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शबनम और सलीम की कहानी उलट कर देखिए

शबनम की फाँसी फ़िलहाल टल गई है। कुछ क़ानूनी प्रावधानों की वजह से उसके लिए डेथ वारंट जारी नहीं किया जा सका। यह जो मोहलत मिली है, इसमें उसकी कहानी को एक बार उलट कर देखना चाहिए।

सीधी कहानी यह है कि 2008 में 14 अप्रैल की रात को शबनम ने अपने प्रेमी सलीम के साथ मिल कर अपने ही परिवार के सात लोगों को कुल्हाड़ी से काट कर मार डाला था। मारे जाने वाले लोगों में उसके माता, पिता, सगे भाई, बहन और डेढ़ साल का एक भतीजा था।

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याचिका खारिज

इस मामले में निचली अदालत से ले कर सुप्रीम कोर्ट तक सब ने शबनम और सलीम, दोनों की फाँसी की सजा बरक़रार रखी। सुप्रीम कोर्ट ने उसकी पुनर्विचार याचिका भी ख़ारिज कर दी। और एक बार राष्ट्रपति भी उसकी दया याचिका खारिज कर चुके हैं। इतने बड़े पैमाने पर ये हत्याएँ की गईं, इतनी नृशंसता से की गईं, जैसी विरले (रेयरेस्ट ऑफ रेयर) देखने को मिलती हैं।

ऐसे अपराध के लिए यही सजा कानून में मुक़र्रर है। इसलिए इस मामले में अदालत और सरकार ने जो फ़ैसला किया, वह एक सामान्य फ़ैसला था। हत्या के लिए प्राणदंड। लेकिन अपनी ज़िंदगी के लिए शबनम ने जो कदम उठाया था, वह अभूतपूर्व था।  

यह जो क़ातिल शबनम है, वह कहाँ से पैदा होती है? कहानी को उलट कर देखने का मतलब है, इस घटना को समाज, कानून और अदालत की नजर से नहीं, बल्कि शबनम की नजर से देखना।

क्या है कहानी?

इस के लिए हमें अतीत की ओर लौटना पड़ेगा। शबनम यूपी के अमरोहा जनपद के गांव बावनखेड़ा की रहने वाली है। जिस समय ये हत्याएं हुईं, उस समय उसकी उम्र  27 साल की थी। हम थोड़ा और पीछे चलते हैं।

शबनम डबल एम. ए. है, उसने इंगलिश में एम. ए. तक की पढ़ाई की है और ज्योग्राफी में भी। वह एक सरकारी इंटर कॉलेज में शिक्षक (शिक्षा मित्र) की हैसियत से काम कर रही थी। उसका परिवार गाँव के सबसे अमीर परिवारों में से एक था। उनके पास सबसे ज्यादा ज़मीनें थीं।

मज़दूर से मुहब्बत!

शबनम अपने घर के सामने की आरा मशीन पर काम करने वाले सलीम से प्यार करती थी। सलीम भी उसी गाँव का रहने वाला है और आठवीं के बाद उसने पढ़ाई छोड़ दी थी। तब वह मज़दूरी का काम करता था। बहुत सारे लोग कह रहे हैं कि ‘वह उस मजदूर के प्यार में अंधी हो रही थी। दोनों की हैसियत का कोई मेल नहीं था।’ कानून को तो इस पर कोई एतराज नहीं होता, लेकिन समाज को था। तो इसका जवाब भी समाज ही दे सकता है कि क्या स्त्री को अपने पसंद के व्यक्ति से प्यार करने का हक है?

जिस समय यह हत्याकांड हुआ, उस समय शबनम सात हफ़्ते की गर्भवती थी। वह अनब्याही थी। लेकिन उसका गर्भ अनचाहा नहीं था। कानून इसके लिए भी स्त्री को नहीं रोकता। लेकिन यदि उसे यह गर्भ गिरा देने के लिए कहा जा रहा हो, तो इस बात का जवाब भी समाज को ही ढूंढना होगा कि किसी माँ को अपने गर्भस्थ शिशु की रक्षा का अधिकार है या नहीं? इस अधिकार की सीमा कुदरत तय करेगी या समाज?

अनब्याही मां के जिस्म से अपने शिशु के लिए दूध उतरे या नहीं, इस पर फैसला करने का हक़ उसके मातृत्व को है या सामाजिक व्यवस्था को? यदि मानव निर्मित क़ानून के बदले आप इसे नैसर्गिक नियमों के अनुसार देखें, तो क्या यह वही मातृत्व नहीं है, जिसकी महानता के हम गीत गाते हैं?

संगीन आरोप!

बेमेल और ज़ुनूनी प्यार और कुंवारेपन के गर्भ के अलावा शबनम पर एक संगीन आरोप और भी है। कुछ लोग कहते हैं कि शबनम और सलीम ने परिवार की संपत्ति हड़पने के लिए यह कांड किया था। मां बाप की तीन औलादों में शबनम ही एक ही बेटी है। बाकी दोनों बेटे थे- उसके भाई।

तो यदि यह कांड नहीं हुआ होता, तो क्या वह संपत्ति दो भाइयों के बीच नहीं, तीन संतानों के बीच बाँटी जाती और शराफ़त से शबनम का हिस्सा उसे दे दिया जाता? क़ानून तो इसके लिए भी बना है, लेकिन असली जिंदगी में इस पर कितना अमल होता है, इस पर भी विचार करना चाहिए। इसलिए यह सवाल भी अपने आप से पूछना चाहिए कि स्त्री को अपने हक़ की जायदाद के लिए लड़ने का हक है या नहीं?

शबनम बालिग थी, पढ़ी लिखी थी और अपने पैरों पर खड़ी थी। लेकिन वह स्त्री थी। इसलिए परिवार को उसका सलीम से मेलजोल बिलकुल मंजूर नहीं था। ‘अवैध’ गर्भ को बचाने का तो सवाल ही नहीं उठता। परिवार उस संबंध का कड़ा विरोध कर रहा था और उसे फ़ैसला बदलने के लिए प्रताड़ित कर रहा था। शबनम ने जो हिंसा की, वह सबको नज़र आया। समाज ने देखा, पुलिस ने देखा और अदालत ने देखा।

खुद शबनम के साथ जो हिंसा हो रही थी, वह अदृश्य हिंसा थी, जैसा कि आम तौर पर इस समाज में बेटियों के साथ होता है। समाज इस हिंसा को पहचानता है, लेकिन वह इस को ‘समझाना-बुझाना’ कहता है। पुलिस, क़ानून और अदालतें इस अदृश्य हिंसा को देख नहीं पातीं, उनकी अपनी सीमाएँ हैं।

शबनम का जवाब?

लेकिन शबनम ने इन तीनों सवालों के जवाब समाज को दे दिए। वह एक जहीन और पढ़ने लिखने वाली लड़की रही थी। शिक्षक थी। गिरफ़्तारी के पहले उसकी दिमागी हालत ठीकठाक थी। आज भी, जेल की सलाखों के पीछे, डेथ वारंट का इंतजार करती हुई मानसिक तौर पर वह ठीक ही है। क़ानूनी तौर पर कहीं उसे मानसिक रूप से असंतुलित नहीं बताया गया है। तो फिर यह सोचने की बात है कि वे कौन सी चीजें हैं, जिन्होंने उसे वह शबनम बनने पर मजबूर किया, जो वह पहले नहीं थी। हमारे कौन से सामाजिक मूल्य हैं, जो ऐसी शबनम पैदा करते हैं?

वह जेल में है। उसे फाँसी होगी। उसकी तरह प्यार और संतान के मामले में परिवार और समाज के एतराज करने के अधिकार को नहीं मानने वाली ज्यादातर लड़कियाँ अपने प्रेमी के साथ भाग जाती हैं। बाद में उनकी ‘हत्या’ हो जाती है, जिसे यही समाज गर्व से ‘ऑनर किलिंग’ कहता है।

अदृश्य हिंसा का जाल

जो इससे भी बच जाती हैं, वे भी अपने खानदान के प्यार और जायदाद के हक़ से महरूम हो कर जीती हैं।

तो आज बेशक शबनम अकेली नज़र आती है, लेकिन यह असंभव नहीं कि कल और भी लड़कियाँ अदृश्य हिंसा के इस जाल को तोड़ कर बाहर निकलें, चाहे उनका तरीका कुछ और हो। कहीं यह कथा इस समाज के लिए वैलेंटाइन जैसा कोई नया प्रतीक नहीं गढ़ दे।

जहाँ तक शबनम की क्षमादान की याचिका पर विचार करने की बात है, तो वह अदालत और सरकार का क्षेत्राधिकार है। लेकिन तब भी क्षमादान की उन नज़ीरों पर एक बार ज़रूर नज़र डालनी चाहिए, जिनमें क्रोध में पत्नी और उसके मित्र के, जायदाद के लिए अपने भाई- भतीजों के और प्रतिशोध के लिए सामूहिक नरसंहार के लिए दोषी ठहराए गए लोगों को न सिर्फ माफ़ किया गया है, बल्कि मुख्यधारा में वापस ला कर सम्मानजनक पदों तक पहुँचाया गया है। नाम गिनाऊँ?

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बाल मुकुंद
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