पाकिस्तान के सेना प्रमुख आसिम मुनीर
देशों की तबाही अचानक नहीं होती। न कोई रात में उठकर यह घोषणा करता है कि संविधान मर चुका है, और न कोई सुबह अख़बार के पहले पन्ने पर यह लिखता है कि न्यायपालिका का अंत हो गया। यह सब धीरे-धीरे होता है। परत दर परत, साल दर साल, जब तक एक दिन ऐसा नहीं आता कि बची-खुची संस्थाएँ स्वयं ही स्वीकार कर लें कि अब प्रतिरोध संभव नहीं।
पाकिस्तान में सुप्रीम कोर्ट के जिन दो सबसे सम्मानित न्यायाधीशों जस्टिस सैयद मंसूर अली शाह और जस्टिस अतर मिनल्लाह ने एक-एक कर अपने पदों से इस्तीफा दिया, वह भी एक साधारण विरोध नहीं है; यह पाकिस्तान की न्यायिक स्वतंत्रता की लाश पर लिखा गया दो-लाइन का अंतिम बयान है। लेकिन इस उथल-पुथल को समझने के लिए हमें पीछे लौटना होगा। उस जगह, उस समय, और उस घटना तक जिसने पाकिस्तान के सैन्य-सिविल रिश्तों की सारी परतें उघाड़ दीं: फ़ैज़ाबाद धरना, नवंबर 2017। वही धरना, वही ज़ख्म, जो आठ साल बाद संविधान की कब्रगाह तक पाकिस्तान को खींच लाया।
फ़ैज़ाबाद धरने ने पाकिस्तान की राजनीति का रास्ता बदला
फैज़ाबाद पाकिस्तान में इस्लामाबाद और रावलपिंडी को जोड़ने वाला एक बहुत महत्वपूर्ण इलाका और चौक (इंटरचेंज) है। यह देश की राजधानी का 'गेटवे' है। पर फ़ैज़ाबाद इंटरचेंज पाकिस्तान की राजधानी का एक साधारण मोड़ भर नहीं है। यहाँ की हर धड़कन सेना और सरकार दोनों को साफ सुनाई देती है। यह वह सीमा-रेखा है जहाँ रावलपिंडी की “असल” सत्ता इस्लामाबाद की “नाममात्र” सत्ता से मिलती है। 2017 की ठंडी नवंबर की एक सुबह इसी मोड़ पर एक ऐसा राजनीतिक नाटक शुरू हुआ, जिसने पाकिस्तान का रुख बदल दिया।
फैज़ाबाद धरने में क्या हुआ था?
नवंबर 2017 में, एक धार्मिक-राजनीतिक पार्टी तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान (TLP) ने इस चौक को पूरी तरह बंद कर दिया। हजारों कार्यकर्ता वहाँ तंबू लगाकर बैठ गए। उन्होंने राजधानी के आवागमन को ठप्प कर दिया, जिससे आम लोगों को भारी परेशानी हुई। तहरीक-ए-लबैक पाकिस्तान (TLP), एक कट्टर धार्मिक-राजनीतिक संगठन, अचानक राजधानी के दरवाज़े पर खड़ा था। हज़ारों लोगों के साथ।
सड़कें बंद। सरकार ठप। क़ानून गायब। और पूरा देश एक ऐसे टकराव में डूबा हुआ जिसमें हर कोई जानता था कि सरकार की नहीं, किसी और की परीक्षा हो रही है।
कहा गया कि चुनाव अधिनियम की “ख़त्म-ए-नबूवत” की शपथ में बदलाव ने यह तूफ़ान खड़ा किया। पर पाकिस्तान के पुराने राजनीतिक खिलाड़ी जानते हैं, यह कोई धार्मिक आक्रोश नहीं था; यह एक सन्देश था। एक चेतावनी कि अगर सत्ता भूल जाए कि असली मालिक कौन है, तो “सड़कें” उसे याद दिलाने आ सकती हैं। शाहिद ख़ाक़ान अब्बासी की सरकार इस संकट के सामने पिघल गई। पुलिस कार्रवाई विफल। प्रशासन लकवाग्रस्त। मंत्रिमंडल के भीतर बिखराव।
और इस बीच इस्लामाबाद की रातों में ठंडी हवा के साथ बहती एक फुसफुसाहट- “अब कोई और इस खेल में उतरने वाला है।”
जब सरकार गिरने जैसी हालत में थी, तब मंच पर प्रवेश हुआ पाकिस्तान के सबसे शक्तिशाली संस्थान का। ISI और MI के कुछ वरिष्ठ अधिकारी, जिनमें उस समय के DG-MI लेफ्टिनेंट जनरल आसिम मुनीर भी शामिल थे, “बातचीत” के लिए धरने में पहुँचे। और फिर वह दृश्य जिसे पाकिस्तान आज भी यूट्यूब पर बार-बार देखता है: वर्दीधारी अधिकारी प्रदर्शनकारियों में लिफ़ाफ़े बाँट रहे थे। सौदे तय किए जा रहे थे। धार्मिक उन्माद का राजनीतिक लाभ उठाया जा रहा था।
सरकार ने घुटने टेक दिए। क़ानून मंत्री ने इस्तीफ़ा दे दिया। TLP विजयी होकर घर लौटी। और पाकिस्तान की राजधानी पर एक ठंडी, भारी-भरकम ख़ामोशी छा गई। एक ऐसी ख़ामोशी जिसमें हर किसी ने समझ लिया कि असल सत्ता किसके हाथ में है।
पाकिस्तान न्यायपालिका की बगावत
दो साल बाद 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने वह किया जिसकी किसी ने उम्मीद नहीं की थी। जस्टिस क़ाज़ी फ़ाएज़ ईसा की बेंच ने फ़ैज़ाबाद धरने पर ऐतिहासिक फैसला सुनाया।
यह फैसला किसी टिप्पणी की तरह नहीं था; यह पाकिस्तान की सत्ता संरचना के केंद्र पर सर्जिकल स्ट्राइक थी। जजों ने लिखा कि खुफ़िया एजेंसियों ने संविधान से परे जाकर काम किया।
उन्होंने “अदृश्य हस्तक्षेप” को बेनक़ाब किया।
उन्होंने वह कहा जिसे पाकिस्तान का हर पत्रकार सिर्फ़ कोनों में फुसफुसाता था।
कई अधिकारियों का नाम सीधे-सीधे दर्ज हुआ।कुछ संस्थाओं की भूमिका पर कड़ी टिप्पणी हुई। दायरे में DG-ISI, DG-MI और पूरी सुरक्षा व्यवस्था की परोक्ष भूमिका आ गई। और यहीं से कहानी की दिशा बदल गई। यह फैसला पाकिस्तान की सैन्य-न्यायिक राजनीति के नियमों के विरुद्ध था। यह वह साहसिक कदम था जो 2007 के वकील आंदोलन की याद दिलाता था। लेकिन इस बार प्रतिद्वंद्वी और भी अधिक शक्तिशाली, अधिक रणनीतिक, और अधिक छुपा हुआ था। नतीजा तय था: ऐसी न्यायपालिका दोबारा नहीं रहने दी जाएगी।
सेना की भूमिका को तीन स्तरों पर समझा जा सकता है
स्तर 1: 'शांतिदूत' बनकर आना (The Mediators)। धरना हफ्तों चला। नागरिक सरकार और पुलिस उसे हटाने में नाकाम रही। ऐसे में, पाकिस्तान की सबसे ताकतवर खुफिया एजेंसी आईएसआई (ISI) और उस समय के मिलिट्री इंटेलिजेंस (MI) के प्रमुख (जो उस वक्त जनरल आसिम मुनीर थे) बीच-बचाव करने आए। उन्होंने TLP नेताओं से बातचीत की और एक समझौता करवाया। इस समझौते के बाद ही धरना खत्म हुआ।
स्तर 2: सुप्रीम कोर्ट का झटका (The Supreme Court's Bombshell)। · सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की स्वतः सुनवाई की। 2019 में आए अपने ऐतिहासिक फैसले में कोर्ट ने साफ कहा: सेना और खुफिया एजेंसियों ने "गैर-जिम्मेदार" और "असंवैधानिक" भूमिका निभाई।
उन्होंने एक "अघोषित" भूमिका निभाकर लोकतांत्रिक सरकार को कमजोर किया। कोर्ट ने सवाल उठाया: क्या सेना ने धरने को शुरुआत में चुपचाप समर्थन दिया ताकि तत्कालीन सरकार को बदनाम किया जा सके?
स्तर 3: 'असली सत्ता' का खुलासा (The Real Power Center)। यह फैसला एक बड़ा खुलासा था। इसने दिखा दिया कि जब देश की राजधानी बंधक बनी हुई थी, तो असली सौदेबाजी प्रधानमंत्री कार्यालय में नहीं, बल्कि सेना प्रमुखों और TLP नेताओं के बीच हो रही थी।
जनरल आसिम मुनीर, जो उस वक्त MI प्रमुख थे, इस पूरी वार्ता प्रक्रिया के केंद्र में थे। कोर्ट ने सीधे तौर पर उनके संस्थान (MI) की भूमिका पर सवाल खड़े किए। फैजाबाद का भूत आज तक पाकिस्तानी सेना और सत्ता के गलियारों में भटकता है।
फैजाबाद धरना सिर्फ एक प्रदर्शन नहीं था, यह एक प्रतीक (Symbol) बन गया
यह वह मौका था जब सुप्रीम कोर्ट ने सेना और खुफिया एजेंसियों की 'छिपी भूमिका' को सार्वजनिक रूप से कठघरे में खड़ा किया।
जनरल आसिम मुनीर (अब सेना प्रमुख) और उनके संस्थान के लिए यह फैसला एक शर्मिंदगी और जख्म का कारण बना। आज 2025 में, सुप्रीम कोर्ट को तोड़ने वाला 27वां संशोधन, उसी जख्म का बदला माना जा रहा है। सेना प्रमुख एक ऐसी न्यायपालिका नहीं चाहते, जो उनके काम में दखल दे सके। फैजाबाद के बाद, यह खतरा और बढ़ गया था।
धीरे-धीरे चलने वाला बदला: 26वें से 27वें संशोधन तक
प्रतिशोध की राजनीति हमेशा गुस्से में नहीं चलती; अक्सर वह बेहद सलीके से, धैर्यपूर्वक, कानूनी वर्दी पहनकर चलती है। 2024 में आया 26वाँ संशोधन यानी पहला वार।
यह न्यायपालिका की सामूहिक ताक़त को कमजोर करने का परीक्षण था। जस्टिस मंसूर अली शाह अपने पत्र में लिखते हैं कि उन्होंने तब उम्मीद की थी कि “भीतर से” प्रतिरोध होगा।
पर हवा का रुख तेजी से बदल रहा था। 2025 का 27वाँ संशोधन तो विध्वंस का अंतिम चरण था।
इसने सुप्रीम कोर्ट को दो हिस्सों में बाँट दिया, एक “अपील अदालत”
और
एक नया “संवैधानिक न्यायालय”
जिसमें जजों की नियुक्ति पर कार्यपालिका का भारी प्रभाव रहेगा। यह कोई तख़्तापलट नहीं था।
यह संविधान के भीतर रेंगता हुआ तख़्तापलट था, एक ‘कानूनी’ कू। वह कू जिसमें बन्दूकें नहीं उठतीं, पर न्यायपालिका की रीढ़ ज़रूर तोड़ दी जाती है।
दो इस्तीफे, एक युग का अंत
जस्टिस मंसूर अली शाह का इस्तीफ़ा एक बेहद शांत, सटीक, कानूनी प्रहार था:
उन्होंने कहा, “एक कटे-फटे न्यायालय में बने रहना संविधान के अपराध में मौन साझेदारी है।”
एक न्यायाधीश जो संविधान की रक्षा न कर सके, वह न्यायाधीश रह भी कैसे सकता है? जस्टिस अतर मिनल्लाह का पत्र उससे भी अधिक तीखा, मानवीय और झकझोर देने वाला था।
उन्होंने लिखा:
“वह संविधान जिसे मैंने बचाने की शपथ ली थी, अब अस्तित्व में ही नहीं है।”
और फिर वह वाक्य, जो पाकिस्तान की न्यायपालिका पर एक स्याह रेखा खींच देता है:
“अब न्यायाधीश का वस्त्र पहनना विश्वासघात का प्रतीक बन चुका है।” ये इस्तीफे नौकरियों से त्यागपत्र नहीं, बल्कि लोकतंत्र के शव पर लिखे अंतिम शब्द हैं।
आज का पाकिस्तान: छायाओं में ढका हुआ, आवाज़ों से खालीः 2025 का पाकिस्तान किसी तानाशाह का पाकिस्तान नहीं है। यह ज़िया या मुशर्रफ़ का युग भी नहीं है। यह एक अधिक परिष्कृत, अधिक नियंत्रित, अधिक तकनीकी तंत्र है, जहाँ सत्ता गनरूम से नहीं, कानूनी संशोधनों और राजनीतिक मंचन से चलाई जाती है। जनरल आसिम मुनीर, जो 2017 में फ़ैज़ाबाद के धरने में “मध्यस्थ” बनकर पहुँचे थे, आज उस देश की बागडोर संभाल रहे हैं जिसमें सत्ता दिखती कहीं है और चलती कहीं और से है। फ़ैज़ाबाद का वह घाव कभी भरा ही नहीं। अब उसने पूरे संविधान को संक्रमित कर दिया है। अब कोई न्यायालय प्रश्न नहीं पूछेगा। अब कोई फैसला सत्ता को चुनौती नहीं देगा। अब पाकिस्तान में संविधान नहीं, बल्कि उसकी यादें बची हैं।
इतिहास की नई सुबह या नई अँधेरा?
इतिहास जब 2025 के पाकिस्तान की समीक्षा करेगा, तब वह इसे “सुधार” नहीं कहेगा। यह लिखेगा कि उस साल पाकिस्तान ने अपनी अंतिम स्वतंत्र संस्था को दफन कर दिया। और जब शोधकर्ता पूछेंगे कि यह पतन कहाँ से शुरू हुआ, तो वे फ़ैज़ाबाद इंटरचेंज की ओर लौटेंगे। जहाँ एक भीड़, एक समझौता और कुछ ‘लिफ़ाफ़ों’ ने यह दिखा दिया था कि पाकिस्तान का लोकतंत्र बस एक फिल्मी पर्दा है; उसके पीछे कहानी कोई और लिखता है।
जजों का साहस: इस्तीफे की बड़ी बातेंः जस्टिस मंसूर अली शाह ने अपने इस्तीफे में साफ लिखा, "यह संशोधन पाकिस्तान के संविधान पर गंभीर हमला है... यह न्यायपालिका को कार्यपालिका के नियंत्रण में लाता है... अब इस अदालत में बैठना संवैधानिक गलती की साफ़ मंजूरी होगी।" जस्टिस अतहर मिनल्लाह ने तो सीधे तौर पर कहा, "जिस संविधान को बचाने की कसम खाई थी, वह अब नहीं रहा... अब जज की वर्दी पहनना खुद को धोखा देना है।"
आगे की राह: अंधेरा या आशा? देश भर के वकीलों के संगठन और विपक्षी दल सड़कों पर उतर रहे हैं। इसे 'न्यायपालिका की हत्या' का नाम दिया जा रहा है। यह संघीय संवैधानिक अदालत जनता और कानूनी समुदाय की नजरों में हमेशा एक 'कठपुतली अदालत' के रूप में देखी जाएगी।
अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया: दुनिया भर में पाकिस्तान को एक ऐसे देश के तौर पर देखा जाएगा, जहाँ लोकतंत्र का अंतिम गढ़ भी ढह गया।
जस्टिस शाह और मिनल्लाह के इस्तीफे सिर्फ एक विरोध नहीं, बल्कि इतिहास के सामने एक गवाही है। यह गवाही है कि कैसे एक व्यक्ति की व्यक्तिगत रंजिश और सत्ता की भूख ने एक पूरे संविधान और उसकी संस्थाओं को बंधक बना लिया। फैजाबाद का बदला अब पूरे पाकिस्तान की न्यायिक व्यवस्था की बलि लेने पर आ टिका है। आगे देखिये, इतिहास का अगला अध्याय क्या होता है।
आज शाह और मिनल्लाह के इस्तीफे उस कहानी को विराम नहीं देते।
वे यह घोषित करते हैं कि अब कहानी किसी और मोड़ पर जा रही है, एक ऐसे मोड़ पर जहाँ न्यायालय तो होगा, पर न्याय नहीं;
संविधान का नाम होगा, पर उसका अर्थ नहीं;
और लोकतंत्र का मंच होगा, पर कलाकार वही होंगे जो असल शक्ति चुनती है। पाकिस्तान एक नए अँधेरे में प्रवेश कर चुका है, और पूरी दुनिया खामोश खड़ी देख रही है।