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बदले की भावना से काम करती है यूपी की योगी सरकार?

सीएए के ख़िलाफ़ जिस तरह लोगों की तसवीरें शहर में खुले में लगवा दी गई हैं, सवाल उठता है कि क्या उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार बदले की भावना से काम कर रही है? यह सवाल इसलिए भी अहम है कि सरकार ने उन लोगों की तसवीरें भी लगवा दी हैं, जिनके ख़िलाफ़ पुलिस के पास कोई सबूत नहीं है। इन लोगों की जान को ख़तरा हो सकता है, पर सरकार को कोई फ़र्क नहीं पड़ता है।
उत्तर प्रदेश की योगी सरकार क़ानून और मानवाधिकारों की धज्जियाँ उड़ाने के नए आयाम खड़े कर रही है। पिछले वर्ष लखनऊ में नागरिकता संशोधन क़ानून के विरुद्ध हुए विरोध प्रदर्शन में गिरफ़्तार लोगों की तसवीरों को शहर के चौराहों पर लगवा कर प्रदेश सरकार और ज़िला प्रशासन ने  दिखा दिया है कि ‘बदले’ की भावना से काम कैसे किया जाता है।
विरोध प्रदर्शन में हुए नुक़सान की वसूली के लिए जिन 57 लोगों की तस्वीरें होर्डिंग पर लगा कर और उनके रिहायशी पते देकर ग़ैर-क़ानूनी ढंग से बदनाम किया गया है, उनमे पूर्व आइपीएस अधिकारी एस. आर. दारापुरी, कांग्रेस की सदफ जाफ़र, सामाजिक कार्यकर्ता दीपक कबीर और शिया मौलाना सैफ़ अब्बास शामिल हैं। मौजूदा हालात में प्रशासन की  इस कार्रवाई से इन सभी लोगों की जान को ख़तरा होने की आशंका है। प्रशासन का ऐसी 100 होर्डिंग शहर में लगवाने का इरादा है। 
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विरोध के दौरान आगजनी और पथराव में हुए तोड़फोड़ के लिए प्रशासन को इन सभी से कुल 1.55 करोड़ रुपये की वसूली करनी है। दिसंबर 2019 में प्रदेश सरकार ने कुल 372 लोगों को हर्ज़ाना भरने का नोटिस दिया था।
यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि 77 वर्षीय दारापुरी, सदफ़ जाफ़र और दीपक कबीर को ज़मानत पर रिहा करते वक़्त अदालत ने कहा था कि पुलिस इनके विरुद्ध कोई सबूत पेश नहीं कर पाई है।

सरकार का ग़ैरक़ानूनी काम?

दंगों या विरोध प्रदर्शन के दौरान हुए नुक़सान के लिए प्रदर्शनकारियों से ज़ुर्माना वसूलने को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने 2009 के एक फ़ैसले में यह निर्देशित किया था कि नुक़सान और हर्ज़ाने के मूल्यांकन के लिए हाई कोर्ट के किसी रिटायर्ड या मौजूदा जज की नियुक्ति की जानी चाहिए ना कि किसी अतिरिक्त ज़िला अधिकारी को यह अधिकार दिया जाए।
इसके विपरीत 2010 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अपने एक फैसले में अतिरिक्त ज़िला अधिकारी को इस काम के लिए ना सिर्फ उपयुक्त पाया बल्कि यह आदेश भी दिया कि उसके आदेश को चुनौती भी नहीं दी जा सकती है।
दारापुरी व अन्य के मामलों में भी एक अतिरिक्त ज़िला अधिकारी को नुक़सान की भरपाई करवाने की ज़िम्मेदारी दी गयी है।

क्या कहा अदालत ने?

अधिवक्ता परवेज़ आरिफ टीटू द्वारा दायर एक जनहित याचिका में प्रदेश  सरकार और इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेश को चुनौती दी गई है। इस याचिका में उच्चतम न्यायालय के 2009 के आदेश का हवाला दिया गया है।
इसी याचिका के चलते इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कानपुर के मुहम्मद फ़ैजान को अतिरिक्त ज़िला अधिकारी (नगर) द्वारा दी गई हर्ज़ाना भरने की नोटिस को यह कह कर स्टे कर दिया कि रिकवरी की प्रक्रिया को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है और वहाँ केस अभी लंबित है।
लखनऊ ज़िला प्रशासन ने होर्डिंग पर कुछ ऐसे लोगों की तसवीरें लगा दी हैं, जिनके खिलाफ पुलिस के पास कोई साक्ष्य नहीं है। ऐसे में क्या प्रशासन को इन व्यक्तियों के मानहानि और सर्वोच्च अदालत की अवमानना का दोषी ठहराया जा सकता है?
दारापुरी ने उत्तर प्रदेश के प्रमुख सचिव गृह को लिखे एक पत्र में इसे ‘अवैधानिक और शरारतपूर्ण’ बताया है। दारापुरी ने कहा है कि ‘ज़िला प्रशासन की इस कार्यवाही से हम लोगों की जान-माल एवं स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के लिए बहुत बड़ा ख़तरा पैदा हो गया है।’
साथ ही चेतावनी दी है कि यदि उनके और अन्य अभियुक्तों के साथ कोई अप्रिय घटना होती है तो उसकी पूरी ज़िम्मेदारी प्रशासन और सरकार की होगी।कुछ मुसलिम धर्मगुरु इस मामले में प्रशासन के ख़िलाफ़ मानहानि का मुक़दमा करने पर विचार कर रहे हैं।      
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अतुल चंद्रा
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