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समस्या लाउडस्पीकर है, निशाने पर अजान क्यों?

आज अजान है, लेकिन मुसलमानों की सांस्कृतिक पहचान को इस तरह विवादस्पद बनाने का अभियान पहले भी चला है और आगे भी इसकी आशंका है। ऐसे में जरूरी है कि एक-दूसरे समाज की उन बातों को समझा जाए जो सार्वजनिक तो होते हैं, लेकिन सर्वनिष्ठ नहीं यानी दोनों में से एक को उससे कुछ खास लेना-देना नहीं होता।
समी अहमद

अजान से नींद में खलल पड़ने या इससे शोर होने की शिकायत जिस अंदाज में हाल के दिनों में सामने आयी है, उससे यह सवाल उठना लाजिमी है कि समस्या लाउडस्पीकर है या इसके बहाने अजान को निशाने पर लिया जा रहा है। 

 

कुछ मोटी-मोटी बातें हैं। पहली बात तो यह कि लाउडस्पीकर के लिए अनुमति लेने का नियम है, लेकिन प्रशासन का ध्यान नहीं रहता है। इसलिए यह बिना अनुमति के और नियमों को ताक पर रखकर बजाया जाता है।

इसके लिए रात दस बजे से सुबह छह बजे तक प्रतिबंध का नियम सुप्रीम कोर्ट की ओर से है। दस बजे रात के बाद विशेष अवसरों के लिए बारह बजे रात तक लाउडस्पीकर के इस्तेमाल की अनुमति दी जा सकती है, वह भी पंद्रह दिनों से अधिक के लिए नहीं और रात बारह बजे के बाद से सुबह छह बजे तक नहीं। 

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निशाने पर मुसलमान?

 सवाल यह है कि अजान पर पाबंदी के लिए परेशान वर्ग को बाकी जगह लाउडस्पीकर के इस्तेमाल पर कोई आपत्ति क्यों नहीं होती। इसी से यह सवाल उठता है कि समस्या लाउडस्पीकर के शोर से है या अजान से? 

अजान को निशाने पर लेना उस सतत प्रयास का हिस्सा लगता है जो एक समुदाय के बारे में भ्रम पैदा करने, उसे नीचा दिखाने और उसके प्रति नफ़रत फैलाने का एक लंबा अभियान है।

आज अजान है, लेकिन मुसलमानों की सांस्कृतिक पहचान को इस तरह विवादस्पद बनाने का अभियान पहले भी चला है और आगे भी इसकी आशंका है। ऐसे में जरूरी है कि एक-दूसरे समाज की उन बातों को समझा जाए जो सार्वजनिक तो होते हैं, लेकिन सर्वनिष्ठ नहीं यानी दोनों में से एक को उससे कुछ खास लेना-देना नहीं होता।

समस्या शोर या अजान?

अजान में लगने वाला समयः चूंकि मसजिदों में पाँच बार फर्ज़ नमाज़ होती है इसलिए अजान भी पाँच बार दी जाती है। एक अजान में लगभग पाँच मिनट का समय लगता है। पूरे दिन के लिए 25 मिनट। भोर में चूंकि बाकी कोलाहल नहीं होता, इसलिए उसकी आवाज़ सबतक पहुँचती है।

बाकी दोपहर, तीसरे पहरे, सूरज डूबने के फौरन बाद और रात की नमाज़ के लिए होने वाली अजान की आवाज़ कम सुनाई पड़ती है या नींद में खलल डालने वाली नहीं मानी जाती।

यह और बात है कि कभी सूरज निकलने से पहले उठना बेहतर माना जाता था, लेकिन जीवन शैली में जब देर तक जगना शामिल हुआ तो सुबह जगना मुश्किल हो गया।

मगर ऐसा क्यों है कि जब भी नींद में खलल पड़ने की बात होती है तो नामी-गिरामी लोग अजान को ही निशाने पर लेते हैं, मुकदमा भी होता है और सरकार व प्रशासन भी अजान वाले लाउडस्पीकर को समस्या मानता है?

भजन-कीर्तन, शादी-ब्याह

सुबह मन्दिरों में सूरज निकलने से पहले सालों भर रिकॉर्डेड भजन बजते हैं। आधे घंटे से घंटे भर के लिए लाउडस्पीकर पर उसका प्रसारण होता है। कई लोग यह भी कहते हैं कि जागरण या यज्ञ से भी नींद में खलल पड़ता है। यह एक रात से तीन रातों तक का होता है। भजन-कीर्तन पर तो कोई आपत्ति-कार्रवाई सामने नहीं आती। 

इसके अलावा शादियों में बड़े बड़े साउंड बाक्स से कानफाड़ू शोर होता है। उसके खिलाफ प्रशासन कार्रवाई की बात तो करता है, लेकिन उस पर अमल नहीं करता। नेताओं के भाषण में लाउडस्पीकर उच्चतम स्तर पर होता है। इसपर तो प्रशासन की मौन सहमति होती है।

अलार्म

अजान मस्जिद पहुंचने के लिए एक पुकार है जो पूरी दुनिया में लगभग इन्हीं बोलों के साथ दी जाती है। अजान के लिए लाउडस्पीकर आने से पहले एक ऊँची जगह चुनी जाती थी ताकि आसपास के लोग नमाज के लिए नियत समय पर मस्जिद पहुँच जाएं। इसे उस जमाने का अलार्म भी कहा जा सकता है। अलार्म की आवाज का कोई मतलब नहीं होता, अजान के बोल स्पष्ट अर्थों वाले होते हैं। 

mosques and muslims targeted for azan - Satya Hindi

आज बहुत से लोग अगर साफ नीयत से यह शिकायत करते हैं कि भोर की अजान से नींद में खलल पड़ता है तो ग़लत नहीं कहते, क्योंकि उस वक़्त की अजान में यह मक़सद भी शामिल होता है कि नमाज पढ़ने वाले इस बात का ध्यान रखें कि नमाज नींद से बेहतर और रात की नींद का वक़्त ख़त्म हो चुका।

लाउडस्पीकर का इस्तेमाल

मसजिद के लाउडस्पीकर का दूसरा बड़ा इस्तेमाल रमज़ान में होता है। यह भोर में रोज़ा रखने का समय बताने के लिए इस्तेमाल किया जाता है और उस वक़्त अजान होते ही रोजा की शुरुआत माना जाता है। फिर सूरज डूबने के बाद अजान का शिद्दत से इसलिए इंतजार होता है कि उस दिन का रोजा पूरा हुआ और अब रोजा तोड़ लेना है।

ईद का चांद देखे जाने का एलान करने और नमाज का वक्त बताने में भी लाउडस्पीकर का इस्तेमाल होता है। कोविड के दौरान मसजिद के लाउडस्पीकर का इस्तेमाल घरों में नमाज़ पढ़ने के ऐलान के लिए भी हुआ। इसी तरह इसी लाउडस्पीकर से बच्चों को पोलियो से बचाने की दवा दिलाने के लिए ऐलान किया जाता था।

सवाल यह है कि अजान उनके लिए है, जिनपर नमाज फर्ज है और जो नमाज पढ़ते हैं तो वे लोग इसकी आवाज क्यों सुनें जिनकी दिलचस्पी नमाज़ पढ़ने में नहीं या जिनकी आस्था का कोई संबंध अज़ान-नमाज से नहीं?

सवाल आस्था का?

भारतीय समाज में ऐसे लोग सबसे बड़ी संख्या में हैं। यह सवाल खासकर उस जगह के लिए अहम हो सकता है जहां आसपास ऐसे लोग रहते हों जिन्हें अजान सुनकर उठना नहीं होता बल्कि इससे उनकी नींद में वाकई खलल पड़ता हो। 

यही बात वे लोग कह सकते हैं जिनकी आस्था जागरण या यज्ञ से जुड़ी नहीं होती। लेकिन इन्हें लेकर कोई अभियान नहीं चलता था, मुकदमा नहीं होता था, मंत्री और वीसी बयान नहीं देते थे। कई बार ज्यादा दिक्कत होती थी तो आपस में तय कर इसे स्थानीय तौर पर निपटा लेते थे। यह राष्ट्रीय मुद्दा नहीं होता था।

लाउडस्पीकर आम होने लगे तो मसजिदों में इसके इस्तेमाल को गलत करार दिया गया। आज भी कुछ जगहों पर अजान के लिए तो लाउडस्पीकर का इस्तेमाल होता है लेकिन नमाज में नहीं। लेकिन धीरे-धीरे मसजिद और जलसा-तकरीरों में इसका धड़ल्ले से इस्तेमाल होने लगा।

अब मामला यहाँ तक पहुँचा कि कई जगह तो सुबह की अजान के अलावा नमाज के बाद सलाम भी लाउडस्पीकर पर पढ़ा जाता है। सलाम हजरत मुहम्मद की प्रशंसा में पढ़े जाने वाले कलाम को कहा जाता है।

यह बात अपनी जगह है कि अजान के लिए लाउडस्पीकर पर पाबंदी की बात मूलतः सांप्रदायिक विद्वेष के कारण की जाती है, लेकिन कुछ बातें ऐसी जरूर हैं जिनपर सामूहिक निर्णय लिया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए एक ही मुहल्ले में कई मसजिदों से एक साथ अजान की आवाज लाउडस्पीकर से गूंजने लगती है जिससे शोर तो होता है, आवाज समझ में नहीं आती।

लाउडस्पीकर की आवाज कम करने के बारे में जागरूकता होनी चाहिए। जैसे पहले रमजान में सेहरी के वक्त जगाने के लिए काफिला निकलता था, वह बंद हो गया। अब तो लगभग हर घर में मोबाइल फोन से अलार्म की सुविधा है तो क्यों न लोगों को उसके लिए तैयार किया जाए और मसजिदों से इसके ऐलान में कमी लायी जाए।

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