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प्रेस की आज़ादी खत्म करने के लिए प्रेस का ही इस्तेमाल 

सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म, जैसे-यूट्यूब और ट्विटर पर सरकार द्वारा आधिकारिक रूप से “इंडिया: द मोदी क्वेश्चन” नाम की बीबीसी द्वारा तैयार की गई डॉक्यूमेंट्री पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। यह डॉक्यूमेंट्री 2002 में हुए गुजरात दंगों में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भूमिका की पड़ताल करती है। वर्तमान सरकार को यह पड़ताल एक “प्रोपेगेंडा पीस” नजर आई। जबकि बीबीसी अपनी ‘पड़ताल’ के साथ खड़ी है चाहे उस पर कैसे भी आरोप लग रहे हों। बीबीसी का कहना है कि उसने आधिकारिक रूप से यह डॉक्यूमेंट्री भारत में कभी जारी नहीं की साथ ही न्यूजलॉन्ड्री को दिए एक ईमेल साक्षात्कार में बीबीसी ने कहा है कि “हमने डॉक्यूमेंट्री में उठाए गए मामलों पर भारत सरकार से जवाब की पेशकश की थी लेकिन उन्होंने अपना पक्ष रखने से इनकार कर दिया।”  

आश्चर्य की बात यह है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सरकार के मुखिया को कठघरे में खड़ी करती हुई एक डॉक्यूमेंट्री दुनिया की एक प्रतिष्ठित मीडिया प्लेटफॉर्म द्वारा जारी की जाती है और भारत सरकार ने उसका जवाब देने के बजाय तमाम सोशल मीडिया कंपनियों को यह आदेश/निवेदन जारी किया कि वे इस डॉक्यूमेंट्री से संबंधित सामग्री को प्रतिबंधित कर दें। 

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भारत की जनता ने 2014 के आम चुनावों में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को स्वीकार करते हुए भारतीय जनता पार्टी को बहुमत की सरकार प्रदान की। इसके 5 सालों बाद तमाम गलत राजनैतिक फ़ैसलों के बावजूद जनता ने उन्हे फिर से 2019 के आम चुनावों में बहुमत प्रदान किया। इसलिए उन्हे किसी ‘विदेशी’ या देसी मीडिया से डरने की कोई आवश्यकता नहीं है। भारत का संविधान भारत की जनता पर भारत के भविष्य को सुनिश्चित और सुरक्षित करने का वादा लेता है और भारत की जनता वर्तमान में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के साथ खड़ी दिख रही है। हाल ही में गणतंत्र दिवस के अवसर पर भारत की सामरिक शक्ति का प्रदर्शन भी सशक्त तरीके से किया गया है। यूके समेत दुनिया के तमाम देश जानते हैं कि 75 साल की आजाद उम्र का भारत दुनिया के किसी भी प्रोपेगैंडा का सामना कर सकता है। ऐसे में भारत सरकार को डर के  डॉक्यूमेंट्री को प्रतिबंधित करवाने की क्या जरूरत थी?

सरकार द्वारा डॉक्यूमेंट्री को प्रतिबंधित किए जाने की कार्यवाही, न चाहते हुए भी, यह संदेश दे रही है कि डॉक्यूमेंट्री में कुछ तो ऐसा है जिसे जनता के सामने नहीं आना चाहिए। अर्थात कुछ तो ऐसा है डॉक्यूमेंट्री में जो तत्कालीन विदेश मंत्री जैक स्ट्रॉ की बात को वजन दे सकता है। जैक स्ट्रॉ का मानना था कि उन दंगों के लिए नरेंद्र मोदी जिम्मेदार थे।

जबकि मैं ऐसा नहीं मानती क्योंकि इस देश का सर्वोच्च न्यायालय नरेंद्र मोदी को इस मामले में क्लीन चिट दे चुका है। यदि देश की सर्वोच्च अदालत और संविधान का अभिरक्षक किसी व्यक्ति को दोषी मानने से इंकार कर देता है तो उस व्यक्ति को दोषी नहीं माना जाना चाहिए। यह अलग बात है कि यही भारत का संविधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (अनुच्छेद-19) और प्रेस की स्वतंत्रता(अनुच्छेद-21) को भी कभी न खत्म किया जाने वाला अधिकार प्रदान करता है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बनाई गई SIT (जिसने नरेंद्र मोदी को क्लीन चिट दी) के लगभग सभी सदस्यों को शानदार नियुक्तियाँ मिलीं और उनका करिअर बिना किसी रुकावट के अपने उच्चतम शिखर पर पहुँचा जबकि कुछ लोग जिन्होंने इस कमेटी के समक्ष विरोधाभाषी तथ्य रखने की कोशिश की वो वर्षों से जेल में बंद हैं। ऐसे में कुछ लोग यह राय भी रख सकते हैं कि शायद नरेंद्र मोदी दोषी हैं या यह भी कि शायद न्यायालय से कोई गलती हो गई हो। अलग राय रखे जाने का अधिकार नैसर्गिक अधिकार भी है और मूल अधिकार भी। 

लेकिन अंतिम मान्य विचार यही है कि नरेंद्र मोदी को गुजरात दंगों के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता। परंतु इसका मतलब यह नहीं कि इस विचार से सहमति न रखने वाले विचार को प्रतिबंधित कर दिया जाए या ऐसी राय रखने वाले लोगों को जेलों में डाल दिया जाए। जब अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति के घर की तलाशी वहाँ की शीर्ष जांच एजेंसी एफ़बीआई ले सकती है तो भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री पर एक अलग ‘राय’ रखने वाली डॉक्यूमेंट्री क्यों नहीं दिखाई जा सकती है? ऐसा करने से भारत की कमजोर छवि बन रही है जोकि ठीक नहीं है। भारत सरकार को बार बार यह साबित करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए कि ‘रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स’ द्वारा तैयार किए जाने वाले प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत का लगातार गिरता प्रदर्शन एक वास्तविकता है। इस इंडेक्स में भारत लगातार 2016 से नीचे ही जा रहा है। जहां वर्ष 2016 में भारत का स्थान 133वां था वहीं 2022 में अब यह लुढ़ककर 150वें स्थान पर आ चुका है। शायद ही देश का कोई बड़ा क्रांतिकारी और आजादी का सिपाही प्रेस और पत्रकारिता से न जुड़ा रहा हो, फिर चाहे बात महात्मा गाँधी की हो या सरदार पटेल, नेहरू, सुभाष चंद्र बोस या भगत सिंह की। लेकिन आज दुर्भाग्य यह है कि प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में भारत की तुलना पाकिस्तान, म्यांमार, बांग्लादेश, श्रीलंका और रूस से हो रही है।
2022 के प्रेस फ्रीडम इंडेक्स की थीम थी- “डिजिटल घेराबंदी के अंदर पत्रकारिता”। 3 मई को जब यह इंडेक्स जारी हुआ तब तक बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री की कोई खबर नहीं थी। लेकिन ‘रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स’ का शक सही साबित हुआ।

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में एक शक्तिशाली सरकार द्वारा एक डॉक्यूमेंट्री को महज इसलिए प्रतिबंधित कर दिया गया क्योंकि सरकार इससे ‘असहज’ महसूस’ कर रही थी। भारत सरकार के लिए असहजता के आधार पर निर्णय लेना बड़ी सामान्य बात हो गई है।


उदाहरण के लिए सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने केंद्र सरकार की उन आपत्तियों को जनता के सामने ला दिया है जिन्हे सरकार ने तब उठाया था जब कॉलेजियम द्वारा उच्च न्यायालयों में नियुक्ति के लिए जजों के नाम भेजे गए थे। एडवोकेट आर जॉन सत्यन की मद्रास हाई कोर्ट में नियुक्ति की सिफारिश का सरकार ने इसलिए विरोध किया क्योंकि उन्होंने “द क्विंट' में प्रकाशित एक लेख को साझा किया है, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना करता है”। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना करना न ही जज बनने के लिए अयोग्यता हो सकती है और न ही उनका समर्थन करना कोई योग्यता। 

सरकार के मुखिया की आलोचना से प्रेरित होकर कोई महत्वपूर्ण निर्णय लेना ऐसे देश के लिए घातक है जहां ‘कानून के शासन’ पर भरोसा किया जाता है। लेकिन सरकार द्वारा लिए जा रहे निर्णय इस सिद्धांत पर भरोसा करने वाले नहीं लग रहे हैं।   

प्रेस की स्वतंत्रता को इस वक्त सबसे बड़ा खतरा उस मानसिकता से है जिसमें सरकार और कॉर्पोरेट द्वारा मिलकर डिजिटल स्पेस को लगातार ‘कंट्रोल’ किया जाना है। प्रतिष्ठित अमेरिकी न्यूज वेबसाइट, द इन्टर्सेप्ट की मानें तो ट्विटर के मालिक जिन्होंने ट्विटर को खरीदते समय यह दावा किया था कि वह “निरंकुशता” की हद तक जाकर “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” को बढ़ावा देंगे,पर उनके प्लेटफॉर्म ने भारत सरकार के पहले निवेदन पर ही इस डॉक्यूमेंट्री को ट्विटर से प्रतिबंधित कर दिया।

बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री से सहमति न रखना पूर्णतया कानूनसम्मत और संवैधानिक है। लेकिन यदि किसी देश के मीडिया संस्थान ही प्रेस की स्वतंत्रता के खिलाफ खड़े हो जाएँ तो क्या उन्हे ‘प्रेस’ की परिभाषा के दायरे में भी लाया जा सकता है? भारत का ‘सबसे तेज चैनल’ खुलेआम अपने प्राइमटाइम शो में इस बात पर प्रश्न उठाता है कि यदि ‘मुट्ठी भर लोग’ इस डॉक्यूमेंट्री को देखना चाहते हैं तो क्या उन्हे इजाजत दी जाए? क्या ऐसे चैनल को ‘प्रेस’ कहा जा सकता है? कुछ लोग ऐसा कहने को भी ‘प्रेस की आजादी’ कहने से नहीं चूकेंगे। लेकिन मैं इन्हे ‘प्रोपेगैंडा मशीन’ मानती हूँ। 

ऐसा ही कुछ ‘वैनटेज’ कार्यक्रम के माध्यम से करने की कोशिश की गई। यह एक न्यूज वेबसाइट, फर्स्टपोस्ट, का कार्यक्रम है जिसका उद्देश्य वैश्विक घटनाओं पर कार्यक्रम करना प्रतीत होता है। काफी गाजे बाजे के साथ इस कार्यक्रम की शुरुआत की गई। देश के तमाम बड़े अंग्रेजी अखबारों में पूरे पहले पेज पर इसका प्रचार किया गया। ‘ट्विटर-ट्रेंड्ज’ पर इस कार्यक्रम विशेष का विज्ञापन दिया गया। विज्ञापन के मूल्यों पर नजर रखने वाली एक वेबसाइट के मुताबिक यदि ट्विटर पर कोई खबर विज्ञापन के माध्यम से ट्रेंड करवानी है तो इसमें औसतन 2 लाख डॉलर अर्थात लगभग एक करोड़ 63 लाख रुपये का खर्च आता है। इस कार्यक्रम के एक अन्य विज्ञापन में 20-30 लाख व्यूज़् भी देखे गए। ट्विटर अपने विज्ञापन दाताओं से प्रत्येक ‘ऐक्शन’ के आधार पर कीमत वसूलता है। यह ऐक्शन- लाइक, रीट्वीट और लिंक क्लिक के रूप में हो सकता है। प्रत्येक ऐक्शन पर 40 रुपये से लेकर 163 रुपये के बीच कीमत चुकानी होती है। 20 से 30 लाख की संख्या में देखे गए इस प्रमोटेड ट्वीट में कंपनी को कितनी कीमत चुकानी पड़ी होगी इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।

फर्स्टपोस्ट ने इससे पहले किसी अन्य कार्यक्रम का इतना प्रचार नहीं किया। जबकि महिलाओं से संबंधित एक कार्यक्रम ‘9 months’ एक अच्छा कार्यक्रम है। मुझे नहीं पता ऐसा क्यों किया होगा।

इस ‘वैनटेज ’ कार्यक्रम का पहला शो न सिर्फ प्रतिबंधित बीबीसी डॉक्यूमेंट्री की आलोचना करता है बल्कि संस्थान के रूप में बीबीसी की विश्वसनीयता को भी कठघरे में खड़ा करता है। और शो के अंत में इस कार्यक्रम की ऐंकर बीबीसी के लिए उनके देश से संबंधित मुद्दों पर डॉक्यूमेंट्री बनाने के लिए एक ‘लिस्ट’ थमा देती हैं। पूरा कार्यक्रम विचारधारात्मक रूप से आवेशित और बचाव की मुद्रा में नजर आता है। 

कोई यह कह सकता है कि ऐसे कार्यक्रम ‘प्रेस की आजादी’ का हिस्सा हैं! लेकिन मैं नहीं मानती कि ऐसा कृत्य प्रेस की आजादी का हिस्सा है। इसके लिए एक बार फिर से 1973 के केशवानंद भारती निर्णय को याद करना चाहिए। इस निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि “संविधान का इस्तेमाल संविधान को खत्म करने के लिए नहीं किया जा सकता” और इस तरह सर्वोच्च न्यायालय ने ‘मूलभूत ढांचे’ के सिद्धांत के तहत ही संविधान संशोधन की इजाजत दी थी। इसी तरह ‘प्रेस’ का इस्तेमाल ‘प्रेस की आजादी’ को खत्म करने के लिए नहीं किया जा सकता।

चाहे भारतीय हों या विदेशी, एक उद्योगपति एक बड़ी कंपनी बना सकता है, उससे अच्छा मुनाफा कमा सकता है, फ्री का इंटरनेट बाँट सकता है, तकनीकी रूप से दूरदर्शी एक उद्योगपति एक भविषयोन्मुखी कार या रॉकेट बना सकता है और हो सकता है कि वह एक दिन लोगों को मंगल ग्रह की यात्रा भी करवा दे लेकिन लोकतंत्र के महीन धागे शताब्दियों में निर्मित होते हैं। वह यदि एक बार उधड़ना शुरू हो जाएँ तो उन्हे किसी फैक्ट्री में ठीक नहीं किया जा सकता। दुनिया के किसी भी देश में स्थापित और सफलतापूर्वक संचालित लोकतंत्र संघर्ष और शहादत का परिणाम है। लोकतंत्र के सवालों के जवाब ‘ChatGPT’ में नहीं लोगों द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों की जवाबदेहियों में निहित होते हैं और यह जवाबदेही सुनिश्चित करने का काम स्वतंत्र प्रेस, स्वतंत्र न्यायपालिका और जनता मिलकर करते हैं। यदि कोई अन्य संस्था, संगठन, व्यक्ति या प्लेटफॉर्म इसमें बाधा पहुंचाने का कार्य करता है तो उसे संवैधानिक तरीके से जवाब दिया जाना चाहिए। 

कॉंग्रेस के वरिष्ठ नेता और केरल के पूर्व मुख्यमंत्री ए के एंटनी के बेटे अनिल एंटनी ने काँग्रेस से यह कहते हुए इस्तीफा दे दिया कि "हमारी आजादी के 75 वें वर्ष में, हमें विदेशियों या उनके संस्थानों को हमारी संप्रभुता को कम करने की इजाजत नहीं देनी चाहिए।" स्वयं एक विदेशी संस्थान से पढ़कर भारत लौटे अनिल एंटनी को मीडिया की स्वतंत्रता से ज्यादा दिलचस्पी देसी और विदेशी मीडिया की बहस में है। उन्हे लगता है कि "ब्रिटिश ब्रॉडकास्टर के विचारों को भारतीय संस्थानों पर तरजीह देना, देश की संप्रभुता को 'कमजोर' करेगा"। जबकि भारत की संप्रभुता को कमजोर करती है लोगों की अपनी नागरिक चेतना को सुला देने की प्रवृत्ति...


बाहर से पढ़कर भारत लौटे अनिल यह समझने में विफल रहे हैं कि कोई डॉक्यूमेंट्री, फिल्म, विचार या संगठन भारत को अस्थिर नहीं कर सकते। शायद कुछ लोग भारत निर्माण के ‘फैब्रिक’ को नहीं समझ पाए। क्योंकि न ही उन्होंने भारत को बनाया और न बनते देखा और न ही इसकी बनावट की सही पड़ताल की। इसीलिए उन्हे लगता है कि कोई किताब या कोई फिल्म भारत को तोड़ देगी। 

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दशकों से माओवादी/नक्सलवादी भारत के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष चला रहे हैं, पड़ोसी देश पाकिस्तान, आतंकवादियों का लगातार ‘एक्सपोर्ट’ कर रहा है, कई युगांतरकारी सामाजिक और आर्थिक संकट सहन कर चुका भारत यदि तब अस्थिर नहीं हुआ तो एक डॉक्यूमेंट्री से कैसे होगा? भारत की नींव मजबूत संवैधानिक ढांचे में स्थित है, जिसने स्वतंत्र प्रेस और न्यायपलिका को जन्म दिया है। 

भारत का अब अस्थिर होना लगभग असंभव है और भविष्य में यदि कभी यह संभव हुआ तो उसके पीछे कारण जनता के विश्वास से चुनी हुई सरकार होगी जो एक-एक करके संस्थाओं की ‘पारस्परिक हत्या’ को प्रोत्साहित करेगी। पारस्परिक हत्या अर्थात, प्रेस के माध्यम से प्रेस की हत्या, न्यायपालिका के माध्यम से न्यायपालिका की हत्या और अंततः संविधान के माध्यम से संविधान की हत्या। यदि यह रोका जा सका तो भारत को अस्थिर करने के सभी प्रयास विफल ही होंगे।

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वंदिता मिश्रा
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