क्या यह बहुसंख्यकवाद के बल की विजय और धर्मनिरपेक्षता की पराजय का क्षण है? सत्ताधीशों के इवेंट के बाद क्या भारत धर्मनिरपेक्ष बचा रह गया है? क्या यह जनतांत्रिक भ्रम का क्षण है? कुछ ऐसे ही जरूरी सवालों को उठाता हुआ, प्रसिद्ध चिंतक और स्तंभकार अपूर्वानंद का यह लेख। यह लेख इसलिए पढ़िए और पढ़ाइए कि लोगों की उम्मीदें इस जनतंत्र से बरकरार हैं। ऐसा न हो कि बाद में पछताना पड़े।