रूस से कच्चा तेल ख़रीद कर अरबों डॉलर का फ़ायदा रिलायंस कंपनी ने उठाया है लेकिन इसका दंड पूरा देश उठा रहा है। रूस से तेल ख़रीदने का फ़ैसला निश्चित ही भारत की संप्रभुता का मसला भी है लेकिन अमेरिका की ओर से लगाये गये 50 फ़ीसदी टैरिफ़ का दंड तो भारतीय अर्थव्यवस्था को भुगतना पड़ रहा है। क्या तेल से मुनाफ़ा कमाना कूटनीति के लिहाज़ से एक ग़लत फ़ैसला था? ऐसा लगता है कि पीएम मोदी अपने ‘प्रिय मित्र’ ट्रंप के इरादों को भाँपने में बुरी तरह नाकाम रहे हैं।

फ़रवरी 2022 से जारी रूस-युक्रेन युद्ध ने हजारों लोगों की जान ली, लाखों को विस्थापित किया, और अरबों की संपत्ति नष्ट की। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने चुनाव प्रचार के दौरान दावा किया था कि वे इस युद्ध को खत्म करवा देंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ट्रंप का मानना है कि भारत जैसे देश रूस से तेल खरीदकर उसकी युद्ध मशीन की फंडिंग कर रहे हैं।
भारत ने रूस से 25-50% छूट पर कच्चा तेल खरीदा, जिससे उसे 17 अरब डॉलर की बचत हुई। लेकिन अमेरिका ने इसे रूस की अर्थव्यवस्था को समर्थन के रूप में देखा और भारत पर 50% टैरिफ (25% आधार टैरिफ + 25% रूस से तेल खरीद का दंड) लगा दिया। ट्रंप चाहते हैं कि भारत तुरंत रूस से तेल खरीद बंद कर दे। लेकिन यहाँ भारत की संप्रभुता का सवाल उठता है। भारत को यह हक है कि वह किस देश से क्या और कितना खरीदे।

ताज़ा ख़बरें

कॉरपोरेट मुनाफ़े का नुकसान 

अमेरिकी व्हाइट हाउस के व्यापार सलाहकार पीटर नवारो ने साफ कहा कि भारत के कुछ सबसे अमीर परिवारों, खासकर रिलायंस इंडस्ट्रीज और मुकेश अंबानी ने सस्ते रूसी तेल से "युद्ध मुनाफाखोरी" की है। आंकड़े बताते हैं कि 2021 में भारत के कुल तेल आयात में रूस की हिस्सेदारी केवल 0.2% थी, जो 2025 तक बढ़कर 36-44% हो गई। इसमें रिलायंस इंडस्ट्रीज का योगदान 33% (77 मिलियन बैरल, जनवरी-जून 2025) और नायरा एनर्जी का 12-15% रहा। सरकारी रिफाइनर जैसे IOC, BPCL, और HPCL ने 35-40% तेल खरीदा, जबकि बाकी छोटे आयातकों का हिस्सा 5-10% रहा।
रिलायंस की जामनगर रिफाइनरी दुनिया की सबसे बड़ी रिफाइनरियों में से एक है। इसने जून 2025 में 7,46,000 बैरल प्रतिदिन रूसी तेल आयात किया। इसकी 67% रिफाइंड प्रोडक्शन, खासकर डीजल, यूरोप को निर्यात हुई, जिससे रिलायंस ने करीब 6 अरब डॉलर का मुनाफा कमाया। लेकिन सवाल यह है कि सस्ते तेल का फायदा आम जनता को क्यों नहीं मिला? पेट्रोल-डीजल के दाम कम होने चाहिए थे, लेकिन उच्च करों (जैसे उत्पाद शुल्क और GST) और सरकारी कंपनियों के पिछले नुकसानों की भरपाई के कारण ऐसा नहीं हुआ।

भारत सरकार का तर्क 

भारत सरकार का कहना है कि रूस से तेल खरीदकर उसने वैश्विक तेल कीमतों को 120-130 डॉलर प्रति बैरल तक जाने से रोका, जिससे यूरोप को तेल संकट से बचाया गया। यह अमेरिका के हित में भी था। लेकिन ट्रंप की नजर भारत के कृषि और डेयरी क्षेत्र पर है। वे चाहते हैं कि भारत इन क्षेत्रों को अमेरिकी उत्पादों के लिए खोल दे। अमेरिकी किसानों को भारी सब्सिडी, उन्नत तकनीक, और बड़ी जोतों का लाभ है, जबकि भारतीय किसानों के पास ये सुविधाएँ नहीं हैं। अगर भारत इन क्षेत्रों को खोलता है, तो भारतीय किसान प्रतिस्पर्धा में पिछड़ सकते हैं।

कूटनीति की विफलता 

रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने चेतावनी दी है कि रूस पर अत्यधिक निर्भरता भारत के लिए जोखिम भरा हो सकता है। उन्होंने कहा, “हमें यह समझना होगा कि इससे किसे फायदा हो रहा है और किसे नुकसान। रिफाइनर कंपनियाँ जरूरत से ज्यादा मुनाफा कमा रही हैं, लेकिन निर्यातकों को टैरिफ की कीमत चुकानी पड़ रही है।”
अमेरिकी टैरिफ का असर भारत के निर्यात-निर्भर क्षेत्रों, खासकर लघु और मध्यम उद्यमों (MSMEs) पर पड़ रहा है। भारत का अमेरिका को 87 अरब डॉलर का निर्यात, जो जीडीपी का 2.5% है, प्रभावित हो रहा है। कपड़ा, रत्न-आभूषण, चमड़ा, झींगा, ऑटोमोटिव, और फार्मास्यूटिकल्स जैसे क्षेत्रों में भारी नुकसान हो सकता है। ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव (GTRI) के अनुसार, टैरिफ से 48 अरब डॉलर का निर्यात प्रभावित होगा, जिससे 5-10 लाख नौकरियाँ खतरे में पड़ सकती हैं। जीडीपी पर भी 0.5-1.5% का नकारात्मक असर पड़ सकता है।

संप्रभुता का तर्क 

सवाल उठता है कि क्या रूस से तेल खरीद का मुद्दा भारत की संप्रभुता का सवाल है, या यह कुछ कॉरपोरेट घरानों के मुनाफे का मामला है? रिलायंस जैसे बड़े खिलाड़ियों ने सस्ते तेल से अरबों कमाए, लेकिन टैरिफ की मार छोटे उद्योगों, बुनकरों, जौहरियों, मछुआरों, और लाखों श्रमिकों पर पड़ रही है। क्या यह भारत की कूटनीति की विफलता नहीं है कि पीएम मोदी अपने “प्रिय मित्र” ट्रंप के इरादों को समय रहते नहीं भाँप पाये? “नमस्ते ट्रंप” और “अबकी बार ट्रंप सरकार” जैसे नारों के बीच क्या भारत ने अपनी रणनीति पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया?
विश्लेषण से और खबरें
रूस से सस्ता तेल खरीदने का फैसला भारत की ऊर्जा जरूरतों और वैश्विक तेल कीमतों को स्थिर करने के लिए महत्वपूर्ण था। लेकिन अमेरिकी टैरिफ ने इसे एक जटिल आर्थिक और कूटनीतिक चुनौती बना दिया है। रघुराम राजन का सवाल वाजिब है—क्या एक कॉरपोरेट घराने का मुनाफा भारत की संप्रभुता से बड़ा हो सकता है, जब इसकी कीमत पूरे देश को चुकानी पड़ रही है? भारत को इस मुद्दे पर अपनी नीतियों का पुनर्मूल्यांकन करना होगा, ताकि कॉरपोरेट मुनाफे और राष्ट्रीय हितों के बीच संतुलन बनाया जा सके।