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प्रतीकात्मक तस्वीर।

राज्याश्रय से धर्म में क्या विकृति आती है!

मेरे बचपन में जो बिना तिरंगे के मात्र गंगाजल लेकर शिव के पास जाते थे, क्या वे कम भारतप्रेमी थे? लेकिन उन्हें पता था कि यह अवसर उनके और बाबा एक बीच का है, इसमें राष्ट्र का हस्तक्षेप क्योंकर हो? भोलाबाबा क्या सिर्फ़ तिरंगा लेकर आनेवालों का जल स्वीकार करेंगे?
अपूर्वानंद

बीते शनिवार को मेरठ के रौली चौहान नामक गाँव के पास बिजली के तार से डी जे ट्रक के सट जाने से 5 काँवड़ियों की मौत हो गई। उनमें एक 8 साल का बच्चा भी था। और 2 हस्पताल में हैं। इसके पहले दिल्ली से बाहर सड़क दुर्घटना में 5 काँवड़ियों की मौत हो गई थी। इस तरह की खबर पिछले सालों में भी मिलती रही है। ख़ासकर डी जे ट्रक के कारण होनेवाली दुर्घटनाओं की। शहरों में तो इन ट्रकों की रफ़्तार कम रहती है या वे ख़ुद जानबूझ कर बहुत धीरे चलते हैं ताकि भक्ति का प्रसाद शहर के उन लोगों को भी मिल सके जो इस काँवड़ यात्रा में शामिल नहीं हैं। लेकिन राजमार्गों पर दूसरी गाड़ियों से टक्कर की आशंका बनी रहती है। जो लोग काँवड़ियों से क्षुब्ध रहते हैं, उन्हें यह अहसास होना चाहिए कि यह यात्रा ख़तरे से ख़ाली नहीं और हर साल कुछ शिवभक्त रास्ते में ही शहीद हो जाते हैं।

तलाश करने पर भी मुझे पैदल चलनेवाले काँवड़ियों में किसी की मौत की ख़बर नहीं मिली। बिहार का होने की वजह से मुझे सुल्तानगंज से देवघर जल लेकर बाबा भोलेनाथ का अभिषेक करनेवालों के कष्ट का तो अन्दाज़ रहा है। उनके तलवों में छाले पड़ जाते थे या वे रास्ते से कंकड़ पत्थर से लहूलुहान भी हो जाते थे लेकिन किसी की मौत उसके कारण नहीं हुई।  यह होना शुरू हुआ जब पाँव का सहारा छोड़कर ट्रक, टेम्पो, मोटरसाइकिल आदि को पैदल काँवड़ यात्रियों के साथ शामिल कर लिया गया। 

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इसके चलते ताक़त का अहसास बढ़ा। गति और तेज संगीत से जोश भी आता है। इन दोनों के योग से भक्ति में कितनी वृद्धि होती है, इसका अध्ययन नहीं किया गया है। लेकिन शायद इससे रास्ता काटने में मदद मिलती है। कई लोगों की शिकायत यह है कि यह धार्मिकता के माहौल को दूषित करता है। यह आध्यात्मिक अनुभवों में बाधा है। लेकिन यह धर्म की सीमित और संकुचित समझ है। धर्म से आनंद के तत्व को पूरी तरह अलग कर देना संभव नहीं। यह कितना उचित है, इसपर भी विचार किया जाना चाहिए। धर्म भी आख़िरकार एक सांसारिक अनुभव है। इसलिए संगीत या नृत्य को आध्यात्मिकता से अलग करना मुमकिन नहीं है। वह किस क़िस्म का हो, इसे लेकर बहस हो सकती है लेकिन जो धार्मिक अनुभव की प्राप्ति के लिए इतना कष्ट उठाते हैं, वे साथ में इस मज़े को बुरा नहीं मानते। 

सावन का महीना आते ही दिल्ली और आस पास के इलाक़ों में दहशत भरने लगती है। आधी रात डी जे के तेज संगीत या शोर के मारे खिड़कियाँ हिलने लगती हैं, सड़कें आधी रह जाती हैं, देर देर तक सड़क जाम की मानसिक तैयारी करके लोग घरों से निकलते हैं। किसी तरह यह महीना कट जाए, ऐसा कहनेवाले लोग मिल जाएँगे। लेकिन ऐसे लोग भी हैं जो यह कहते हैं कि काँवड़िए एक धार्मिक मक़सद पूरा कर रहे हैं। वह सिर्फ़ उनके लिए नहीं है। वह हम सबके लिए है और उनके श्रम का लाभ हम सबको मिलेगा क्योंकि जो पुण्य लाभ सब करेंगे।

ऐसे लोग भी हैं जो यह मानते हैं कि काँवड़िए उपद्रव भी करते हैं। वे गंदगी भी फैलाते हैं। लेकिन वे उन्हें धर्म रक्षक भीड़ कहते हैं। सैंकड़ों साल से जो हिंदू बल दबा हुआ था, वह अब खुलकर ज़ाहिर हो रहा है। 1000 साल से जो सड़कें हिंदुओं के हाथ से बाहर चली गई थीं उनपर ये काँवड़िए उनके लिए ही अधिकार जमा रहे हैं। इसलिए भले उनका उपद्रव बुरा लग रहा हो, उसे बर्दाश्त करना चाहिए।

सावन में उनका अधिकार सड़क पर पहले है। अभी पिछले हफ़्ते एक कार के काँवड़ के छू जाने के चलते काँवड़ियों ने कारवाले की जमकर पिटाई कर दी। ग़लतफ़हमी उनकी टोपी ने पैदा की। काँवड़ियों को लगा कि वे मुसलमान हैं। लेकिन यह भी कहा जा सकता है कि यह तो किसी भी समूह की मानसिकता है।

इसका दोष काँवड़ियों पर काँवड़िया होने के कारण नहीं लगाया जा सकता। किसी दूसरी अवस्था में भी वे ऐसा ही बर्ताव करते। ऐसा करने के लिए उनके कँधे पर काँवड़ का होना ज़रूरी नहीं।

डीजेवादी काँवड़ियों से खीझते हुए भी यह देखा जा सकता है कि धीरे-धीरे लचकती काँवड़ को सँभालते हुए और अपने तलवों के छालों के बावजूद श्रद्धालु सर झुकाए जा रहे हैं। उनसे बेपरवाह जो इस बीच तेज मोटरसाइकिलों पर यह यात्रा पूरी कर रहे हैं। या उन्हें देखने की फुर्सत भी कहाँ जो एक रिले दौड़ कर रहे हैं।

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कुछ ट्रकों पर तिरंगे लिपटे हैं। कुछ की काँवड़ में तिरंगे लगे हैं। काँवड़ यात्रा का राष्ट्रवादीकरण इधर की घटना है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हर धार्मिक अवसर को अपने राष्ट्रवाद का क़ैदी बनाना चाहता है। यह बीमारी भी उत्तर भारत की ही है। मेरे बचपन में जो बिना तिरंगे के मात्र गंगाजल लेकर शिव के पास जाते थे, क्या वे कम भारतप्रेमी थे? लेकिन उन्हें पता था कि यह अवसर उनके और बाबा एक बीच का है, इसमें राष्ट्र का हस्तक्षेप क्योंकर हो? भोलाबाबा क्या सिर्फ़ तिरंगा लेकर आनेवालों का जल स्वीकार करेंगे? वे तो तीनों लोक के स्वामी ठहरे, उन्हें किसी एक राष्ट्र की सीमा में कैसे बाँधा जा सकता है। लेकिन शायद भारतीय जनता पार्टी की असुरक्षा इतनी अधिक है कि वह हर देवी-देवता को राष्ट्रीय ध्वज ओढ़ाकर अपने बस में कर लेना चाहती है।

वह शिव को जैसे क़ब्ज़े में करना चाहती है, वैसे ही शिव के भक्तों पर पुष्पवर्षा करके यह बतलाना चाहती है कि वे इस राष्ट्र और राज्य के ख़ास हैं। क्या वह अकेला काँवड़िया जो इस फूल, शोर से अलग चला जा रहा है, इसके बारे में कभी कुछ सोचता है? क्या वह इस पर विचार करेगा कि राज्याश्रय से धर्म में क्या विकृति आती है?

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