उत्तराखंड के राज्यपाल ने कई वजहों से समान नागरिक संहिता (यूसीसी) और धार्मिक स्वतंत्रता संबंधी संशोधन विधेयकों को राज्य सरकार को वापस भेज दिया है। राज्य की बीजेपी सरकार के लिए यह एक झटका है।
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी
उत्तराखंड के राज्यपाल लेफ्टिनेंट जनरल (रिटायर्ड) गुरमीत सिंह ने मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी सरकार द्वारा पारित दो महत्वपूर्ण संशोधन विधेयकों को लौटा दिया है। गवर्नर ने तकनीकी खामियों की वजह से पुनर्विचार के लिए विधानसभा को वापस लौटाया है। ये विधेयक समान नागरिक संहिता (यूसीसी) के कार्यान्वयन और धर्म स्वतंत्रता (धर्मांतरण विरोधी) कानून से संबंधित हैं।
सरकारी सूत्रों के अनुसार, दोनों विधेयकों में ड्राफ्टिंग त्रुटियां, व्याकरण संबंधी गलतियां और प्रक्रियात्मक समस्याएं पाई गईं। जिसकी वजह से राज्यपाल ने उन्हें मंजूरी नहीं दी। विशेष रूप से यूसीसी संशोधन में सजा के प्रावधानों को आधुनिक बनाने और उन्हें लागू करने की चुनौतियों को दूर करने से जुड़ी खामियां बताई गई हैं। वहीं, धर्मांतरण विरोधी संशोधन विधेयक को दिसंबर की शुरुआत में ही इन कारणों से लौटाया गया था।
उत्तराखंड भारत का पहला राज्य है जिसने समान नागरिक संहिता को लागू किया है। अगस्त 2025 में कैबिनेट द्वारा मंजूर इन संशोधनों का उद्देश्य यूसीसी को और मजबूत बनाना था। इसी तरह, उत्तराखंड धर्म स्वतंत्रता (संशोधन) अधिनियम 2025 में जबरन या धोखाधड़ी से धर्मांतरण के खिलाफ सख्त प्रावधान जोड़े गए थे।
इस संशोधन में प्रलोभन की परिभाषा को व्यापक बनाया गया है, जिसमें पैसा, गिफ्ट, नौकरी, मुफ्त शिक्षा का वादा, विवाह का झांसा, सोशल मीडिया का इस्तेमाल या किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाना शामिल है। विवाह के लिए अपना धर्म छिपाना भी अपराध माना गया है। सजा के प्रावधानों में तीन से 10 वर्ष तक कैद और कम से कम 50,000 रुपये जुर्माने का प्रावधान है। यदि पीड़ित नाबालिग, महिला, अनुसूचित जाति/जनजाति या विकलांग है, तो सजा पांच से 14 वर्ष तक और जुर्माना एक लाख रुपये तक हो सकता है। गंभीर मामलों में आजीवन कारावास तक की सजा का भी जिक्र है।
यह कानून मूल रूप से 2018 में लागू हुआ था और 2022 में पहली बार संशोधित किया गया था। दोनों ही कानून- यूसीसी और धर्मांतरण विरोधी काफी विवादास्पद रहे हैं।
सरकारी अधिकारियों का कहना है कि इन खामियों को दूर किया जा रहा है। यदि आवश्यक हुआ तो सरकार अध्यादेश जारी कर इन प्रावधानों को तत्काल लागू कर सकती है। विधेयकों को सुधारकर दोबारा राज्यपाल के पास भेजा जाएगा।
यह घटना धामी सरकार के लिए एक झटके के रूप में देखी जा रही है, हालांकि तकनीकी आधार पर लौटाए जाने से राजनीतिक विवाद की गुंजाइश कम है। राज्य में इन कानूनों को लागू करने की प्रक्रिया पर अब सभी की नजरें टिकी हैं।
क्यों विवादित हैं यूसीसी और धर्मांतरण विरोधी बिल
समान नागरिक संहिता (यूसीसी) और धर्मांतरण विरोधी कानून भारत में इसलिए विवादास्पद हैं क्योंकि इन्हें धार्मिक स्वतंत्रता और अल्पसंख्यक अधिकारों पर हमला माना जाता है। यूसीसी व्यक्तिगत धार्मिक कानूनों (जैसे मुस्लिम पर्सनल लॉ, हिंदू मैरिज एक्ट) को एक समान कानून से बदलने का प्रयास है, जिसे आलोचक हिंदू कानूनों का प्रमुखता से थोपा जाना मानते हैं। इससे मुस्लिम, ईसाई और आदिवासी समुदायों की सांस्कृतिक पहचान प्रभावित होती है। वहीं, धर्मांतरण विरोधी कानून जबरन या लालच से धर्म परिवर्तन को रोकने के नाम पर बने हैं, लेकिन इनकी अस्पष्ट परिभाषाएं (जैसे लालच में उपहार, नौकरी या विवाह शामिल) अंतर-धार्मिक विवाहों और मिशनरी गतिविधियों को निशाना बनाती हैं, जिससे अल्पसंख्यकों में भय पैदा होता है।
सिर्फ बीजेपी शासित राज्यों में विवाद
बीजेपी शासित राज्यों में धर्मांतरण विरोधी कानून कई जगह लागू या लाए गए हैं, जैसे उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, असम, हरियाणा और हाल ही में राजस्थान (2025 में विधेयक पारित)। यूसीसी को सबसे पहले उत्तराखंड में 2025 में पूरी तरह लागू किया गया, जबकि गुजरात, असम, उत्तर प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों में इसे लाने की घोषणा या तैयारी चल रही है। गोवा में पुराना पुर्तगाली सिविल कोड पहले से है, लेकिन नया यूसीसी मुख्य रूप से उत्तराखंड से शुरू हुआ है।
विपक्षी दल जैसे कांग्रेस, सपा, टीएमसी और अन्य इन कानूनों का विरोध इसलिए करते हैं क्योंकि वे इन्हें संविधान की धर्मनिरपेक्षता और धार्मिक स्वतंत्रता (अनुच्छेद 25) का उल्लंघन मानते हैं। उनका तर्क है कि ये कानून अल्पसंख्यकों, खासकर मुस्लिम और ईसाई समुदायों को टारगेट करते हैं तथा हिंदुत्व एजेंडे को बढ़ावा देते हैं। धर्मांतरण विरोधी कानूनों का दुरुपयोग अंतर-धार्मिक जोड़ों को परेशान करने और कट्टर हिन्दू समूहों को बढ़ावा देने में होता है, जबकि यूसीसी को समानता के नाम पर बहुसंख्यकवाद थोपने का औजार बताया जा रहा है। विपक्ष का कहना है कि ये कानून समाज को ध्रुवीकृत करते हैं और लोकतंत्र के लिए खतरा हैं।