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सिर्फ़ चुनावी ढोंग है न्यायपालिका में आरक्षण की बात

ख़बर है कि क़ानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) द्वारा अखिल भारतीय न्यायपालिका सेवा के अंतर्गत एक प्रवेश परीक्षा आयोजित कराने और उसमें अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जन जातियों (एससी/एसटी) के लिए आरक्षण प्रदान करने की बात कही है। उन्होंने कहा है कि इससे वंचित वर्गों से प्रशिक्षित न्यायिक अधिकारियों को तैयार करने में मदद करेगी और न्यायपालिका के प्रतिनिधित्व मामले में सुधार आएगा। 

खाद्य और उपभोक्ता मामलों के मंत्री रामविलास पासवान ने इस क़दम का स्वागत किया है और कहा है कि इससे काफ़ी समय से लंबित उनकी माँग पूरी होगी। वाह पासवान जी, चार साल तक सत्ता की मलाई खाने के बाद अब याद आया कि यह माँग वर्षों से लंबित थी। अगर वर्षों से लंबित थी, तो इसके लिए सरकार पर दबाव क्यों नहीं बनाया, जैसे अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए बनाते हो? सौदेबाजी के सिवा कुछ सीखा है पासवान ने, वह भी जनता के हित में नहीं, अपने हित में।

क़ानून मंत्री ने सही कहा है कि न्यायपालिका में प्रतिनिधित्व अनुपात सही नहीं है। जिस देश में मनुष्य की पहचान जातियों से होती है, और शासन-प्रशासन में ब्राह्मणों का वर्चस्व है, वहाँ विविधता को स्थापित करना जरूरी है, वरना साम्प्रदायिक असुंतलन लोकतंत्र के लिए ख़तरा बन सकता है। आज स्थिति यह है कि भारत की न्यायपालिका में ब्राह्मण जजों की संख्या सर्वाधिक और दलित वर्गों की संख्या नगण्य है। 

क़ानून मंत्री कह रहे हैं कि न्यायपालिका में आरक्षण का प्रावधान किया जाएगा। यह काम उन्होंने जब सत्ता में आए थे, तब क्यों नहीं किया? अब वह कैसे कर सकते हैं, जब उनकी सरकार के कुछ ही महीने बचे हैं?

यह घातक असुंतलन है, जिसका प्रभाव कतिपय जजों के फ़ैसलों में भी साफ़-साफ़ देखा गया है। अनेक जजों के फ़ैसले जातीय और वर्णीय पक्षपात से आए हैं। ऐसी स्थिति में वर्गीय विविधता बहुत आवश्यक है। 1933 में डॉ. आंबेडकर ने बम्बई विधान परिषद में खुलकर न्यायपालिका को ‘ब्राह्मण न्यायपालिका’ कहा था। तब पूरे सदन ने उनकी टिप्पणी की निंदा की थी। पर उन परिस्थितियों पर किसी ने चर्चा नहीं की थी, जो न्यायपालिका को एक ब्राह्मण न्यायपालिका बनाती थीं। आज भी दलित वर्गों से सम्बन्धित मामलों में अधिकांश जजों के ब्राह्मणवादी पूर्वाग्रह उनके निर्णयों में स्पष्ट झलकते हैं, जिसे देखते हुए अनेक दलित बुद्धिजीवियों ने उसे ब्राह्मण न्यायपालिका कहा भी है। 

आसान नहीं है आरक्षण देना 

इसलिए इसमें संदेह नहीं कि न्यायपालिका में आरक्षण होना चाहिए, जिसकी माँग काफ़ी सालों से की भी जा रही है। परन्तु सरकार ने कभी भी इस माँग को गंभीरता से नहीं लिया। अब क़ानून मंत्री रवि शंकर प्रसाद कह रहे हैं कि अखिल भारतीय न्यायिक सेवा में आरक्षण का प्राविधान किया जाएगा। यह काम उन्होंने चार साल पहले, जब सत्ता में आए थे, तब क्यों नहीं किया? अब वह कैसे कर सकते हैं, जब उनकी सरकार के कुछ ही महीने शेष रह गए हैं? इन 4-5 महीनों में वे इस काम को कैसे अंजाम दे सकते हैं? जाहिर है कि वह चुनाव-पूर्व वादे के रूप में जनता को बेवकूफ़ बनाने का काम कर रहे हैं। क्योंकि यह काम इतना आसान नहीं है, कि उन्होंने कह दिया और हो गया। 

इस मुद्दे पर जब पूर्व पुलिस महानिदेशक और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता एस. आर. दारापुरी से बात हुई, तो उन्होंने बड़ी रोचक बात बताई। उन्होंने कहा कि ऐसी कोई अखिल भारतीय न्यायिक सेवा ही नहीं है, तब कैसे आरक्षण का प्रावधान किया जाएगा? भारत में जिस तरह अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा है, अखिल भारतीय पुलिस सेवा है, अखिल भारतीय विदेश सेवा है, अखिल भारतीय डाक सेवा है, अखिल भारतीय राजस्व सेवा है, उस तरह से अखिल भारतीय न्यायिक सेवा का कोई अस्तित्व नहीं है।

रविशंकर प्रसाद का मक़सद दलित वर्गों को लुभाकर भाजपा के पक्ष में उनके वोटों का ध्रुवीकरण करना है और लोकसभा चुनाव में वोट लेकर सबकुछ भूल जाना है।

संविधान में करना होगा संशोधन

इसलिए संघ लोक सेवा आयोग से अखिल भारतीय न्यायिक सेवा में प्रवेश परीक्षा कराने के लिए पहले अखिल भारतीय न्यायिक सेवा का गठन करना होगा। यह गठन संविधान के द्वारा ही हो सकता है, जिसके लिए संविधान में संशोधन करना होगा। संविधान-संशोधन का काम संसद का है। इसके लिए संसद में सरकार या किसी सांसद के द्वारा बिल प्रस्तुत करना होगा। फिर उसे संसद के दोनों सदनों से पास कराना होगा। तब संविधान में संशोधन पारित होगा और उसके बाद ही उसके द्वारा अखिल भारतीय न्यायिक सेवा का गठन संभव है। 

रविशंकर प्रसाद किस आधार पर अखिल भारतीय न्यायिक सेवा में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण लागू करवाएँगे? जिस सरकार के कुछ ही महीने बचे हों, उस अवधि में यह कार्य किसी भी तरह से संभव नहीं है। पर उनका मकसद दलित वर्गों को लुभाकर भाजपा के पक्ष में उनके वोटों का ध्रुवीकरण करना है और वोट लेकर सबकुछ भूल जाना है। 

दलित वर्गों के आरक्षण के सम्बन्ध में आरएसएस और भाजपा की असली नीयत सब जानते हैं। उसका वश चले तो वह सभी क्षेत्रों से आरक्षण समाप्त कर दें। पर, चूँकि दलितों के आरक्षण की व्यवस्था संविधान में की गई है, इसलिए उसके हाथ बंधे हुए हैं। इसके बावजूद, उसने पिछले चार सालों में दलित वर्गों के आरक्षण को लगातार कमजोर करने की कोशिश की है।

योगी सरकार ने चली चाल 

अभी हाल ही में योगी सरकार ने अनुसूचित जातियों और पिछड़ी जातियों को तीन श्रेणियों में बाँटकर उनके लिए निर्धारित आरक्षण को कम करने की चाल चली है। जिन जातियों में शिक्षा का स्तर ऊँचा है, और जिनमें योग्य अभ्यर्थी मिल सकते हैं, उनका आरक्षण घटा दिया गया है, और जिन अन्य जातियों को, जिन्हें अति दलित और अति पिछड़ा वर्ग कहा गया है, उन्हें अलग से आरक्षण दिया गया है। उनमें अशिक्षा की दर ज़्यादा होने के कारण योग्य अभ्यर्थी ही नहीं मिल सकेंगे। जिसका लाभ सवर्ण जातियों को मिलेगा। 

इसी तरह भाजपा सरकार ने विश्वविद्यालयों में आरक्षण को विभाग वार करके दलित-पिछड़े वर्गों के आरक्षण को आधे से भी कम कर दिया है। किसी-किसी विभाग में तो एक भी पद आरक्षण से नहीं भरा गया, और सभी पदों पर सवर्णों की नियुक्ति कर दी गई। जब नीयत ही ठीक नहीं है, तो आरक्षण की कोई भी घोषणा मूर्ख बनाने के सिवा कुछ नहीं है।

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कँवल भारती
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