आज सप्तमी है। कल षष्ठी थी। दुर्गा के पट खुल गए होंगे। और उलटी गिनती भी शुरू हो गई है। दुर्गा के मायके से वापस अपने घर यानी पति शिव के पास लौटने की घड़ी क़रीब आती जा रही है। महालया से षष्ठी बेटी के मायके आने की उत्सुकता के दिन हैं। उसके बाद उसके अपने पतिगृह लौट जाने की अनिवार्यता का सामना करने की हिम्मत जुटाने का समय है।
दुर्गा पूजा से मेरी बचपन की यादें जुड़ी हुई हैं। अम्मी सुबह-सुबह स्नान करके चण्डीपाठ करती थीं। दुर्गा सप्तशती की प्रति वर्षों से इन दिनों में रोज़ पन्ने पलटने के कारण जीर्ण हो चली थी। आँखें बंद करके पाठ करते हुए अम्मी के मुख पर एक प्रकार की विह्वलता प्रभावित करती थी। दीर्घ और सघन केशराशि से तुरत नहाए होने के कारण पानी की बूँदें लटकती रहती थीं। उस समय उपासना में लीन माँ दुर्गा से क्या बात करती होगी? सीवान के हमारे बहुत छोटे से मकान में एक कोने में यह सारा आयोजन होता था। उड़हुल के रक्त पुष्प अवश्य लाए जाते थे। अब याद नहीं रह गया है कि इसमें हमारा कितना उद्योग हुआ करता था।
बाद में  जब चंडीगढ़ में बड़े बेटे-बहू  का घर क्रमशः बड़ा होता गया तो अम्मी के देवी देवताओं के लिए एक स्थान बनने लगा। जीवन के अंतिम काल में जब बहू-बेटे ने अपना घर बनाया तो अम्मी के देवलोक के लिए एक कमरा मिल गया।देवियों-देवताओं की  संख्या भी बढ़ती गई। हम मजाक में कहते थे कि अम्मी के देवी देवताओं का कुनबा बड़ा ही होता जाता है। राम को भी वहाँ जगह मिल गई थी लेकिन बहुत बाद में। वहाँ भी दुर्गा पूजा के समय अम्मी का पाठ जारी रहा। अगरबत्ती और धूप की गंध से घर के वातावरण में कुछ बदलाव आ जाता था। वह घर के रोज़मर्रापन को अपनी पवित्रता से पोंछ देता था।
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अपने शहर सीवान में भी पूजा धूमधाम से हुआ करती थी, लेकिन हम उसे देवघर की पूजा के मुक़ाबले हल्का समझते थे। कई बार छुट्टियों में अपनी अम्मी-बाबूजी के घर, अपने घर देवघर जाने पर पंडाल-पंडाल घूमते हुए हम दुर्गा की प्रतिमाओं की तुलना करते थे। प्रत्येक पंडाल की दुर्गा का व्यक्तित्व अलग हुआ करता था। हरेक के चेहरे का भाव अलग हुआ करता था। वह महिषासुरमर्दिनी थी अवश्य, लेकिन उसके उस पक्ष से ज़्यादा मेना की पुत्री उमा, दुर्गा का चित्र हमारे मन में खिंचा हुआ था। देवघर के  पंडालों में कुछ ऐसे देवी उपासक थे जो पहले दिन से पाठ किया करते थे। अष्टमी और नवमी को उनकी आँखों से पाठ करते समय आँसू झरते देख आश्चर्य भी होता था। माँ यानी पुत्री दुर्गा के वापस चले जाने के ख़याल से विचलित भक्त के आँसुओं से बचपन में कौतुक का भाव जगता था। बाद में समर्पण और कायांतरण की इस प्रक्रिया पर सोचने का यह एक अवसर बन गया। 
अम्मी भी दुर्गा पंडाल अवश्य जाती थीं। ढाक की ध्वनि के साथ धूप लेकर नृत्य करते लोगों की सामूहिक लय शरीर में रोमांच भर देती थी। अम्मी की एकांत पूजा पर्याप्त न थी। उसे यह सामूहिकता भी चाहिए ही थी। वैयक्तिक और सामूहिक के एक अंश के रूप में देवी के साथ संबंध में कोई टकराहट न थी। लेकिन दुर्गा पूजा मात्र भक्ति, उपासना का अवसर नहीं था। वह उत्सव भी था। अनेक प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रम, नृत्य, संगीत , नाटक आदि का समय। लोगों का एक दूसरे से मिलने का वक्त भी था। इसे हम विजया मिलन कहा करते थे।
दुर्गा शक्ति हैं। इसलिए बलि अनिवार्य थी। बलि का प्रसाद ग्रहण किए बिना नवमी कैसे हो सकती थी? हमारी दुर्गा शाकाहारी न थीं। लेकिन बलि लेनेवाली दुर्गा के साथ हिंसा का भाव कभी नहीं जुड़ा।
एकांत की शांति और सामूहिकता की हलचल का मेल पूजा की विशेषता थी। अपनी लघुता का बोध और दुर्गा के साथ संबंध होने के कारण उदात्तता का संयोग। दोनों में कोई विरोध न था। दुर्गा पूजा के दस दिनों में मानो पवित्रता और उदात्तता का छंद बाँधा जाता था। इसलिए दशमी को दुर्गा को विसर्जित करके लौटने के साथ जैसे  कुछ खो जाने का भाव लेकर भी हम सब लौटते थे। जैसे कोई छंद टूट गया हो। धूप के धूम्र के विलुप्त होने के साथ जैसे इन दस दिनों की रहस्यमयता भी विलीन हो जाती थी।
यह अचानक न हो और सदमा न पहुँचे, शायद इसीलिए दशमी के बाद से काली पूजा तक की यात्रा का अवसर सृजित किया गया हो। काली से भयंकर का भाव जुड़ा है, लेकिन वे भी हिंसा की जननी नहीं थीं।
दुर्गा हों या काली, सब कुछ एक विराट गल्प की चरित्र थीं। उस गल्प में साधारण मनुष्य भी स्थान लेना चाहते थे। पूजा उसी का उपक्रम हुआ करता था। अपनी हीनता से उबरना, न्यूनता से मुक्त होना, एक वृहत्तर शक्ति की कल्पना कर पाना: आख़िर यह सब मनुष्यता के लक्षण ही हैं। मनुष्यता इस वृहत्तर के साथ संबंध बना पाने में ही निर्मित होती है। इसके लिए विनम्रता की दरकार है। यह विनम्रता ही उदात्त को धारण करने की पात्रता देती है। 
दिल्ली में सप्तमी के प्रातःकाल में बैठा मैं सोच रहा हूँ कि बरसों हो गए,महालया के दिन सुबह 3 बजे बांग्लादेश रेडियो   स्टेशन, फिर कलकत्ता रेडियो स्टेशन  और फिर पटना रेडियो स्टेशन पर पाठ नहीं सुना।
सोचता हूँ पूजा से यह विराग क्यों हुआ? क्या इसका कारण पूजा के स्वरूप का बदल जाना ही नहीं है? धीरे धीरे पूजा से पवित्रता और  उदात्तता का पलायन क्यों हो गया? क्यों वह संकीर्णता, क्षुद्रता और हिंसा की पर्याय हो गई? किसने यह होने दिया? महालया से ही रोज़ाना देशके हर हिस्से से पूजा के बहाने मुसलमानों को तरह-तरह से प्रताड़ित करने के समाचार मिल रहे हैं।
बाज़ार से मुसलमानों को बहिष्कृत करने, गरबा के बहाने उनपर हमला करने, मांस की बिक्री बंद करने के नामपर उनकी रोज़ी रोटी छीनने की खबरें रोज़ मिल रही हैं। पूजा में प्रथमा से लेकर षष्ठी तक रोज़ सुबह ऐसी ही घटनाओं की खबरों से होती है।
पढ़-देखकर लगता है, जो ख़ुद को देवी के उपासक कहते हैं, वे उसका अपमान कर रहे हैं। वे उसके बहाने अपना वर्चस्व स्थापित करने के दंभ के मद में चूर हो गए हैं। वे किसी भी प्रकार की भक्ति की संवेदना से वंचित  अमानुषिकता की  सामूहिकता गढ़ रहे हैं। दुर्गा इसे देखती हैं और कुछ नहीं करतीं? वे क्या इनसे अपनी अर्चना का अधिकार वापस नहीं ले सकतीं? पूजा में शुभ का पूर्ण विसर्जन क्या उनका हासिल है? किसी भी आत्मीयता से रहित, उदासीन इस समाज में वे लौटती ही क्यों हैं? पूछूँ किससे? अम्मी और बाबूजी छवि शेष रह गए हैं। दुर्गा से ही? लेकिन दुर्गा भी तो अब मात्र प्रतिमा रह गई हैं। उनसे प्राण हर लिए गए हैं।