सुप्रीम कोर्ट को भारत का मालिक समझना ठीक नहीं है। यह सच है कि सुप्रीम कोर्ट संविधान का संरक्षक है लेकिन वो संविधान और इस देश के लोगों का मालिक नहीं है और न ही कोई सरकार इस देश के लोगों की मालिक हो सकती है। असली ताक़त भारत के लोगों में निहित है और बहुमत के नाम पर सत्ता में आए लोग पूरे देश के लिए फैसले नहीं कर सकते, और अगर मामला क्लाइमेट से जुड़ा मसला हो तो और भी गंभीरता से सोचना होगा, क्योंकि यह एक बार खो गया तो दोबारा हासिल नहीं होगा। पूरी दुनिया में पर्यावरण के मुद्दों पर व्यापक बहस होती है, हर पक्ष को सुना जाता है और फिर सर्वसम्मति से फैसले लिए जाते हैं। शायद भारत इकलौता देश है जहाँ की सर्वोच्च अदालत, जिसके पास पर्यावरण संबंधी मुद्दों में कोई विशेषज्ञता नहीं है, वे एक जगह पर बैठकर उन मुद्दों पर फैसले सुना देती है जिनका असर सिर्फ़ भारत ही नहीं पूरी मानवता पर पड़ सकता है।
अरावली के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार की ज़िद को आँख बंद करके मान लिया और आँख बंद करके केंद्र सरकार को सुप्रीम कोर्ट द्वारा दी गयी यह आज़ादी मानवता पर असर डालने वाला ही एक मामला है। अरावली पहाड़ियों की परिभाषा के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा पर्यावरण मंत्रालय, भारतीय वन सर्वेक्षण, भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण, राज्यों के वन विभागों और सेंट्रल एम्पावर्ड कमेटी के सदस्यों की एक कमेटी बनाई गई जिसे अरावली को परिभाषित करने को कहा गया। कमेटी ने कोर्ट के सामने अपनी अनुशंसा में कहा कि चार राज्यों में फैली अरावली पहाड़ियों में वही पहाड़ियां अरावली श्रृंखला का हिस्सा मानी जायें जिनकी ऊँचाई 100 मीटर या उससे अधिक हो। ऐसी परिभाषा जानलेवा है, फैटल है, जैसा कि कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा कि यह ‘अरावली के लिए एक डेथ वारंट है’। जहाँ तक मुझे पता है इस पूरी कमेटी का ढाँचा सरकारी अधिकारियों से पटा पड़ा है, शायद ही इसमें कोई स्वतंत्र पर्यावरणविद हो। इसलिए कोई ताज्जुब नहीं कि सरकारी अधिकारी अपने आका की बातों को कोर्ट के सामने रख रहे हों। पर्यावरण मुद्दों को लेकर सामान्य समझ रखने वाला भी इस बात को नकार देता लेकिन आजकल कब क्या हो जाये कुछ कहा नहीं जा सकता।
अरावली का क्या हाल?
भारतीय वन सर्वेक्षण के अनुसार, पूरी अरावली श्रृंखला में 12,081 पहाड़ियाँ हैं जिनमें से मात्र 1048 पहाड़ियाँ ही सरकार के 100 मीटर के मानक पर खरी उतरती हैं। यानी पूरे अरावली का सिर्फ़ 8.7% हिस्सा ही अरावली माना जाएगा? सोच कर देखिये कि लगभग 200 करोड़ साल पुरानी अरावली श्रृंखला जो चार राज्यों में लगभग 670 किमी तक फैली है उसके भविष्य को कुछ एक मानक ‘ऊँचाई’ के आधार पर तय कर दिया गया। इससे बड़ी मूर्खता और क्या हो सकती है। सुप्रीम कोर्ट को सरकार के इस पक्ष को मानने से पहले सोचना चाहिए था और स्वतंत्र पर्यावरणविदों से सलाह मशविरा करना चाहिए था।
मैं हमेशा कहती हूँ कि अदालत, ख़ासकर सुप्रीम कोर्ट को सरकारी पक्ष को सुनते समय बहुत ज़्यादा सतर्क रहना चाहिए। सरकार, जिसका सीधा संबंध एक खास विचारधारा वाले राजनैतिक दल से होता है, उसके अपने व्यक्तिगत आर्थिक हित भी हो सकते हैं, वह उद्योगपतियों और दलालों के अप्रत्यक्ष गिरफ्त में भी हो सकती है, ऐसे में उस पर सीधे आँखें बंद करके भरोसा नहीं किया जा सकता है।
तो ऐसे में क्या करना चाहिए? कोई भी समृद्ध लोकतंत्र सक्षम नागरिक समूहों (सिविल सोसाइटी) के बिना अस्तित्व में नहीं रह सकता। स्वतंत्र पर्यावरणविद और विशेषज्ञों की राय व रिपोर्ट के बिना सिर्फ़ सरकारी पक्ष को सुनकर फैसला लेना न सिर्फ़ अनुचित है बल्कि यह सुप्रीम कोर्ट के अधिकार क्षेत्र से भी बाहर है।
जो मसला सतत विकास से जुड़ा हो वो बेहद संवेदनशील मुद्दा होता है। यह सामान्य कानून के प्रश्नों और जमानत इत्यादि से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। एक भी ग़लत फैसला पूरी मानवता को संकट में डाल सकता है।
अरावली पहाड़ की पहले की परिभाषा क्या?
लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने जिस किस्म की लापरवाही बरती है वह बेशक अफसोसजनक है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में अपने ही एमिकस क्यूरी (न्यायमित्र) की बात मानने से इनकार कर दिया। कमेटी की अनुशंसाओं से असहमति जताते हुए न्यायमित्र वरिष्ठ वक़ील के. परमेश्वर ने अरावली श्रृंखला की नई परिभाषा का विरोध किया। उन्होंने कहा कि भारतीय वन सर्वेक्षण (FSI) ने इससे पहले अरावली की परिभाषा को लेकर जो नियम बनाये थे वो ज़्यादा बेहतर और पारिस्थितिकीय रूप से उपयुक्त थे। FSI की पूर्व अनुशंसा के अनुसार, 3 डिग्री से अधिक ढाल, जिसमें घाटियों की चौड़ाई 500 मीटर हो, उसे अरावली श्रृंखला का हिस्सा समझा जाये, इसके अतिरिक्त पहाड़ी के नीचे (तलछटी) में 100 मीटर की चौड़ाई तक किसी भी क़िस्म की कोई गतिविधि ना की जाये। लेकिन सुप्रीम कोर्ट और सरकारी समिति दोनों को यह रास नहीं आया।
दिल्ली में जिस क़िस्म का प्रदूषण है, पूरा उत्तर भारत जिस तरह हाँफने में लगा है और बच्चों को लेकर माँ-बाप अस्पताल भाग रहे हैं उसके बावजूद सरकार और न्यापालिका उदासीन है। सत्ता में बैठे लोग यह नहीं समझ पा रहे हैं कि आर्थिक विकास के नाम पर खनन और उससे होने वाला प्रदूषण और बिगड़ता पर्यावरण भारत के नागरिकों से ‘जीवन का अधिकार’ छीन रहा है। सालों भर दिल्ली गैस चैम्बर बनी रहती है, इसके बावजूद न्यायपालिका सरकार के सतत खनन के जुमले को सच मान कर चल रही है। यदि सरकार की इस ज़िद पर सवाल नहीं उठाया गया, इन्हें बराकर रहने दिया गया तो बहुत जल्दी उत्तर भारत रहने लायक नहीं बचेगा। मोदी सरकार के चहेते प्यारे उयद्योगपति बेहिसाब खनन और रियल स्टेट डेवलपमेंट करेंगे और इसकी वजह से पर्यावरण और भी ज़्यादा दूषित होगा। नागरिक अदालत पहुँचेगे तो अदालत महीनों तारीख़ देती रहेगी और आम नागरिक झुलसते रहेंगे। सरकार और अदालतों का क्या है! ज़्यादा प्रदूषण बढ़ेगा तो पूरा अमला दक्षिण भारत में कहीं शिफ्ट हो जाएगा। जब संसद नई बन सकती है तो राजधानी क्यों नही? ‘राष्ट्र-प्रथम’ के खोखले आदर्शों वाले वर्तमान भारत में तुगलकों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। लेकिन आम नागरिकों का क्या होगा? उन्हें कौन बचाएगा? संविधान जिसने जीवन का अधिकार दिया है उसे भी नकारा जा रहा है? सुप्रीम कोर्ट द्वारा समय, काल और परिस्थिति देखकर संविधान की व्याख्या नागरिकों को मौत के मुँह में घसीट ले जाएगी।अरावली थार मरुस्थल को रोके रही
अरावली पर्वतमाला जो करोड़ों सालों से थार मरुस्थल को पूर्व की ओर बढ़ने से रोक रही है, जो सिंधु-गंगा के उर्वर मैदान को मरुस्थल बनने से रोक रही है, जो चंबल, साबरमती और लूनी जैसी महत्वपूर्ण नदियों को सहायता प्रदान करती है, ऐसे में चार चार राज्यों- दिल्ली, राजस्थान, हरियाणा, गुजरात- में फैले पारिस्थिकीय तंत्र को लेकर न्यायिक और प्रशासनिक उदासीनता हतप्रभ और विचलित करने वाली है। बड़े आश्चर्य की बात है कि करोड़ों साल पुराने एक सम्पूर्ण पारिस्थितिकीय तंत्र को एक ‘तथाकथित एक्सपर्ट कमेटी’ ने सिर्फ़ एक ‘ऊँचाई’ से परिभाषित कर दिया? यह पारिस्थिकी और पर्यावरण को लेकर वर्तमान केंद्र सरकार की सोच, उसकी चालाकी, व्यापार के लिए पागलपन और वैज्ञानिक नासमझी को बताती है।
अरावली पर्वतमाला उत्तर भारत के लिए उतनी ही महत्वपूर्ण है जितना कि विशाल हिमालय पर्वत। अरावली के लम्बे चौड़े वन क्षेत्र गुजरात, राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली में हवा की रफ्तार तोड़ते हैं, नमी को रोकते हैं और इस तरह सूखे की संभावना कम होती है। अरावली सिर्फ पहाड़ नहीं, मौसम को संतुलित करने की मशीन है। अरावली श्रृंखला वर्षा बढ़ाने, सूखे को रोकने और आर्द्रता बनाए रखने में महत्वपूर्ण पारिस्थितिकीय भूमिका निभाते हैं। यहाँ की दरारयुक्त चट्टानें ग्राउंड वाटर रीचार्जिंग के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। अरावली की चट्टानें टूटी-फूटी और दरारों वाली हैं जिसकी वजह से बारिश का पानी सीधे नीचे चला जाता है, बोरवेल, कुएँ और एक्विफर भरते हैं। यही वजह है कि दिल्ली-NCR और राजस्थान में पानी अब भी पूरी तरह खत्म नहीं हुआ। एक अनुमान के अनुसार, यहाँ प्रति हेक्टेयर लगभग 20 लाख लीटर पानी पुनर्भरित होता है।
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट से जुड़ी हुई पर्यावरणविद अनुमिता चौधरी कहती हैं कि “अरावली पर्वतमाला… न केवल हमें रेगिस्तानी धूल से बचाती है, बल्कि प्रदूषण को रोकने और हवा के विषाक्त उत्सर्जन को अवशोषित करने के लिए आवश्यक हरित आवरण भी प्रदान करती है”।
अवैध खनन रोकने के नाम पर 92% अरावली को नकार देना, उसे ऐसी सरकार के हवाले कर देना जो लोककल्याण का मतलब ही भूल चुकी है, जिसे पर्यावरण और नागरिकों दोनों से ऊपर सिर्फ़ आर्थिक लाभ दिखाई पड़ रहा है, एक भयावह कदम होगा।
सुप्रीम कोर्ट को सोचना चाहिए कि 92% हिस्से को खनन के लिए खोल देने से क्या विनियमित खनन संभव होगा? क्या सरकार इस पर नियंत्रण रख पायेगी? यदि सरकार नियंत्रण खो बैठी तो क्या सुप्रीम कोर्ट अरावली को फिर से ‘रिस्टोर’ कर पाएगा? वो 200 करोड़ साल पुराना अरावली है 75 साल पहले बने संविधान का अनुच्छेद नहीं जिसे बिगड़ जाने पर संशोधित किया जा सकेगा।
अरावली की मौत हुई तो न मोदी सरकार की माफ़ी से काम चलेगा, ना कोर्ट से आई फटकार से और न ही सबसे बड़ी संविधान पीठ के निर्माण से। सरकारें हमेशा लापरवाही करती रही हैं, देश पूरी तरह इनके भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है।
सरकारों ने पर्यावरण का हाल क्या किया?
एम सी मेहता (1985) और गोदावरम (1995) जैसे फैसलों और सुप्रीम कोर्ट की कड़ी निगरानी के बावजूद सरकारों ने पर्यावरण डिजास्टर करना बंद नहीं किया। सुप्रीम कोर्ट को ध्यान देना चाहिए। 2018 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाई गई एक कमेटी ने पाया कि अवैध खनन की वजह से राजस्थान स्थित 128 अरावली पहाड़ियों में से 31 गायब हो चुकी हैं और पहाड़ियों के बीच 10 से अधिक बड़े-बड़े गैप बन चुके हैं। खास बात यह है कि राजस्थान वह राज्य है जिसने अरावली की परिभाषा के लिए यही 100 मीटर वाला मानक स्वीकार कर रखा था। अब यही मानक पूरे अरावली के लिए स्वीकार कर लिया गया है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा इसको सहमति देना अरावली की हत्या की स्वीकृति है।सरकार और सुप्रीम कोर्ट को ऑस्ट्रेलिया की ग्रेट बैरियर रीफ का उदाहरण देखना चाहिए। किस तरह ऑस्ट्रेलिया की सरकार ने एकजुट होकर इसे बचाने की मुहिम चलाई। कितना भी आर्थिक नुकसान हुआ, उन्होंने इस क्षेत्र में लगभग सभी कोयला खदानों पर प्रतिबन्ध लगा दिया, और किसी भी नए खनन की अनुमति नहीं दी गई। गौतम अडानी की कोयला खदान को भी बंद कर दिया गया था। रीफ में सभी को सुरक्षा प्रदान की गई, सिर्फ़ ऊँचाई वाले इलाक़ों को नहीं। ग्रेट बैरियर रीफ को एक पारिस्थिकीय तंत्र के रूप में समझा गया जिसमें पेड़, पौधों, जानवरों, जल-निकायों आदि सभी को एक समझकर संरक्षित किया गया।
पर्यावरण-विकास के टकराव पर क्या रास्ता अपनाया जाये?
पर्यावरण और विकास के बीच किसी भी टकराव के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट को पर्यावरण का साथ देना चाहिए। सिर्फ़ सरकार के वादे के आधार पर सतत विकास को स्वीकार नहीं कर लेना चाहिए। इसके अलावा जब भी सरकार कोई भी वादा कोर्ट में आकर करे तो उससे सिर्फ़ इतना पूछना चाहिए कि डियर सरकार, दिल्ली की हवा कैसी है? उत्तर भारत की हवा कैसी है? जहरीले और कैंसर पैदा करने वाले PM2.5 कितना है? एयर प्यूरीफायर की बिक्री कितनी बढ़ी? जिनके पास ये प्यूरीफायर नहीं हैं उनका क्या होगा? सड़क पर सोने वाले भारतीय नागरिकों का क्या होगा? जाड़े में जिनके पास घर नहीं हैं उन परिवारों का क्या होगा? वो जो विषाक्त हवा ले रहे हैं उनका मिजाज़ कैसा है? अगर सरकार का मुंह बंद हो जाए या फिर कोई नया वादा सामने आ जाये तो सुप्रीम कोर्ट को सरकार को तब आने को कहना चाहिए जब हवा बेहतर करने का कोई एक्शन प्लान और परिणाम सामने हो!
सुप्रीम कोर्ट को यह बात कभी नहीं भूलनी चाहिए कि स्वच्छ पर्यावरण का अधिकार ‘जीवन का अधिकार’ है। जिसे संविधान हर हालत में नागरिकों को देने को बाध्य है, यह सुनिचित करना कि जीवन का अधिकार मिले सुप्रीम कोर्ट की बाध्यकारी जिम्मेदारी है। उसे ‘सतत खनन’ में सरकार को सहयोग देने से पहले यह सोचना होगा कि नागरिकों के जीवन का क्या होगा?