आख़िरकार आज़ादी के अमृत महोत्सव वर्ष में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की ओर से वह विचार सामने आ ही गया जो स्वतंत्रता संघर्ष और उससे उपजे मूल्यों पर आधारित संविधान को नकारने की उसकी सतत मंशा को उजागर कर देता है।
आरएसएस के मुखपत्र पांचजन्य में छपे सरसंघ चालक मोहन भागवत के साक्षात्कार में जिस तरह भारतीय होने के लिए ‘शर्तें’ निर्धारित की गयी हैं, वे डॉ.आंबेडकर के उस सपने पर कुठाराघात हैं जिसके तहत संविधान ने देश के हर नागरिक को बिना किसी भेदभाव के समान माना है। भारत में कोई समुदाय किसी दूसरे समुदाय की कृपा से नहीं बल्कि संविधान से प्राप्त अधिकारों और संरक्षण के दम पर रहता है।
यह साक्षात्कार ऐसे वक़्त आया है जब राहुल गाँधी के नेतृत्व मे जारी कांग्रेस की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ की चर्चा देश भर में है। राहुल गाँधी ‘नफ़रत के बाज़ार में मुहब्बत की दुकान खोलने’ का आह्वान कर रहे हैं। यह यात्रा अपनी प्रकृति में चाहे जितनी अराजनीतिक हो, लेकिन इसे मिल रहा समर्थन और संदेश उस राजनीति को गहरे चिंता में डाल रही है जिसने भारत को ‘नफ़रत के बाज़ार’ में तब्दील करके अभूतपूर्व मुनाफ़ा कमाया है और जिसके हाथ में मौजूदा दौर में सत्ता के सभी सूत्र पहुँच चुके हैं।
प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने 1200 साल की ग़ुलामी की बात की थी जिसे मोहन भागवत के साक्षात्कार में हज़ार साल कर दिया गया है। ये दो सौ साल की कमी अचानक कैसे आ गयी, इसे तो वही स्पष्ट करेंगे, लेकिन इतना तो साफ़ है कि उनके निशाने पर देश के मुसलमान हैं जिन्हें वे ‘सुधारना’ या अपनी शर्तों के मुताबिक ढालना चाहते हैं।
वे हिंदू संगठनों की तमाम आक्रामकता को सही ठहराने के लिए हज़ार साल से जारी युद्ध की दलील देते हुए इसे स्वाभाविक बताते हैं और सलाह देते हैं कि मुसलमानों को श्रेष्ठता बोध से निकलना चाहिए कि कभी उन्होंने इस देश पर शासन किया था।
पहली बात तो यह है कि मोहन भागवत किस हैसियत से किसी समुदाय के लिए शर्तें निर्धारित कर रहे हैं? भारत में किसी धर्म, पंथ, देवी-देवता को मानने या न मानने की पूरी छूट है लेकिन संविधान को न मानने की किसी को छूट नहीं है। और संविधान सभी को अपने धर्म को मानने और उसको प्रचारित करने की अज़ादी देता है। तो क्या भागवत की शर्तें संविधान को चुनौती नहीं है जिसकी शपथ लेकर नरेंद्र मोदी दिल्ली में और बीजेपी के मुख्यमंत्री कई राज्यों में सरकार चला रहे हैं?
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आरएसएस चीफ़ मोहन भागवत जब मुसलमानों के लिए ‘यहाँ रहना चाहे तो रहें, चाहे अपने पुरखों के धर्म में लौट आयें’ जैसी उदारता दिखाते हैं तो एक संविधानेतर हैसियत हासिल कर चुके शख़्स के अहंकार से भरे दिखते हैं। यह निश्चित ही 2014 के बाद केंद्र में चल रही नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चल रही सरकार की ओर से संवैधानिक संस्थाओं को बेमानी बना दिये जाने की हद तक चले जाने के प्रयासों का नतीजा है। यह बात छिपी नहीं है कि आज़ादी के आंदोलन से विरत रहने वाले आरएसएस ने तिरंगे से लेकर संविधान तक का खुला विरोध किया था।
मोहन भागवत लगातार विदेशी प्रभाव और विदेशी षड़यंत्र की बात करते हैं लेकिन सावरकर से लेकर गोलवलकर तक प्रवाहित आरएसएस की चिंतन परंपरा जब भागवत मुसलमानों को 'अन्य’ के रूप में चिन्हित करने की जो कोशिश करते हैं, वह स्वयं में विदेशी परंपरा है। यह परंपरा किस क़दर हिटलर से प्रभावित रही है, ये गोलवलकर के लेखन से स्पष्ट है।
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भारत सिर्फ़ हज़ार साल पुराना नहीं है। वर्ग और जाति शोषण के विरुद्ध विद्रोह और संघर्ष की परंपरा इससे भी पुरानी है। अगर बात निकलेगी तो बहुत दूर तलक जाएगी। इसीलिए कहा जाता है कि सभ्यता के विकास मे स्मृति के अलावा विस्मृति का महत्व भी होता है। 1947 में आज़ादी पाने के साथ जो भारत सामने आया, वह अनोखा और अभूतपूर्व था। हज़ार साल पूर्व के समाज में स्त्रियों, शूद्रों, आदिवासियों और श्रमिकों के पास वे अधिकार नहीं थे जो संविधान बनने के साथ इन वंचित समुदायों को प्राप्त हुए। आरएसएस हज़ारों साल पहले के जिस गौरवशाली समय की बात करता है, वह इन वर्गों के लिए ग़ुलामी का युग था जिसकी वापसी कोई नहीं चाहेगा।
और सबसे बड़ी अफ़सोस की बात तो ये है कि मोहन भागवत का अंदाज़ मो.अली जिन्ना की भविष्यवाणी सही साबित करता है जिन्होंने संसदीय लोकतंत्र की आड़ में अल्पसंख्यकों पर बहुसंख्यकों के शासन की आशंका जताई थी। तत्कालीन भारतीय नेतृत्व ही नहीं, भारतीय मुसलमानों ने इस आशंका को ख़ारिज करते हुए पाकिस्तान के विचार को ठुकरा दिया था। भारत नाम के विचार से प्यार करने वालों के सामने ये चुनौती एक बार फिर मुँह बाये खड़ी है।
(लेखक कांग्रेस से जुड़े है)
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