिकाओं की फ़ज़ीहत हुई। 

नेपथ्य में संघर्ष विराम के असली दावेदार कौन हैं, यह तो भविष्य में ही पता चलेगा। फ़ौरी तौर पर ट्रंप ने श्रेय को झपटने की कोशिश की, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी टापते ही रह गए। इस संवेदनशील मुद्दे पर उनके राष्ट्रीय सम्बोधन में क़यास ही छाया हुआ था, स्पष्टता नहीं थी। नतीज़तन, मीडिया में आलोचकों के शिकार भी हुए क्योंकि ट्रम्प ने  संघर्ष विराम की घोषणा पहले की थी। क़ायदे से, इसकी घोषणा एक साथ नई दिल्ली और इस्लामाबाद से होनी चाहिए थी। यदि दोनों देशों के प्रधानमंत्री करते तो विवाद पैदा नहीं होता और नेतृत्व आत्मनिर्भर व स्वतंत्र दिखाई देते। ट्रम्प ने अपनी घोषणा में धमकी भी दे डाली कि यदि संघर्ष विराम नहीं होता है तो भारत व पाकिस्तान के साथ अमेरिका व्यापार नहीं करेगा। ट्रम्प- उवाच से सन्देश यही गया कि दोनों देश ‘यांकी सुलतान’ के सामने नतमस्तक हो गए। आम कहावत में कहें तो ‘अमेरिका बंदर निकला, शेष दोनों देश बिल्लियाँ।’ 
ताज़ा ख़बरें

निक्सन की धमकी के सामने इंदिरा नहीं झुकीं

इसी स्थल पर पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के शब्द उमड़ने लगे। उन्होंने 1971 के भारत-पाक जंग में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन की धमकी के सामने झुकने से इंकार कर दिया था। उन्होंने कहा था, ‘आप सातवां बेड़ा भेजें या 70वां, भारत पीछे नहीं हटेगा।’ ज़ाहिर है, मोदी सवालों के कटघरे में हैं क्यों उनकी एकमात्र महत्वाकांक्षा है कि उनका क़द नेहरू और इंदिरा गांधी से ऊँचा हो जाए। ताज़ा संघर्ष में उनका यह ख़्वाब बिखरा बिखरा लग रहा है। अमेरिका में  प्रवासी भारतियों की दृष्टि में ‘ऑपरेशन सिंदूर’ धुंधला पड़ता जा रहा है। 

अधिकांश मोदी -समर्थकों को उम्मीद थी कि भारतीय सेनाएं ‘नियंत्रण सीमा ‘ लांघ कर पाक अधिकृत कश्मीर के कुछ भाग पर अवश्य ही अपना अधिकार जमा लेंगीं।   लेकिन, ऑपरेशन सिन्दूर के मामले में ‘मोदी है तो मुमकिन है’ कोरा जुमला निकला है। ज़ाहिर है, मोदी- छवि प्रभावित दिखाई दे रही है। अब पुराने जलवे-जोश ग़ायब हैं। प्रधानमंत्री मोदी के प्रति राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के रुख से भी प्रवासी सहमे-सहमे व निराश हैं; ‘अबकी बार ट्रम्प सरकार’ की गूंज कंठ में अटकी लग रही है। अवैध आप्रवासियों को लेकर 11 राज्यों के कई शहरों में हिंसा के मंज़र भी दिखाई दे रहे हैं। कैलोफोर्निया का लॉस एंजेल्स सबसे अधिक प्रभावित है। 

अमेरिका में केंद्र-राज्य आमने-सामने

ट्रम्प के केंद्रीय सरकार और राज्य के डेमोक्रेटिक सरकार आमने-सामने मोर्चाबंद खड़ी हैं। संघीय अदालत ने राष्ट्रपति ट्रम्प को करारा झटका देते हुए राज्य सरकार की अनुमति के बिना शहर में अर्द्ध सैन्य बल नेशनल गार्ड की तैनाती पर रोक लगा दी  है। इतना निश्चित है, राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के मौज़ूदा कारनामों से  ‘अमेरिका को फिर महान’ नहीं बनने देना ‘सुनिश्चित’ हो गया है! आज दुनिया में चरम दक्षिणपंथ के सूत्रधार के रूप में डोनाल्ड ट्रम्प, नेतन्याहू और मोदी की तिकड़ी उभरती दिखाई दे रही है।  इस तिकड़ी  की एकमात्र महत्वाकांक्षा है:  घोषित या अघोषित आपातकाल के माध्यम से व्यक्ति केंद्रित राजसत्ता पर आधिपत्य!

‘ट्रम्प- अमेरिका’ सम्बोधन का प्रयोग काफी सोच-विचार के बाद किया जा रहा है। कारण साफ़ है, ट्रम्प-शासन की दूसरी पारी में अमेरिका की पारम्परिक पहचान से इतर  दूसरी विशिष्ट पहचान बनने लगी है; अमेरिका अपने आंतरिक शासन व्यवस्था में वाशिंगटन -नेतृत्व लोकतांत्रिक माना जाता रहा है; अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता रहती रही है; सत्ता और समाज के बीच जीवंत संवाद रहता रहा है; राष्ट्रपति स्थिर व परिपक्व व्यवहार और सुसंस्कृत कूटनीतिक भाषा के धनी के रूप में विख्यात रहे हैं। अलबत्ता, अमेरिका का अंतरराष्ट्रीय चेहरा व व्यवहार यथावत ही है। वर्तमान राष्ट्रपति ट्रंप ने अमेरिका की  सर्वसत्तावादी व नवसाम्राज्यवादी पहचान में आधारभूत परिवर्तन नहीं किया है।
विचार से और

ट्रंप ने युद्धविराम का श्रेय लूट लिया

ट्रम्प ने भारत-पाक के मध्य चली हवाई जंग को रुकवाने का श्रेय भी लूट लिया है। राष्ट्रपति ने वाशिंगटन से स्वयं सोशल मीडिया पर इसकी घोषणा करके दिल्ली और इस्लामाबाद के नेतृत्वों की पर-आश्रिता को भी उजागर कर दिया।  विश्व मंच पर ट्रम्प ‘उपहास के पात्र’ बन गए क्योंकि रूस -यूक्रेन जंग भी जारी है। ईरान-इसराइल जंग भी। ट्रम्प ने पहले घोषणा की थी कि वे राष्ट्रपति बनते ही जंग रुकवा देंगे। अब भारत -पाक जंग में भी उनके शेखियाना बयानों की खिल्ली ही उड़ रही है। इधर मोदी-नेतृत्व भी गच्चा खा गया; गोदी मीडिया की बदौलत पाकिस्तान में सेना फिर से सत्ता सिंहासन पर जा बैठी है। औपचारिक घोषणा शेष है। यह बात अलग है कि ट्रम्प अपने विराट शक्तिशाली विरासत का फूहड़पन के साथ प्रदर्शन ज़रूर करते आ रहे हैं, और साथ ही व्हाइट हाउस (राष्ट्रपति शक्ति आवास)  के अधिकारों का इस्तेमाल खिलंदड़ी शैली में करते हैं। ज़ाहिर है, इस चंचल व्यवहार का अमेरिका की जनता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा ही। सामाजिक परिवेश में घुटन तो घुली हुई है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है। मेरी 1985 से लेकर 2025 तक उत्तरी अमेरिका की कई  यात्रायें हुई हैं। मैं अपने निजी अवलोकन और अनुभव के आधार पर ‘ट्रम्प अमेरिका’ की विसंगतीपूर्ण पहचान के निष्कर्ष पर पहुँचा हूं। इस पर आगे चर्चा होगी।

वर्तमान प्रवास के दौरान ट्रम्प-अमेरिका में भारत के घोषित आपातकाल की  याद आना स्वाभाविक है।

आपातकाल की घोषणाएँ क्यों?

आमतौर से आपातकाल की घोषणाएँ शिखर नेतृत्व अपने अस्तित्व-रक्षा या सत्ता रक्षा के लिए करते रहते हैं। जब उनके नेतृत्व के लिए विपक्ष, जनता और सेना की चुनौतियाँ पैदा हो जाती हैं, तब सत्ता में बने रहने के लिए देश का शिखर राजनैतिक नेतृत्व (राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, सेना अध्यक्ष आदि) आपातकाल के प्रावधान को लागू करते हैं। और यह सब देश की एकता, अखंडता और सुरक्षा के नाम पर किया जाता है। शिखर नेता अपने निजी संकट को ‘राष्ट्र- संकट’  में रूपांतरित कर देता है। वह जनता में प्रसारित करता है कि राष्ट्र का अस्तित्व, अतीत का गौरव, भविष्य का स्वप्न, संक्षेप में, देश-राष्ट्र का समुच्य संकटग्रस्त है। बाह्य आक्रमण का ख़तरा पैदा हो गया है, गुप्तचर व घुसपैठिए सरकार को अस्थिर करने पर आमादा हैं, गृह युद्ध फूट सकता है, विपक्ष विघटनवादी तत्वों के साथ मिलकर अराजकता पैदा करना चाहता है आदि-इत्यादि बिंदुओं के आधार पर  रणनीति बना कर नित-नए नैरेटिवों के माध्यम से जनता के मानस  को अनुकूलित किया जाता है। प्रोपेगेंडा के माध्यम से शिखर नेतृत्व स्वयं को राष्ट्र का पर्याय बना डालता है। वह स्वयं को विकल्पमुक्त और अपरिहार्य नेतृत्व के रूप में चित्रित करता है।
सर्वाधिक पढ़ी गयी ख़बरें

तानाशाही प्रवृत्ति

इतिहास बतलाता है कि आपातकाल, अधिनायकवादी नेतृत्व, निर्वाचित एकतंत्र और सैन्य शासन के लिए पिछड़ी व परम्परागत व्यवस्थाएँ उपजाऊ भूमि रहती रही हैं; अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका और एशियाई देशों में ऐसी उपजाऊ भूमि प्रचुरता के साथ उपलब्ध रहती रही हैं। वज़ह साफ़ है, ऐसी व्यवस्थाओं में भ्रम व यथार्थ और सत्य व असत्य को सुगमता के साथ परस्पर रूपांतरित किया जा सकता है। जन -मानस की मुख्यधारा व्यक्तिपूजा या पर्सनालिटी कल्ट बन जाता है। कृत्रिम राष्ट्र नायक में जनता अपने दुःखों का  त्राण देखने लगती है। मसीहवाद की संस्कृति लहलहाने लगती है। ऐसी संस्कृति का लेप मलकर निर्वाचित नेतृत्व जनता व मतदाताओं को सम्मोहित करता है और स्वयं को सुपरमैन या नॉन -बायोलॉजिकल घोषित कर डालता है। राज्य का तंत्र उसकी कठपूतली बन जाता है। विश्व में इस व्यवस्था के संस्करण एक नहीं, अनेक रहे हैं। 

समाज की विकसित अवस्था और देश की भू -राजनैतिक स्थिति के आधार पर आपातकाल व तानाशाही के संस्करण जन्म लेते हैं। तानाशाह अपनी तानाशाही को जमाये रखने के लिए विभिन्न प्रकार के शत्रुओं को गढ़ कर उन्हें सत्ता प्रतिष्ठान के मंचों से घोषित करता है। जनता पागल हो उठती है। वह भी उनपर टूट पड़ती है। (1935 में जर्मनी में हिटलर और इटली में मुसोलिनी के साथ यही हुआ था। मोदी -शासन काल में भी इसकी परछाइयों को भीड़- हिंसा, लव जिहाद, गऊ उन्मादी रक्षक, मंदिर- मस्जिद जंग आदि में देखा जा सकता है।) इस सिंड्रोम का सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता। इसमें विभिन्नताएँ अंतर्निहित हैं। क्या भारत के साथ चिली व उगांडा या पाकिस्तान या उत्तरी कोरिया की स्थितियों की तुलना  की जा सकती है? बिल्कुल  भी नहीं। फिर भी, सामान्यतः मुखर आपातकाल व अधिनायकवादी प्रवृत्तियों को चिन्हित किया जा सकता है।

भारत में 50 साल पहले कैसे हालात?

भारत में पचास साल पहले इंदिरा गाँधी के शासन काल में भी कुछ ऐसी ही परिस्थितियाँ और प्रवृत्तियाँ पैदा हो गयी थीं। लेकिन, यह जानना भी ज़रूरी है कि भारत में लोकतंत्र की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि रही है। यद्यपि, आधुनिक लोकतंत्र अर्द्धविकसित ही था। संक्षेप में, लोकतंत्र प्रणाली ‘वोट तंत्र’ तक ही सीमित रही। लोक धमनियों में लोकतंत्र रचा-बसा नहीं था। लोक-उपचेतना में सामंती संस्कारों का प्रवाह रहता था। राजसत्ता या सरकार ‘माई-बाप’ की शक़्ल में मौज़ूद थी। अतीत और आधुनिकता का विचित्र परिवेश था। फिर भी, 1947 में संग संग जन्मे दो राष्ट्रों (पाकिस्तान व भारत) की सामाजिक व राजनैतिक व्यवस्थाओं में हमेशा भिन्नता रही है। दोनों को द्विवाधारी (बाइनरी) नहीं कहा जा सकता; पाकिस्तान में हमेशा से सेना का वर्चस्व रहा है, जबकि, भारत में निर्वाचित राजनैतिक नेतृत्व के अधीन सैन्य तंत्र रहता रहा है। और भी अनेक विभिन्नताएँ हैं, जोकि सर्व विदित हैं।