बिहार की नवनिर्वाचित सोलहवीं विधानसभा के लिए सिर्फ़ 11 मुस्लिम चुने गये हैं। 1952 से लेकर आज तक के सभी चुनावों को देखते हुए सबसे कम मुस्लिम विधायक इस बार ही चुने गये हैं। बिहार में नीतीश कुमार के कंधे पर सवार होकर बढ़ती सांप्रदायिक राजनीति का एक असर यह भी है। एक तरफ़ मुस्लिमों के नाम पर राजनीति करने वाली एआईएमआईएम की ताक़त मुसलमानों के बीच बढ़ रही है, दूसरी तरफ़ वे हाशिये पर भी सिमटते जा रहे हैं।
2020 में बिहार विधानसभा के लिए 19 विधायक चुने गये थे। 2015 में 24 मुस्लिम विधायक चुने गये थे। सबसे अधिक 1985 में 34 मुस्लिम विधायक चुने गये थे। बिहार में मुस्लिमों की आबादी 17% है और इस बार विधायकों की कुल तादाद 4.5% ही है।
मुस्लिम विधायकों की तादाद कम होना निश्चित ही गंभीर बात है। यह अल्पसंख्यकों के हाशियाकरण का संकेत है जो भारत के लोकतंत्र की कमज़ोरी बताता है। लोकतंत्र में बहुमत से सरकार ज़रूर बनती है लेकिन यह बहुसंख्यक तंत्र नहीं है। एक स्वस्थ लोकतंत्र में वंचितों और अल्पसंख्यकों की भागीदारी के साथ बहुमत निर्माण होता है और उनका प्रतिनिधित्व भी अनुपात के हिसाब से नज़र आना चाहिए।
इस बार AIMIM के पाँच, कांग्रेस के दो, RJD के तीन और JD(U) का एक मुस्लिम विधायक चुना गया है। यानी कुल 11 चुने गये जिसमें सत्तापक्ष का सिर्फ़ एक विधायक है। लेकिन आँकड़ों में एक बात चौंकाने वाली है। सबसे ज़्यादा मुस्लिम विधायक एआईएमआईएम के हैं। पिछली बार भी इस पार्टी ने पाँच सीटें जीती थीं, लेकिन चार विधायक आरजेडी में शामिल हो गये थे। चुनाव के पहले एआईएमआईएम ने विपक्षी महागठबंधन में शामिल होने का प्रयास किया था जिसमें सफलता नहीं मिली। उसके बाद पार्टी ने 25 सीटों पर चुनाव लड़ा और मुस्लिम बहुल सीमांचल में पिछली बार जीती पाँच सीटें बचाने में कामयाब रही लेकिन उसकी वजह से महागठबंधन कई सीटें हार गया।
ऐसे में सवाल उठता है कि एक दशक पहले तक बिहार में लगभग अज्ञात रही यह पार्टी मोदी राज में इतनी तेज़ी से कैसे बढ़ी।
इसका इतिहास क्या है?
एआईएमआईएम के अध्यक्ष वही बैरिस्टर असदुद्दीन ओवैसी हैं जो अपने धारदार तर्कों और तीखे भाषणों की वजह से लगातार चर्चा में रहते हैं। लंदन से क़ानून की पढ़ाई करने वाले असदुद्दीन ओवैसी हैदाराबाद से पाँच बार लोकसभा के सदस्य चुने जा चुके हैं। उन्होंने बिहार के सीमांचल इलाक़े पर पार्टी का ध्यान केंद्रित किया है। सीमांचल इलाक़े में किशनगंज, कटिहार, पूर्णिया और अररिया ज़िले आते हैं जिनमें कुल 24 विधानसभा सीटें हैं। महागठबंधन को यहाँ से काफ़ी उम्मीद थी लेकिन ओवैसी के नेतृत्व में एआईएमआईएम ने उस पर पानी फेर दिया।असदुद्दीन ओवैसी ने अपने पिता सुल्तान सलाहुद्दीन के निधन के बाद 2008 में पार्टी अध्यक्ष का पद सँभाला था। उनके पिता को, असदुद्दीन ओवैसी के दादा अब्दुल वाहिद के निधन के बाद 1984 में यह कुर्सी मिली थी जिन्होंने 1957-58 में इस पार्टी को नया रूप दिया था इसमें ‘ऑल इंडिया’ शब्द जोड़कर।
इस पार्टी का इतिहास आज़ादी के पहले तक जाता है।
1928 में बनी थी पार्टी
एआईएमआईएम पहले सिर्फ़ एमआईएम थी- मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन। यानी मुस्लिम एकता की सभा। इसकी स्थापना 1928 में हैदराबाद में नवाब महमूद नवाज़ खान ने की थी। 1938 में बहादुर यार जंग इसके अध्यक्ष चुने गये। जैसा नाम से ही साफ़ है यह मुसलमानों की एकता की बात करती थी और मुस्लिम लीग की ही तरह कांग्रेस के नेतृत्व में जारी उस भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन का विरोध करती थी जिसका परचम हिंदू और मुसलमान दोनों के हाथ था। 1944 में बहादुर यार जंग की मृत्यु के बाद क़ासिम रिज़वी को इस पार्टी का नेता चुना गया जो हथियारबंद हिंसक संगठन रज़ाकार के भी संस्थापक थे। क़ासिम रिज़वी के रज़ाकारों ने हैदाराबाद को स्वतंत्र या पाकिस्तान से मिलने की निज़ाम की योजना का विरोध करने वाले संगठनों, नेताओं और जनता पर जमकर अत्याचार किये थे। भारत में विलय के बाद रज़ाकारों पर प्रतिबंध लगा दिया गया और क़ासिम रिज़वी को जेल में डाल दिया गया। रिज़वी 1957 में जेल से छूटे और पाकिस्तान चले गये। उसके बाद इस पार्टी का दूसरा दौर शुरू होता है।
क़ासिम रिज़वी ने इस पार्टी की कमान अब्दुल वाहिद ओवैसी को सौंपा था जो एक मशहूर वकील थे। उन्होंने पार्टी के नाम में ‘ऑल इंडिया’ जोड़ा और संविधान बनाया और भारत के संविधान के हिसाब से राजनीति शुरू की। लेकिन उद्देश्य वही रहा- मुस्लिमों की एकता। यह राजनीति सबसे ज़्यादा उसे रास आती है जो हिंदुओं को राजनीतिक रूप से संगठित करना चाहता है। यानी आरएसएस। यह वही राजनीति है जिसमें भारत आज़ादी के पहले फँसा था।जिन्ना और मुस्लीम लीग
आज़ादी के पहले कांग्रेस और मुस्लिम लीग में लड़ाई की एक बड़ी वजह ये थी कि लीग कांग्रेस में मुस्लिम नेताओं और प्रतिनिधिओं को नहीं देखना चाहती थी। जिन्ना का मानना था कि अंग्रेज कांग्रेस को हिंदुओं की पार्टी मानें और मुस्लिमों से जुड़े हर मुद्दे पर सिर्फ़ मुस्लिम लीग से बात करें। लेकिन कांग्रेस ने द्विराष्ट्वाद की यह धारणा कभी स्वीकार नहीं की। वह भारतीय राष्ट्रवाद की बात करती रही जिसमें हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, पारसी सबके लिए जगह थी। भारत के ज़्यादातर मुसलमानों ने भी जिन्ना की जगह गाँधी और नेहरू के लोकतांत्रिक भारत के साथ अपना भविष्य जोड़ा और पाकिस्तान के विचार को ठुकरा दिया।
जिन्ना की बात मानी सावरकर के नेतृत्व में हिंदू महासभा ने और उसने लीग के साथ मिलकर सिंध, बंगाल और उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत में तब सरकारें बनाईं जब भारत छोड़ो आंदोलन की आग लगी हुई थी। खैर…ओवैसी न जिन्ना हैं और न भारत के संविधान पर उनकी निष्ठा पर संदेह किया जा सकता है लेकिन उनके भाषणों ने ध्रुवीकरण का माहौल बनाया है।ओवैसी मुसलमानों के मुद्दे उठाते हैं। इसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार का सवाल गौण ही होता है। वे इस चुनाव में भाषण दे रहे थे कि अबू बक्र, उस्मान, उमर और अली का बेटा बिहार का मुख्यमंत्री बनेगा। ये सारे नाम ख़लीफ़ाओं के हैं। ज़ाहिर है यह धार्मिक मुहावरे के ज़रिए मुस्लिम समाज की भावनाओं से खेलना था।
बिहार चुनाव को कैसे भुनाया ओवैसी ने?
ओवैसी के इस वीडियो को खूब प्रचारित-प्रसारित किया गया। कुछ सीटों पर ओवैसी को फ़ायदा हुआ, लेकिन पूरे बिहार में फ़ायदा बीजेपी को हुआ जो हिंदुओं को धार्मिक रूप से संगठित करके अपनी राजनीतिक ताक़त बढ़ा रही है।
कभी भारत की राजनीति इस तरह थी कि मुस्लिम मुख्यमंत्री भी सहजता से बनते थे क्योंकि जनता को यह पता था कि वह अपने हित में दल का चुनाव करती है और दल को हक़ है कि किसे क्या ज़िम्मेदारी दे। जम्मू-कश्मीर के अलावा अब तक पाँच प्रदेशों में मुख्यमंत्री मुस्लिम बन चुके हैं। कांग्रेस के हरकतुल्लाह खान राजस्थान के मुख्यमंत्री (9 जुलाई 1971- 11 अक्टूबर 1973) रहे। कांग्रेस की ओर से ही अब्दुल गफ़ूर बिहार के मुख्यमंत्री (2 जुलाई 1973 - 11 अप्रैल 1975) रहे। केरल में कांग्रेस के सहयोग से आईयूएमएल के सी. एच. मोहम्मद कोया मुख्यमंत्री (12 अक्टूबर 1979 - 20 दिसंबर 1979) रहे। इसके अलावा कांग्रेस के ही ए. आर. अंतुले महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री (9 जून 1980 - 12 जनवरी 1982) और सैयदा अनवरा तैमूर असम की मुख्यमंत्री (6 दिसंबर 1980 - 30 जून 1981) रहीं।
मुस्लिमों पर हमले बढ़े
इसमें शक नहीं कि आरएसएस और बीजेपी राज में मुसलमानों पर हमले बढ़े हैं। देश और ज़्यादातर राज्यों पर शासन करने वाली पार्टी बीजेपी मुसलमानों को चुनाव लड़ने के लिए टिकट भी नहीं देती और असम जैसे राज्यों में तो यहाँ तक ऐलान करती है कि उसे मुस्लिमों का वोट भी नहीं चाहिए। बीजेपी को लगता है कि नफ़रत के आधार पर हिंदुओं को गोलबंद करना आसान है। हिंदी पट्टी में ख़ासतौर पर इस नीति का असर भी दिखता पड़ रहा है, लेकिन ये भी सही है कि इससे भारत कमज़ोर हो रहा है। अल्पसंख्यकों को जानबूझकर संसद और विधानसभाओं में घुसने न देने का मतलब मोहम्मद अली जिन्ना को सही और गाँधी को ग़लत साबित करना है। ओवैसी के समर्थकों का कहना है कि भारत के लोकतंत्र को बचाने का ठेका क्या मुसलमानों के पास है? पर यह टेंडर से मिलने वाल ठेका नहीं है, एक नागरिक के रूप में ज़िम्मेदारी है क्योंकि लोकतंत्र के कमज़ोर होने और सांप्रदायिक फासीवाद के उभार का सबसे ज़्यादा नुक़सान वंचित और अल्पसंख्यक तबकों को ही होता है।
लोकतंत्र में मुस्लिमों की राजनीतिक सफलता का एक उदाहरण अमेरिका से आया है जहाँ इस्लामोफोबिया चरम पर है। लेकिन जिस न्यूयॉर्क में 9/11 जैसी आतंकी घटना हुई हो वहाँ के लोगों ने हाल ही में ज़ोहरान ममदानी को अपना मेयर चुना है, वह भी पचास फ़ीसदी से ज़्यादा वोट देकर। जबकि राष्ट्रपति से लेकर पूरा तंत्र हराने में जुटा हुआ था। ममदानी ने अपनी मुस्लिम पहचान को छिपाया नहीं और न फ़िलिस्तीन जैसे मुद्दे पर इसराइल की खुले रूप से निंदा करने में कभी हिचक दिखाई, लेकिन अपनी लड़ाई को उन्होंने आम जनता के मुद्दों पर केंद्रित किया और देखते ही देखते सभी के नेता बन गये। हर धर्म, हर क्षेत्र और नस्ल के लोगों ने ममदानी को वोट दिया। किसी भी लोकतंत्र में अल्पसंख्यकों को राजनीति के शिखर पर पहुँचने का केवल यही रास्ता है। ओवैसी की राजनीति उन्हें ताक़त तो दे सकती है लेकिन उनके तौर-तरीक़ों से कई गुना ताक़त आरएसएस और बीजेपी को मिलती है। ओवैसी अगर इस ख़तरे को महसूस नहीं कर रहे हैं तो उनकी राजनीति पर शक़ होना स्वाभाविक है।