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बंगाल चुनाव के बाद क्यों भड़क रहा है ममता-मोदी विवाद?

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 28 मई को कलाईकुंडा की ‘यास चक्रवात’ के मद्देनज़र समीक्षा बैठक कर रहे थे। इस बैठक के बारे में जो बात काफ़ी चर्चित हुई वह यह आरोप था कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी उस बैठक में नहीं पहुँचीं। ममता ने राज्य के मुख्य सचिव अल्पन बंदोपाध्याय के साथ प्रधानमंत्री से झटके में मुलाक़ात की, राज्य को हुए नुक़सान की रिपोर्ट सौंपी और निकल गयीं।

ममता पर यह आरोप लगा कि उन्होंने उस मर्यादा का उल्लंघन किया जिसकी अपेक्षा प्रधानमंत्री के साथ निर्धारित बैठक में की जाती है। साथ ही उन पर संघीय ढांचे के अनुरूप काम नहीं करने का आरोप भी लगा। इससे पहले झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के उस बयान पर भी विवाद हुआ था जिसमें उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी पर मन की बात करने का व्यंग्य किया था। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल पर भी प्रधानमंत्री के साथ बैठक में प्रोटोकॉल के उल्लंघन की भी काफी चर्चा हुई थी।

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इस बात की चर्चा कम हो रही है कि ममता बनर्जी ने अपने औपचारिक माध्यम से यह स्पष्ट कर दिया था कि भाजपा विधायक और प्रस्तावित नेता प्रतिपक्ष, शुभेंदु अधिकारी की उपस्थिति उस समीक्षा बैठक में स्वीकार नहीं करेंगी। बंगाल के राजनीतिक टीकाकार याद दिलाते हैं कि पिछले साल ऐसी ही परिपाटी के तहत तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष और कांग्रेस विधायक अब्दुल मन्नान को अम्फन तूफान से नुक़सान की समीक्षा बैठक में शामिल नहीं किया गया था। वह बैठक भी प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में होने वाली थी। 

प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाली बैठक में शामिल न होने के लिए ममता बनर्जी के बारे में मोदी का कोई बयान सामने नहीं आयी है लेकिन देश के दूसरे सबसे शक्तिशाली व्यक्ति माने जाने वाले गृह मंत्री अमित शाह ने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री पर तीखे हमले किये हैं। बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने भी ममता पर निशाना साधा है।

मगर क्या यह महज ममता के अहंकार का मामला है? प्रधानमंत्री बनने से पहले नरेन्द्र मोदी के साथ ऐसा ही विवाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ हुआ था। मोदी उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री थे और बिहार को दी गयी मदद के विज्ञापन पर नीतीश कुमार ने नाराज होकर पूर्व निर्धारित दावत वापस ले ली थी। तब भाजपा ने नीतीश कुमार के बारे में बड़े जोर-शोर से यह कहा था कि वे अहंकारी हैं।

यह सही है कि फिलवक्त मोदी प्रधानमंत्री हैं और नीतीश कुमार के साथ विवाद की तुलना पद के लिहाज से नहीं हो सकती लेकिन बतौर व्यक्ति मोदी के साथ यह समस्या रही है। यह बात भी याद दिलायी जा रही है कि बतौर गुजरात मुख्यमंत्री मोदी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली बैठक में शामिल नहीं हुए थे।

भाजपा के शीर्ष नेता और बतौर एक व्यक्ति मोदी ने अपनी टीम की जो नीति-रणनीति अपनायी है उसमें यह बात स्पष्ट झलकती है कि जिन राज्यों में उसकी हार होती है, वहां के नेता की छवि को खराब किया जाए।

इसमें खास बात यह है कि जहां चुनावी जंग मोदी बनाम स्थानीय नेता होती है, वहां भाजपा उस स्थानीय नेता के पीछे पड़ जाती है ताकि उसकी छवि खराब हो।

इसके साथ ही इसे इस रूप में भी देखा जाना चाहिए कि जहां-जहां भारतीय जनता पार्टी को विधानसभा चुनाव में जीत नहीं मिलती, वहां वह अपने प्रतिनिधियों के जरिए शासन चलाना चाहती है? हारने के बाद भी शासन करने का यही नुस्खा टकराव और प्रोटोकॉल के उल्लंघन का कारण बन रहा है।

 

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फ़ोटो साभार: ट्विटर/नवीन पटनायक

शायद यही कारण है कि भाजपा का अपना तंत्र उड़ीसा में ‘यास’ से तबाही के आकलन के लिए समीक्षा बैठक में शामिल मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को ममता बनर्जी की तुलना में पेश कर यह कहा जा रहा कि यह होता है प्रधानमंत्री के साथ बैठक का तरीका। दिलचस्प बात यह है कि प्रधानमंत्री ने ‘यास’ से नुक़सान की भरपाई के लिए उड़ीसा के लिए तो तत्काल पांच सौ करोड़ की आर्थिक सहायता की घोषणा कर दी लेकिन पश्चिम बंगाल और झारखंड के बारे में यह कहा गया कि इन दोनों राज्यों को अंतर-मंत्रालयी समूह की रिपोर्ट के बाद मदद की जाएगी। यह बताने की ज़रूरत नहीं कि भाजपा के लिए नवीन पटनायक की राजनीति उतनी आक्रामक नहीं जितनी ममता और हेमंत सोरेन की रही है। ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल को 20 हजार करोड़ के नुक़सान की बात कही मगर उनकी बात को अहमियत न देने की वजह राजनीति के अलावा और क्या हो सकती है? दिलचस्प बात यह भी है कि उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने ट्वीट किया कि उन्होंने केन्द्र से तत्काल कोई सहायता की मांग नहीं की है। हालाँकि प्रधानमंत्री की सहायता की घोषणा के लिए उन्होंने उन्हें धन्यवाद दिया।

‘दीदी ओ दीदी’ के व्यक्तिगत आक्षेप को थोड़ी देर के लिए अलग भी कर दिया जाए तो मोदी सरकार की यह खुल्लम-खुल्ला नीति रही है कि अगर राज्य की सरकार उनकी बड़ी आलोचक हो तो उसकी बांह मरोड़ी जाए।

यह जो ’डबल-इंजन’ की सरकार का नारा है वह उसी नीति का द्योतक है। अगर राज्य की सरकार भाजपा या उसके गठबंधन की नहीं है तो वहां दी जाने वाली आर्थिक सहायता को रोकना उसी नीति का परिणाम है। 

इस नीति का दूसरा अहम पहलू यह है कि जहां-जहां भाजपा या उसके गठबंधन को हार मिली है वहां उसकी दो रणनीति देखी जा सकती है। पहले तो उसकी यह साजिश होती है कि किसी तरह चुनी हुई और स्पष्ट बहुमत से बनी सरकार को गिराया जाए। मध्य प्रदेश और पूर्वोत्तर उसके स्पष्ट उदाहरण हैं। राजस्थान में उसकी कोशिश नाकाम हुई है लेकिन तलवार तो वहां भी लटकी रहती है। 

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भाजपा की दूसरी नीति है अपने प्रतिनिधियों के सहारे शासन करने की। दिल्ली में कानून बनाकर वहां केन्द्र द्वारा नियुक्त एलजी को कैसे यह एक चुनी हुई सरकार पर सवार करने की नीति भाजपा ने अपनायी है, यह भी सबको पता है। जम्मू-कश्मीर में बिना चुनी सरकार के राज करने की नीति अब तो काफी लंबी हो चुकी है। वहां लगातार प्रशासनिक आदेशों से स्थानीय प्रशासन को शून्य पर लाकर खड़ा किया गया है।

पश्चिम बंगाल में राज्यपाल जगदीप धनखड़ खुलेआम विरोधी नेता की तरह बयान देते रहे हैं। रोजमर्रा के प्रशासनिक कामों में उनके खुले हस्तक्षेप पर काफी विवाद होता रहा है। पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव अल्पन को केन्द्रीय प्रतिनियुक्ति पर बुलाना भी मोदी के प्रतिशोध का परिणाम माना जा रहा है।

किसी भी हाल में राज करने की भाजपा की अत्यधिक महत्वाकांक्षा अभी लक्षद्वीप संघ राज्यक्षेत्र में भी विवाद का कारण बनी हुई है। वहां के प्रशासक और पूर्व भाजपा नेता प्रफुल्ल पटेल के हाल के फरमान से स्थानीय आबादी में असंतोष फैला हुआ है। वहां के सांसद मोहम्मद फैजल ने पटेल पर लक्षद्वीप में नया कानून बनाकर नागरिक अधिकारों के हनन का आरोप लगाया है।

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भाजपा की एक स्पष्ट नीति यह लगती है कि अपने मूल आधार वाले राज्यों के मतदाताओं को ध्यान में रखकर बाकी राज्यों में भी उन नीतियों को लागू किया जाए जो उनके लिए वोट हासिल करने का जरिया बन सके। यही कारण है कि भाजपा का तंत्र इस बात के प्रचार में लगा है कि पश्चिम बंगाल दूसरा कश्मीर बन रहा है। इतनी जबर्दस्त हार को स्वीकार करने के बजाय उसी तंत्र से वहां राष्ट्रपति शासन लगाने की बात भी की जा रही है। भाजपा वहां भी कश्मीर की तरह उत्तर बंगाल-कोलकाता का झगड़ा लगाते हुए देखी जा सकती है।

उसके पास गोरखालैंड का भी हथियार है। कुल मिलाकर भाजपा के इस रवैये से उन राज्यों में यह संदेश देने की कोशिश की जा रही है कि अगर केन्द्र की तरह राज्य में भी भाजपा की सरकार न हो तो कितना नुक़सान हो सकता है। डबल इंजन की सरकार का राजनैतिक संदेश खुलकर सामने आ रहा है।

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समी अहमद
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