क्या भारत के लोगों को अपने संवैधानिक अधिकारों की माँग करने के पहले ख़ुद के राष्ट्रभक्त होने का प्रमाण पेश करना होगा? क्या उन्हें यह बार-बार बतलाना होगा कि उन्होंने इस देश या राष्ट्र के लिए क्या क्या किया है और तभी वे अपने अधिकारों की पात्रता हासिल कर सकेंगे? यह प्रमाण पत्र कौन देगा? और क्या इसमें दर्ज़ाबंदी भी होगी? यानी कुछ का योगदान अधिक और कुछ का उनसे कम? क्या इसके आधार पर तय होगा कि कौन कितना अधिकार माँग सकता है?
या उस व्यक्ति का अधिकार अधिक होगा जिसने सरहद पर फ़ौज में काम किया है? या जिसने कुछ आविष्कार किए हैं और पेटेंट हासिल किए हैं जिनसे देश की अर्थव्यवस्था को फ़ायदा पहुँचा हो या जिससे देश का नाम दुनिया में ऊँचा हुआ हो? क्या अधिकार माँगने के पहले किसी सत्ता से ‘अच्छे चरित्र’ का प्रमाण लेना होगा या सामाजिक उपयोगिता का या इसका कि सांस्कृतिक तौर पर हम बहुसंख्यक समुदाय के अंग हैं?
क्या राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से ‘संवेदनशील’ इलाके के लोगों के अधिकार सीमित रहेंगे क्योंकि वे सरहद पर हैं? यह सरकार तय करेगी कि उनके अधिकार और राज्य के अधिकार में किस प्रकार का संतुलन होना चाहिए?
लद्धाख को पूर्ण राज्य का दर्जा, छठी अनुसूची के अंतर्गत सुरक्षा और स्वायत्तता की माँग को लेकर चल रहे आंदोलन का नेतृत्व कर रहे सोनम वांगचुक को गिरफ़्तार किए जाने के बाद नए सिरे से इन सवालों पर विचार करने की ज़रूरत है।सोनम को गिरफ़्तार करते ही लद्दाख के सर्वोच्च पुलिस अधिकारी ने कहा कि उनके रिश्ते सीमा पार पाकिस्तान से हैं और इसलिए वे संदिग्ध हैं। इशारा यह था कि संभवतः उनका आंदोलन पाकिस्तान से प्रेरित है। ध्यान रहे, माँग प्रदेश की स्वायत्तता , प्राकृतिक संसाधनों को अतिरिक्त सुरक्षा और देश के बाक़ी हिस्सों जैसे ही नागरिक अधिकारों की है।क्या पाकिस्तान के इशारे के बाद लद्धाख के लोग अपने अधिकारों के प्रति सजग हुए हैं?
क्या लद्धाख के लोगों को इसका अधिकार नहीं कि उनके चुने हुए प्रतिनिधि उनके क्षेत्र के लिए नीतियाँ बनाएँ? क्या उनका यह अधिकार नहीं कि बिहार या असम की तरह वे अपना शासन ख़ुद चलाएँ? अलावा इसके क्या उन्हें इसका अधिकार नहीं कि उनके संसाधन किस प्रकार इस्तेमाल हों,यह वे तय करें?
भारत के दूसरे हिस्सों के लोगों को जो अधिकार सहज ही सुलभ हैं,लद्धाख के लोग अगर उनकी माँग कर रहे हैं तो वह राष्ट्रविरोधी क्योंकर है? क्या उस इलाक़े के संसाधनों का प्रबंधन उस इलाक़े के लोगों के प्रतिनिधियों से बेहतर संघीय सरकार के प्रतिनिधि करेंगे? क्या उनमें पर्याप्त बुद्धि नहीं है ? या देश के बाक़ी लोगों के मुक़ाबले उनमें उत्तरदायित्व का बोध कम है? क्या उन्हें संघीय सरकार के अभिभावकत्व की ज़रूरत है? क्या उनका अपराध यह है कि वे उस इलाक़े में हैं जहाँ आकर इत्तफ़ाक़ से भारत नामक राष्ट्र राज्य को दूसरे राष्ट्र राज्य से अलग करनेवाली सीमा रेखा गुजरती है?
लद्धाख के जन आंदोलन का दमन करने के लिए प्रायः वे ही तर्क इस्तेमाल किए जा रहे हैं जो उसके पहले के आंदोलनों को कुचलने के लिए इस्तेमाल किए गए हैं। इसके लिए हमेशा आंदोलन के नेतृत्व को आंदोलनकारी जनता से अलग किया जाता है। फिर नेतृत्व पर आरोप लगाया जाता है कि उसके इरादे कुछ और हैं और वह जनता को गुमराह कर रहा है। सोनम वांगचुक के संस्थान के बारे में यह आरोप लगाया जा रहा है कि उसने विदेशी सहायता ली थी, जिसका मतलब यह है कि उनकी वफ़ादारी पर शक करने की वजह है।वे पाकिस्तान गए थे, इससे भी उन पर संदेह पैदा होना चाहिए!
कुछ इसी तरह की बात इसके पहले किसान आंदोलन के बारे में भी की गई थी। उनके नेतृत्व पर ख़ालिस्तानी होने का इल्ज़ाम लगाया था। पूरे देश में उस आंदोलन को बदनाम करने के लिए ख़ालिस्तानी और पाकिस्तानी संबंध का आरोप उसपर लगाया गया। दूसरा आरोप यह था कि ये तो खाते पीते लोग हैं, फिर इन्हें आंदोलन करने का अधिकार कैसे दिया जा सकता है?
उसके पहले नागरिकता के क़ानून में संशोधन के ख़िलाफ़ जब आंदोलन शुरू हुआ तो उसपर भी राष्ट्रविरोधी होने का ठप्पा लगा दिया गया। वैसे भी मुसलमान तो कोई अधिकार माँग ही नहीं सकते क्योंकि पाकिस्तान तो दिया ही जा चुका है! हम यह याद करें कि जब छात्रों ने अपनी छात्रवृत्ति आदि को लेकर आंदोलन किया तो कहा गया कि वे करदाताओं के पैसे पर वक्त बर्बाद कर रहे हैं और उन्हें कुछ भी माँग करने का अधिकार नहीं।
अधिकार माँगने का अधिकार किसको है? वह माँग किस रास्ते की जाए कि उसे वैध माना जाएगा? सोनम वांगचुक और लद्धाख के लोग सबसे अहिंसक तरीक़े से अपनी माँग पर ज़ोर डाल रहे थे। सोनम और उनके कुछ सहयोगी संघीय सरकार पर दबाव डालने के लिए कोई ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं कर रहे थे। लंबा उपवास करके वे ख़ुद को ही कष्ट में डाल रहे थे। वे संघीय सरकार पर एक नैतिक दबाव डालने की कोशिश कर रहे थे। लंबे समय तक संघीय सरकार ने इसे नज़रंदाज़ किया। इस बीच सोनम के स्कूल की ज़मीन वापस ले ली और उनके संस्थान के आर्थिक स्रोत बंद करने की कोशिश की। इससे लद्धाख के लोगों में रोष बढ़ना स्वाभाविक था। जब उनके सब्र का बाँध टूट गया तो कुछ लोग सड़क पर निकल आए और हिंसा हुई।
सरकार कह रही है कि इस हिंसा की ज़िम्मेवारी सोनम की है।यही आरोप सी ए ए के विरोध में चलनेवाले आंदोलन के नेतृत्व पर भी लगाया गया है। वह यह भी कह रही है कि सोनम के इरादे कुछ और हैं और वे बेचारी जनता को गुमराह कर रहे हैं। उन्हें न सिर्फ़ गिरफ़्तार कर लिया गया है बल्कि लद्धाख से दूर जोधपुर ले जाया गया है।
सोनम वांगचुक की पत्नी गीतांजलि आंगमो ने अपने पति के साथ राज्य के बर्ताव की आलोचना की। उन्होंने कहा, “आज, उनकी पत्नी से भी अधिक, एक भारतीय के रूप में मुझे अत्यंत पीड़ा हुई है, क्योंकि वे तो बाहर हमारे देश का गर्व बढ़ा रहे थे।वे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री, नवाचारी, पर्यावरण के लिए काम करनेवाले रहे हैं, जिन्होंने अपने पूरे जीवन को देश के लिए समर्पित कर दिया है। वे एक देशभक्त हैं, जिन्होंने भारतीय सेना की जीवन-स्थितियों को बेहतर बनाने के लिए काम किया और लोगों को चीनी किताबें पढ़ने और चीनी उत्पादों का उपयोग करने से हतोत्साहित किया।”
गीतांजलि अपने पति के पक्ष में बोलते हुए उनके राष्ट्रवादी पक्ष पर ज़ोर डाल रही हैं। उन्होंने अपन लोगों को चीनी किताबें पढ़ने तक से रोका और सेना के लिए भी काम किया। फिर भी उनके साथ ऐसा बर्ताव कितना उचित है?
लद्धाख के लोगों को अपने अधिकार के लिए बोलने का अधिकार है क्योंकि वे सीमा की रक्षा करते हैं: यह तर्क भी इस बीच सुना गया है। लेकिन यह सारा तर्क लोगों के अधिकार को जायज़ ठहराने के लिए कुछ शर्तों की ज़रूरत को क़बूल करता है। सरहद की हिफ़ाज़त, देश को आर्थिक लाभ पहुँचाना, देशभक्ति, आदि वे शर्तें हैं जो अधिकार की माँग करने के पहले पूरी की जानी हैं। लेकिन लोगों के अधिकारों की समझ कुछ और कहती है। अधिकार किसी भी राष्ट्रवादी सीमा से सीमित नहीं , किसी बहुसंख्यकवादी सांस्कृतिक भाषा से परिभाषित नहीं।राज्य अधिकार नहीं देता। उसका काम उनकी उनकी रक्षा करने का है।
पिछले कुछ वर्षों में अधिकारों के लिए होनेवाले आंदोलनों को लेकर संदेह पैदा किए जाते रहे हैं। आख़िर एक आज़ाद मुल्क में आंदोलन का क्या ज़रूरत है? अगर एक चुनी हुई सरकार है तो वह क़ानून बना कर यह काम कर ही सकती है। आख़िर वह बहुमत का प्रतिनिधित्व करती है। लेकिन उपेंद्र बख्शी कहते हैं कि अगर राज्य अधिकार देगा तो वह उसे ले भी सकता है। असल में अधिकार लोगों का राज्य के ख़िलाफ़ नैतिक दावा है। वे कहते हैं कि अधिकार नैतिक शुद्धता, आज्ञाकारिता या नागरिकता का भी मुँहताज नहीं।उनके लिए कोई भी शर्त लगाई नहीं जा सकती।
भारत के एक हिस्से में, और वह ‘हिंदी भाषी’ प्रदेश है, किसी भी जन आंदोलन को लेकर आशंका और संदेह पाया जाता है। कुकी-जो लोगों का आंदोलन या लद्धाख के लोगों का आंदोलन, हिंदी भाषियों के लोगों को हैरान करता है। चुनी हुई सरकार जब है ही, तो आंदोलन का क्या मतलब? लेकिन बख्शी कहते हैं कि अधिकार हमेशा संघर्षों में ही मायने हासिल करते हैं।
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सरकार जब किसी आंदोलन पर राष्ट्र विरोधी होने का आरोप लगाती है तो वह उस जनता को उसके ख़िलाफ़ खड़ा करती है जो ख़ुद को स्वाभाविक तौर पर राष्ट्रवादी मानती है। ऐसी स्थिति में ख़ुद को बार-बार राष्ट्रवादी कहने से कोई फ़र्क नहीं पड़ता। क्योंकि जो कल तक राष्ट्रवादी था, वह आज राष्ट्रविरोधी क्यों नहीं हो सकता? इसलिए अपने अधिकार की माँग करते वक्त राष्ट्र ध्वज उठाने और राष्ट्रगान गाने का न तो कोई लाभ है और उसकी कोई ज़रूरत भी नहीं है।