बर्तोल्त ब्रेख़्त की मशहूर कविता है- 'समाधान'। कविता कुछ इस तरह चलती है- '17 जून के विद्रोह के बाद / लेखक संघ के सचिव ने / स्टैलिनली में पर्चे बंटवाए / जिनमें कहा गया था / लोग सरकार का भरोसा खो चुके हैं / और इसे दुबारा बस दुगुना काम करके / हासिल कर सकते हैं। / ऐसी हालत में क्या ये ज़्यादा आसान नहीं होगा कि / सरकार जनता को भंग कर दे / और दूसरी जनता चुन ले?'
ब्रेख़्त ने यह यह कविता 1953 में पूर्वी जर्मनी में निर्माण मज़दूरों की हड़ताल का समर्थन करते हुए व्यंग्य में लिखी थी। लेकिन ब्रेख्त ने कविता में जो व्यंग्य किया था, वह क़रीब 72 साल बाद बिहार में इस तरह सच होता नज़र आएगा, इसकी कल्पना किसी ने नहीं की होगी।
चुनाव से पहले वहां मतदाता सूची का 'विशेष गहन संशोधन' (Bihar SIR) हो रहा है। इस गहन संशोधन में उन दिशानिर्देशों की स्पष्ट अवहेलना की जा रही है जो ऐसी किसी क़वायद के लिए 1950 के जनप्रतिनिधित्व क़ानून में दर्ज हैं। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट में इस मामले में हुई सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश वरिष्ठ वकील गोपाल शंकरनारायणन ने इस बात की ओर ध्यान खींचा कि इस क़ानून में स्पेशल इंटेंसिव रिवीज़न का कोई प्रावधान नहीं है। रिवीज़न का जो प्रावधान है, उसे किसी साल एक जनवरी, एक अप्रैल, एक जुलाई या एक अक्टूबर में किसी एक तारीख़ से शुरू किया जा सकता है। यही नहीं, 2021 में क़ानून में संशोधन करके वोटर होने की पात्रता के लिए आधार को भी मान्य कर दिया गया। याचिकाकर्ता यह भी याद दिला रहे हैं कि भारत में नए वोटर बनाने के लिए जो दस्तावेज़ मान्य हैं, उनमें आधार भी शामिल है।
मगर चुनाव आयोग इन सारे नियमों की अवहेलना कर लोगों की नागरिकता तय करने में लगा हुआ है। वह 'सूत्रों' के हवाले से यह जानकारी दे रहा है कि मतदाता सूची में बहुत सारे बांग्लादेशी या अन्य देशों के लोग घुसपैठ कर चुके हैं। हैरानी की बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट बता चुका है कि लोगों की नागरिकता तय करना उसकी नहीं, गृह मंत्रालय की ज़िम्मेदारी है। लेकिन चुनाव आयोग इस उत्साह से लगा हुआ है जैसे वह एक-एक घुसपैठिए को अपने दम पर निकाल बाहर करेगा।
मगर लोगों की नागरिकता कैसे तय होती है? क्या राज्य किसी की नागरिकता तय करता है? क्या यह साबित करना लोगों का काम है कि वे नागरिक हैं? अगर सरकार को लगता है कि कोई नागरिक नहीं है तो यह साबित करना उसका काम है। लेकिन चुनाव आयोग लोगों के राशन कार्ड नहीं मान रहा, वोटर कार्ड नहीं मान रहा, आधार कार्ड नहीं मान रहा, मनरेगा कार्ड नहीं मान रहा, उसे पासपोर्ट चाहिए, सरकारी नौकरी का प्रमाण पत्र चाहिए, संपत्ति का प्रमाण पत्र चाहिए- कुल ऐसे 11 दस्तावेज़ चाहिए जो बहुत सारे ग़रीबों के पास नहीं होते। जाहिर है, इस क़वायद में वे ग़रीब लोग ही पीछे छूट जाएंगे, जिनके पास घर-मकान नहीं है, सरकारी नौकरी नहीं है, जिनके हिस्से पढ़ाई-लिखाई नहीं आ पाई, और जिनके पास पासपोर्ट नहीं है।
हमारा क़ानून न्याय के संदर्भ में एक ज़रूरी बात कहता है- हज़ार गुनहगार भले छूट जाएं, किसी बेगुनाह को सज़ा नहीं होनी चाहिए। क्या यही कसौटी मतदाता सूची के संदर्भ में नहीं अपनाई जानी चाहिए कि किसी भी नागरिक का वोट नहीं छूटना चाहिए?
मताधिकार में घुसपैठ
बेशक, चुनाव आयोग की यह चिंता जायज़ है कि घुसपैठियों को भारत के चुनाव तंत्र में जगह नहीं मिलनी चाहिए। लेकिन इस चिंता के मारे क्या वह इस देश के लाखों-करोड़ों नागरिकों के मताधिकार में घुसपैठ करने का हक़ पा सकता है? ऐन चुनाव से पहले उसकी इस क़वायद ने बिहार के ग़रीब-गुरबों में अफ़रातफ़री का माहौल बना दिया है। चुनाव आयोग की क़वायद के साथ भारतीय दफ़्तरशाही के भ्रष्टाचार की घुसपैठ ने बहुत सारे लोगों की पहचान को संकट में डाल दिया है। अब उनसे फॉर्म के लिए रिश्वत मांगी जा रही है, पहचान की पुष्टि के लिए रिश्वत मांगी जा रही है, अपना भारतीय वजूद साबित करने के लिए रिश्वत मांगी जा रही है। इस प्रक्रिया में यह संभव है कि घुसपैठिए बचे रहें और असली वोटर बाहर हो जाएं।
चुनाव आयोग की क़वायद पर शक क्यों
लेकिन दरअसल चुनाव से ठीक पहले यह क़वायद दूसरा शक पैदा करती है। क्या इसके पीछे सरकार का राजनीतिक दबाव है? क्या सरकार वाक़ई उन लोगों को बाहर करना चाहती है जो उसे लगता है कि उसकी राजनीतिक आकांक्षाओं के विरुद्ध हैं? चुनाव आयोग यह भी कह रहा है कि बिहार के जो लोग बाहर रह रहे हैं, वे वहीं के मतदाता बनें और वहीं वोट करें। लेकिन जिस युवा आबादी पर इन दिनों तमाम राजनीतिक दलों का फोकस है, वह तो रोटी और रोज़गार के लिए बिहार से लगातार बाहर रहने को मजबूर है। ऐसा भी नहीं कि वह किसी एक जगह टिकी हुई है। बहुत बड़ी मज़दूर आबादी को एक नहीं, कई-कई विस्थापन झेलने पड़ते हैं। ये लोग क्या करेंगे?
यह सवाल बिहार की बहुत बड़ी आबादी के सामने मुंह बाए खड़ा है। बहुत बड़ी आबादी अपने पुराने जंग खाए संदूकों में, अपने फटे-पुराने चीथड़ों में, अपने छूटे हुए स्कूलों में अपने होने का प्रमाण खोज रही है ताकि वह साबित कर सके कि वह भी इसी राज्य की है और इसी देश की है। उधर चुनाव आयोग रोज़ आंकड़े देकर बता रहा है कि कितने प्रतिशत लोगों ने अपने फॉर्म जमा करा दिए हैं। लेकिन इस क़वायद में अगर बहुत मामूली प्रतिशत में भी लोग बाहर रह गए तो उनकी संख्या तीस-पैतीस लाख के क़रीब हो सकती है।
ये वे लोग होंगे जिन्होंने पिछले चुनावों में वोट दिया है, जिन्हें राज्य ने नागरिक माना है, जिनके पास वे कई दस्तावेज़ हैं जिनके आधार पर वे बहुत सारे ज़रूरी काम करते रहे हैं। लेकिन चुनाव आयोग एक झटके में उनसे उनकी नागरिकता छीन ले रहा है। यह काम वह किसी के इशारे पर कर रहा हो, या अपनी समझ से- दोनों स्थितियों में अपनी भावनाओं में असंवैधानिक है।
हालांकि क्या इसका कोई प्रतीकात्मक मतलब भी है? आख़िर 140 करोड़ लोगों के भारत की विकास यात्रा में 80 करोड़ से ज़्यादा लोग पीछे छूटे हुए क्यों हैं? क्या हम इन लोगों की परवाह करते हैं? या उन्हें अपना उपनिवेश भर मानते हैं और धीरे-धीरे उनका मताधिकार भी उनसे छीन लेना चाहते हैं? यह शक बेजा नहीं है कि जनता से डरी हुई सरकार जनता को भंग करने पर तुली है।