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सुब्रत रॉय सहारा।

'जब मेरे पड़ोसी सहारा की एजेंटी कर खुद के पैरों पर खड़े होने लगे थे'

सुब्रत रॉय सहारा की मौत की ख़बर के साथ ही मेरी आँखों के सामने स्कूल-कॉलेज के दिनों के वैसे दर्जनों चेहरे घूम गए, एक जो ज़्यादा से ज़्यादा बचत करके अपना भविष्य सँवारने और सपने पूरी करने की सोचते और दूसरे जो आधी-अधूरी पढ़ाई छोड़कर सहारा की एजेंटी करने में ख़ुद को झोंक दिया। दोनों तब इस अदम्य उत्साह से भरे होते कि बस कुछ ही दिनों की बात है, उनके अच्छे दिन आनेवाले ही हैं। तब अच्छे दिन का मतलब बहुमत की सरकार नहीं हुआ करती थी। सरकार और उनकी योजनाओं से इतर भी कोई बड़े सपने दिखा सकता है और एक बहुत बड़ी आबादी उससे प्रभावित हो सकती है, यह मैंने इन दोनों तरह के लोगों में देखा।

जो सहारा में पैसे जमा करके अपने सुंदर भविष्य के सपने देखते, उनकी थाली से घी, मौसम की आयी नई सब्जी और मिठाइयाँ उतरनी बंद हो गयीं। पेट काटकर पैसे बचाने जैसे मुहावरे का असल ज़िंदगी में उपयोग मैंने अपनी आँखों के सामने देखा। मोहल्ले-पड़ोस में यह बात सार्वजनिक तौर पर होने लगी कि असल में सहारा में पैसा जमा करता है न तो कहाँ से खाएगा-पिएगा। उस दौरान बचत ने लोगों पर नशे की तरह असर किया, दाँत से पैसे पकड़कर लोगों ने सहारा में जमा किया।

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दूसरी तरफ़ जिनका पढ़ने-लिखने में मन नहीं लगा या पिता के बिजनेस में रम नहीं पाए, सहारा की एजेंटी की तरफ रुख़ किया। उनके घरों में आए दिन नयी-नयी चीज़ें आने लगीं। मोहल्लेभर में जो लोफर और आवारा के नाम से जाना जाता, चार लोगों के बीच उसकी पूछ अचानक से बढ़ गयी। वो दुर्गापूजा में सबसे बढ़-चढ़कर चंदे देता। किसी के घर में शादी के दौरान तंगी की बात चलती तो आगे बढ़कर कहता- हम हैं न चाची। उसकी धाक ऐसी बननी शुरू हुई कि उसके नाम पर टेंटवाले, राशनवाले, कपड़ेवाले, गाड़ीवाले कई-कई महीने के उधार देने लग जाते। तब घर-घर सहारा, हर घर सहारा जैसा माहौल होता। हर दूसरा एजेंट ख़ुद को सुब्रत रॉय की तरह रौब में नज़र आता और उस रौब के भीतर ख़ुद को सपूत, समाज सेवक, उद्धारक और तारणहार के तौर पर प्रोजेक्ट करता। 

पापा थोड़ी देर के लिए दोनों तरह के लोगों के प्रभाव में आ जाते लेकिन माँ निर्विकार भाव से रहती। उसके जीने का अंदाज़ बिल्कुल अलग होता। उसने कभी भी किसी तरह की कटौती करके भविष्य सुरक्षित करने और चमकाने के सपने नहीं देखे। वो एक वाक्य कहा करती- आत्मा को कलटाकर (तड़पाना) कोई काम करना नहीं चाहिए। मेरा बच्चे को अभी दूध-दही का ज़रूरत है, वो सब नहीं देकर उसके लिए बचत करने का क्या फ़ायदा? अभी से ही यह सोचना कि रोग-बीमारी में काम देगा, इससे अच्छा है न कि अभी से ही सेहत पर ध्यान दें। इंसान को हर तरह का शौख-मौज (शौक-फन) करना चाहिए। आदमी के भीतर एक बार तंगी घुस जाता है तो ज़िंदगीभर सब पदारथ (चीज़ें) पूरी होने पर भी खुलकर नहीं जी पाता। वो कभी यह सब चक्कर में पड़ी ही नहीं।

मोहल्ले के बाक़ी बच्चे जहां अपने-अपने घर के बिजनेस में हाथ बंटाने लगे या फिर सहारा की एजेंटी करने में लग गए, माँ ने मुझे इन सबसे कोसों दूर रखा। एक ही बात दोहराती- तुम अभी से पैसा कमाने के चक्कर में मत पड़ो, पढ़ो-लिखो-मन का जीवन जीयो। यही कारण रहा कि बाक़ी लोग जितने पैसे कमाते, माँ उतने पैसे इंतज़ाम करके भिजवाती। पहले पापा पर दबाव डालकर उसके बाद भैया ने मोर्चा संभाला। पापा को कभी-कभी लगता भी बाक़ी सब अपने पैरों पर खड़ा हो गया और एक मैं न खड़ा हो पाया और ऊपर से कभी उनके काम में सहयोग न कर पाया। यह बात जब वो आधे-अधूरे ढंग से शुरू करते कि माँ एकदम से कहती- जो ई बच्चा कर रहा है, सब कर सकेगा? इसको छोड़कर बाक़ी बात कीजिए। वो दुर्लभ माँ रही जो अपने पति के सामने अपने बच्चे के लिए कहती- हम हैं, आपको इसकी चिंता करने का ज़रूरत नहीं है। पापा एकदम से साईड हो जाते।
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वो पेट काटकर पैसे बचानेवाले परिवार कहाँ हैं, किस अवस्था में हैं, मुझे उनकी कोई जानकारी नहीं। सहारा की एजेंटी करनेवाले लोगों ने कितनी प्रॉपर्टी बना ली, नहीं मालूम लेकिन यह है कि मेरे भीतर कभी किसी चीज़ का अभाव महसूस ही नहीं होता। कभी इस बात का ख़याल ही नहीं आता कि थाली से कोई चीज़ और मन से कोई शौक हटाकर भी बचत की जा सकती है। ऑटो-कैब के लिए इंतज़ार करते हुए कोई कलीग भीमकाय गाड़ी रोककर पूछते हैं कि आओ विनीत कहाँ ड्रॉप कर दूं तो लगता है- अब मुझे भी एक बड़ी सी गाड़ी खरीद लेनी चाहिए, मुझे ऑटो-कैब में बैठना अभी-अभी तक अच्छा लगता है। कभी, किसी से इर्ष्या होती ही नहीं। 

मॉं एक बात कहा करती- इंसान के पास पैसा है तो उसके पहनावा-ओढ़ावा-खान-पान से लगना भी चाहिए, बात-व्यवहार में नरमी झलकनी चाहिए। सबकुछ बैंक अकाउंट ही नहीं बोलेगा। पढ़ा-लिखा है तो बोलने-चालने-उठने-बैठने से लगना चाहिए, हर समय कपार पर कोई डिग्री चिपकाकर नहीं चलता। इंसान अपने में जिस दिन रहना सीख लेगा, दुनिया की दौलत उसके आगे ढेला-पत्थर है।

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मॉं तो चली गयी लेकिन होती तो सुब्रत रॉय की मौत की ख़बर पर ज़रूर कोई टिप्पणी करती जिसका वाक्य इस तरह से ख़त्म होता- कोई कितना-कुछ कर ले, लादकर नहीं ले जाता। मुझे इस बात का संतोष है कि टोपाज ब्लेड पर साईड ए-साईड बी लिखकर सेविंग किट में रखनेवाले पापा जीवन के अंतिम पड़ाव में मुझे लेकर यह महसूस करते हैं कि जो पढ़ाई पढ़िस है, उसको जीता भी है, एकदम अपनी माँ के रास्ते पर चलता है- न दाएँ, न बाएँ।

(विनीत कुमार के फ़ेसबुक पेज से साभार)
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विनीत कुमार
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