10 नवंबर से ब्राज़ील के बेलेम में संयुक्त राष्ट्र की जलवायु परिवर्तन पर समिट (UNFCCC) COP-30 का आयोजन चल रहा है। भारत ने BASIC (ब्राज़ील, द अफ़्रीका, भारत, चीन) देशों और समान विचारधारा वाले विकासशील देशों के समूह (LMDC) के साथ मिलकर एक साझा बयान जारी किया है जिसमें ‘समता’, ‘क्लाइमेट जस्टिस’ और बहुपक्षीयता जैसे मुद्दों को उठाया गया है। क्लाइमेट जस्टिस अर्थात् वह सिद्धांत जिसमें यह माना जाता है कि जलवायु परिवर्तन का असर सभी पर समानरूप से नहीं पड़ता। जलवायु परिवर्तन का असर अलग-अलग देशों पर, अलग-अलग जन समूहों पर अलग-अलग पड़ता है। समाज का वह हिस्सा जो गरीब है, जिसके पास संसाधन कम हैं जो हर नई टेक्नोलॉजी को वहन नहीं कर सकता, जलवायु परिवर्तन की मार सर्वाधिक उसी पर पड़ती है। COP-30 में भारत का नजरिया और पक्ष बिल्कुल सही है और लगातार उसी रूख के करीब है जिसे भारत ने पिछले तीन दशकों से क़ायम रखा है।
इस समिट को ‘इम्प्लीमेंटेशन कॉप’ के तौर पर पेश किया गया है जिसका मतलब है कि बजाय नई घोषणाएँ और वादे करने के, पुरानी घोषणाओं और प्रतिबद्धताओं को पूरा करने पर ज़ोर दिया जाना। मतलब, जो कहा जा चुका है उसे पूरा किए जाने के दृष्टिकोण के साथ इस समिट की शुरुआत की गई है। यह बात याद रखना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि आज से दस साल पहले, 21वें जलवायु सम्मेलन (COP21) 2015 ने ऐतिहासिक पेरिस जलवायु समझौते को जन्म दिया था। इस दौरान दो काम किए गए जिससे सस्टेनेबल डेवलपमेंट (सतत विकास) के साथ सुरक्षित और सस्टेनेबल भविष्य सुनिश्चित किया जा सके। पहला, मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स से आगे बढ़कर 17 सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल तैयार किए गए जिन्हें 2030 तक पूरा किया जाना था। दूसरा, एक अन्य व्यापक लक्ष्य तैयार किया गया कि- पूरी पृथ्वी को पारिस्थितिक, आर्थिक और सामाजिक स्तर पर विनाशकारी बदलावों से बचाना, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करना, और वैश्विक तापमान वृद्धि को 2°C (और आदर्श रूप से 1.5°C) तक सीमित रखना।
ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन बढ़ा
लेकिन दुर्भाग्य से पेरिस समझौते के जैसे परिणाम आने चाहिए थे नहीं आए और हालत यह है कि 2015 के बाद से वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन 10% बढ़ गया है और पिछले वर्ष यह लगभग 53 अरब टन CO₂ के नए उच्च स्तर पर पहुँच गया जोकि बहुत डरावना है।
औसत वैश्विक तापमान लगातार बढ़ रहा है और दुनिया ये प्रभाव देख रही है जिनकी वैज्ञानिकों ने पहले ही भविष्यवाणी कर दी थी, जैसे- बाढ़, सूखा, जंगल की आग और तूफ़ानों की बढ़ी हुई दर। विकसित देशों से जिस तरह के सहयोग की उम्मीद की गई थी वो सामने नहीं आया।
अमेरिका, जो दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी उत्सर्जक अर्थव्यवस्था है, पेरिस समझौते से बाहर हो गया है और घरेलू स्तर पर जलवायु-विरोधी नीतियाँ लागू कर रहा है। यह बहुत ख़तरनाक़ है। पेरिस समिट प्रतिबद्धताओं की समिट थी जहाँ देशों ने स्वेच्छा से राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDCs) तय किए थे। सभी देश यह जानते थे कि वो जो प्रतिबद्धता दिखा रहे हैं वो ज़रूरत से काफ़ी कम है। इसके बावजूद यह देश इन्ही प्रतिबद्धताओं को पूरा नहीं कर पा रहे हैं।पेरिस समझौते को साकर करने के लिए देशों ने “प्रतिबद्धता–समीक्षा” वाला ढांचा स्वीकार किया लेकिन इसे धरातल में नहीं उतार सके। UN रिपोर्ट के आधार पर यदि आज से आकलन किया जाए तो सभी प्रतिबद्धताओं और घोषित लक्ष्यों को जोड़कर देखने पर पता चलता है कि 2035 तक उत्सर्जन में 2019 के स्तर से केवल 10% की कमी आएगी, जबकि 1.5°C लक्ष्य की राह पर बने रहने के लिए लगभग 60% कमी की आवश्यकता है।
अभी दुनिया जलवायु संकट से निपटने के लिए 100 अरब डॉलर सालाना जुटा रही है। COP-30 की एक और विशेषता यह है कि जलवायु परिवर्तन के लिए वित्त की व्यवस्था को बढ़ाकर 2035 तक यह रकम तीन गुना बढ़ाकर 300 अरब सालाना करनी है। और आगे एक ऐसी व्यवस्था बनानी है जिससे मिलाकर कुल 1.3 ट्रिलियन डॉलर प्रति वर्ष जुट सके।
मेरा कहना यह है कि यह सब सिर्फ़ कॉप तक सीमित नहीं होना चाहिए। देशों को अपनी-अपनी घरेलू प्रतिबद्धताओं पर भी ध्यान देना चाहिए। और प्रतिबद्धताएँ सिर्फ़ INDs से संबंधित ही नहीं, बल्कि राजनैतिक इच्छा का भी प्रतिबिंब होना चाहिए जिसमें जनता के लिए एक जरूरी और कठोर संदेश हो भले ही यह संदेश सरकारों के वोटबैंक को नुकसान क्यों न पहुँचाता हो। यह समझ जरूरी है कि पृथ्वी का अस्तित्व पहले है, धर्म और देश बाद में आते हैं।
4 में से 3 भारतीय जलवायु परिवर्तन से चिंतित
प्यू रिसर्च का हालिया अध्ययन बताता है कि प्रत्येक 4 में से 3 भारतीय जलवायु परिवर्तन और उसके प्रभावों को लेकर चिंतित हैं। ऐसे में भारत में मोदी सरकार को यह सोचने की ज़रूरत नहीं कि यदि उसने दिवाली आदि के दौरान पटाखों के ख़िलाफ़ कठोर रूख अपनाया तो उसका वोटबैंक खिसक जाएगा बशर्ते सरकार अपनी हिंदुत्व की अनावश्यक पहचान को धरती के अस्तित्व के बीच न लाए।
जलवायु परिवर्तन महान संकट का दौर है, यह धरती को बचाने की चुनौती लेकर आया है। यदि ऐसे ही चलता रहा तो 1.5°C का लक्ष्य पूरा नहीं हो पाएगा। इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए अब सिर्फ़ 170 अरब टन कार्बन उत्सर्जन का स्कोप बचा है और जिस गति से उत्सर्जन बढ़ रहा है, यह बजट भी मात्र तीन सालों में ख़त्म हो जाएगा। अर्थात् 3 सालों बाद पृथ्वी के तापमान को 1.5°C के अंदर रखना असंभव हो जायेगा।भारत में कार्बन उत्सर्जन वृद्धि दर 1.4%
ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट की 2025 की रिपोर्ट बता रही है कि भारत में कार्बन उत्सर्जन वृद्धि दर 1.4% है जोकि 2024 के मुक़ाबले काफ़ी कम है लेकिन इसमें बड़ा योगदान इस साल के बेहतरीन मानसून का रहा है जिसका अगले साल कोई भरोसा नहीं है। नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का भी इसमें हिस्सा है लेकिन उतना नहीं जितना होना चाहिए। दूसरी तरफ़ चीन जैसे देश भी हैं जहाँ नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों पर आधारित ऊर्जा सुरक्षा को इतना बढ़ावा दिया गया है कि यहाँ उत्सर्जन दर घटकर मात्र 0.4% ही रह गई है जबकि चीन की जीडीपी का आकार भारत से लगभग 5 गुना अधिक है।
जिस तरह भारतीय नेतृत्व पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन जैसे गंभीर मुद्दों को लेकर लापरवाह है उससे यह लगता है कि नेतृत्व को सिर्फ़ चुनाव दर चुनाव जीत की ही प्यास है, लोगों के जीवन के अधिकार को बचाने की नहीं। स्टेट ऑफ़ ग्लोबल एयर 2024 के अनुसार, भारत में प्रति वर्ष लगभग 21 लाख लोगों की मौत वायु प्रदूषण से हो रही है। दिल्ली दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानी बनी हुई है जहाँ वर्ष भर PM2.5 स्तर औसतन लगभग 91.6 µg/m³ रहता है जो WHO की कड़ी गाइडलाइन (5 µg/m³) से लगभग 18 गुना ज़्यादा है। इनके दुष्प्रभावों का सबसे ज़्यादा नुकसान किसानों, मज़दूरों, कंस्ट्रक्शन वर्करों, बुजुर्गों और बच्चों आदि को होता है। यही सबसे संवेदनशील वर्ग है जिसके पास सुविधाएं कम हैं और भेद्यता ज़्यादा! यहीं आता है क्लाइमेट जस्टिस जिसे भारत ने COP-30 में लिखित रूप से अपना समर्थन दिया है, लेकिन दुर्भाग्य से देश के अंदर अपनी इस नीति का पालन भारत नहीं करता। श्रम शक्ति नीति ड्राफ्ट 2025 भी इसका उदाहरण है जहाँ सुधार के नाम पर सिर्फ़ उद्योगपतितों को फ़ायदा पहुँचने का दृष्टिकोण है लेकिन दिन भर खटने वाले मजदूरों के लिए कुछ नहीं। जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों और पूंजीवादी मानसिकता से लड़ने के लिए उन्हें अकेले छोड़ दिया गया है।
पिछले साल 1 करोड़ लोग टीवी से ग्रसित हुए
इन सबका असर बीमारियों पर भी पड़ता है। अब क्षय रोग अर्थात् टीबी को ही ले लीजिए। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी की जाने वाली विश्व टीबी रिपोर्ट-2025 के अनुसार, भारत में आज भी टीबी के सबसे ज़्यादा मरीज हैं। रिपोर्ट के अनुसार, 2024 में लगभग 1 करोड़ लोगों को टीबी हुआ, जिसमें से 25 लाख से अधिक मरीज अकेले भारत में हैं। यह भयावह है जबकि केंद्र सरकार इसे 2025 तक ख़त्म करने की घोषणा कर चुकी है (राष्ट्रीय क्षय रोग उन्मूलन कार्यक्रम)। 2024 की BMC पब्लिक हेल्थ स्टडी के अनुसार, भारत जैसे देशों में इंडोर वायु प्रदूषण टीबी के केसों में लगभग 26% योगदान देता है। एक दूसरी स्टडी में पाया गया कि जिन इलाकों में PM2.5/PM10 ज़्यादा है, वहाँ टीबी होने की दर और मौतें दोनों अधिक हैं। मतलब साफ़ है कि हवा साफ़ न होने की वजह से गरीब और वंचित वर्ग के लोगों में टीबी ज़्यादा हो रहा है।
सरकार की चुप्पी
इस सबके बाद भी वायु प्रदूषण को लेकर खुलकर नियम तोड़े जा रहे हैं और केंद्र सरकार मुँह पर पट्टी बाँधे बैठी हुई है? रात में 2 बजे तक शादियों में डीजे बजते हैं और प्रशासन कान में रूई डालकर बैठा रहता है। बेशर्मी तो यह है कि देश का एक बड़ा डॉक्टर उपाय के रूप यह कह रहा है कि लोग देश की राजधानी छोड़कर कहीं और चले जाएँ, यह कैसा आह्वान है? और फिर केंद्र सरकार अपने मुँह की सफेद पट्टी को नहीं हटाती, वह पट्टी को और टाईट कर लेती है। सरकारी कार्यालयों, और अमीरों के घरों में हवा एयर फ़िल्टर से साफ़ की जा रही है और ग़रीब अपने शरीर में कैंसर का आश्रय स्थली बनाने के लिए मजबूर हो गया है। सुप्रीम कोर्ट के लिए सरकार उसके बड़े बेटे की तरह हो चुकी है जिसके ऐब उसे दिखाई ही नहीं पड़ते, अगर दिखाई भी पड़ जाते हैं तो उसे नजरअंदाज करने में ही सुप्रीम कोर्ट उसे अपनी शान समझ रही है, इस सबके बाद कोई सरकार पर सवाल उठाना जारी रखता है तो न्यायालय नाराज हो जाता है। यह कैसा वक़्त है? एक वोटर तो सरकार की ज़िम्मेदारी 5 सालों के पहले तय नहीं कर सकता लेकिन संवैधानिक न्यायालय क्या कर रहे हैं? क्या वे सरकारों को उनकी जिम्मेदारी पूरी करने के लिए बाध्य कर रहे हैं? जिस तरह कॉप दर कॉप असफलता हासिल हो रही है उससे सिर्फ़ यह पता चलता है कि वैश्विक क्लाइमेट संकट अवश्यंभावी है और यह भी कि सिर्फ़ विश्व ही नहीं, बल्कि लगभग हर देश नेतृत्व के संकट से जूझ रहा है जिसकी कीमत अंततः देश के नागरिकों को चुकानी पड़ेगी वो भी गौरव के साथ, यह शर्मनाक है।