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प्रशांत भूषण मामला : न्यायपालिका अपनी छवि ठीक करे! 

प्रशांत भूषण प्रसंग का अभी पटाक्षेप नहीं हुआ है। यह एक ऐसे वैचारिक आंदोलन का बीजारोपण है, जिसके अंकुरण देश भर में फूटेंगे और तब भारतीय न्यायपालिका की चुनौतियाँ बढ़ जाएँगी। अगर अदालतें अपने सम्मान की रक्षा अवमानना के डंडे से करेंगी तो माफ़ कीजिए अब यह देश उसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है।
राजेश बादल

सुप्रीम कोर्ट के माननीय न्यायाधीश कुछ भी कहते रहें, उससे प्रशांत भूषण की छवि या प्रतिष्ठा पर कोई आँच नहीं आती। अगर इस मामले में किसी की छवि दाँव पर थी तो वह ख़ुद सर्वोच्च न्यायालय था। विनम्रतापूर्वक निवेदन है कि माननीय न्यायालय ने एक बार नहीं सौ बार मुँह की खाई है। माननीय न्यायाधीश तो पिछली सुनवाई में ही कह चुके थे कि कोई ऐसा नहीं है, जो ग़लती न करे और इस बार तो ख़ुद अदालत ग़लती कर चुकी है। कम से कम हिन्दुस्तान के लोग तो यही मानते हैं। यदि पिछली बार ही प्रशांत भूषण दोषी मान लिए गए थे तो इसके बाद चार पाँच घंटे की चर्चा का औचित्य ही क्या था। ज़ाहिर है माननीय न्यायालय अपना सम्मान बचाने के लिए कोई इज्ज़त भरा रास्ता खोजने की कोशिश कर रहा था। इसमें वह असफल रहा और प्रशांत भूषण एक नए नायक बन कर देश के सामने प्रस्तुत हैं।

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प्रशांत भूषण प्रसंग के बहाने मुल्क की न्यायपालिका पर अनेक सवाल भी खड़े होते हैं। एक ज़माना था, जब कहा जाता था कि आम आदमी की कहीं सुनवाई नहीं हो तो उसे पत्रकारिता की शरण लेनी चाहिए। हमने देखा है कि उन दिनों अगर अख़बार में संपादक के नाम पत्र भी छप जाता था तो नौकरशाही में हड़कंप मच जाता था। चुटकियों में समस्या हल हो जाती थी। लेकिन जब पत्रकारिता भरपूर उद्योग हो गई तो उसकी साख पर भी सवाल खड़े होने लगे। इसके बाद आम अवाम के सामने न्यायपालिका ही बचती थी।

ऐसे अनेक प्रसंग हैं, जब भारतीय अदालतों ने एक नागरिक के मौलिक तथा संवैधानिक हितों का संरक्षण किया और उसे राहत पहुँचाई। लेकिन हालिया वर्षों में अदालतें भी अपनी छवि दरकने से नहीं रोक पा रही हैं। उनके अपने घर भी अब शीशे के दिखाई देने लगे हैं। उनकी प्रतिष्ठा घट रही है। जब सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ न्यायमूर्ति खुलकर प्रेस के सामने आएँ और कहें कि न्याय के इस सर्वोच्च मंदिर में सब कुछ ठीक ठाक नहीं है तो इससे आम आदमी के मन में घबराहट होती है।

जब इन पवित्र स्थानों से भ्रष्टाचार की बू आने लगे, न्यायाधीश नौकरी छोड़ने पर विवश हो जाएँ तो कहा जा सकता है कि व्यवस्था तंत्र में सड़ांध है।

क़रीब सोलह-सत्रह बरस पहले मैंने एक टेलिविज़न चैनल के लिए आधा घंटे की विशेष रिपोर्ट की थी। मध्य प्रदेश के एक नौजवान जज ने ज़िला जज पर गंभीर आरोप लगाए थे। उसने उच्च न्यायालय से भी संरक्षण माँगा था। पर कुछ नहीं हुआ। नतीजतन उसने नौकरी ही छोड़ दी। इसको आधार बनाकर मैंने न्यायपालिका में भ्रष्टाचार के अनेक क़िस्से उजागर किए थे। अनेक न्यायाधीशों ने तब मुझे इसके लिए धन्यवाद दिया था कि मैंने लोकतंत्र के इस स्तम्भ के स्याह पक्ष को दर्शकों के सामने रखा। मेरा अनुभव रहा है कि अक्सर हम पत्रकार न्यायालय की अवमानना के भय से उतना भी नहीं लिखते या दिखाते, जिसका हमें संविधान हक देता है। न्यायपालिका की दरकती हुई साख के बाद भी पत्रकारिता की ख़ामोशी पेशेवर नहीं मानी जानी चाहिए।

प्रशांत भूषण अवमानना मामले में देखिए आशुतोष की बात।
इस तथ्य को तो कई पूर्व न्यायाधीश तक उजागर कर चुके हैं कि सेवानिवृत्ति से कुछ महीने पहले कई न्यायाधीशों के फ़ैसले अचानक चौंकाने वाले होते रहे हैं। इनके पीछे छिपी मंशा समझी जा सकती है। इसी प्रकार रिटायर होने के बाद कुछ न्यायाधीश जीवन की दूसरी पारी शुरू कर देते हैं, जिसका आधार उनकी पहली पारी में बन चुका होता है।
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ज़ाहिर है कि यह कोई ईमानदार रवैया नहीं कहा जा सकता। एक तरफ़ हमारे नौजवान अधिक उमर के कारण नौकरी नहीं मिलने से कुंठित होते हैं, तो दूसरी ओर बड़ी बड़ी पेंशन लेते हुए इस तरह की दूसरी पारी खेलना बहुत पवित्र तो नहीं ही है। न्यायाधीश सेवानिवृत्ति के बाद अपने अनुभवों पर किताब लिखें, विधि संस्थानों में व्याख्यान दें, अछूते क़ानूनी विषयों पर शोध करें तो यह उनका सम्मान बढ़ाता है। भारत में वैधानिक विषयों पर रिसर्च की हालत वैसे ही बहुत दयनीय है। अफ़सोस कि किसी न्यायाधीश ने इस दिशा में रिटायर होने के बाद अच्छा काम नहीं किया। 
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प्रशांत भूषण प्रसंग का अभी पटाक्षेप नहीं हुआ है। यह एक ऐसे वैचारिक आंदोलन का बीजारोपण है, जिसके अंकुरण देश भर में फूटेंगे और तब भारतीय न्यायपालिका की चुनौतियाँ बढ़ जाएँगी। अगर अदालतें अपने सम्मान की रक्षा अवमानना के डंडे से करेंगी तो माफ़ कीजिए अब यह देश उसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। अपने कर्मों से न्यायालयों को अपनी निष्पक्षता, निर्भीकता और दाँव पर लगी साख को पुनः स्थापित करना होगा। इसमें ज़रा भी चूक इस गरिमावान संस्थान को लोगों के दिलों से उतार सकती है। जजों को समझना होगा कि वे संविधान की शपथ लेकर कुर्सी पर बैठे हैं। वे राजनेताओं की दया पर निर्भर नहीं हैं। किसी भी न्यायाधीश को यह याद दिलाने की ज़रूरत नहीं है कि आदमी अपना मर जाना पसंद कर सकता है। अपने यश का मर जाना कभी पसंद नहीं करेगा। यश का मर जाना अपने मर जाने से भी अधिक ख़तरनाक़ है।
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