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बॉलीवुड प्रेम कथा विशेषांक: भगवावुड बनाएँगे, भाजपा को जिताएँगे, ठीक है?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बॉलीवुड के लिए एक राहत पैकेज या फिर आयुष्मान भारत जैसी कोई योजना देनी होगी क्योंकि वहाँ एक गंभीर स्वास्थ्य परिवर्तन हो रहा है। बॉलीवुड के सिस्टम में जेनेटिक बदलाव हो रहे हैं, जहाँ नई पौध से रीढ़ की हड्डी ग़ायब हो रही है। पिछले एक साल की घटनाएँ तो इसी ओर इशारा कर रही हैं।

बॉलीवुड प्रेम कथा भाग 1: अराजनैतिक लोगों की पहली बीमारी- राजनीति

रणवीर सिंह और आलिया भट्ट ने अपनी आनेवाली फ़िल्म ‘गली बॉय’ के प्रमोशन के सिलसिले में फ़िल्म क्रिटिक अनुपमा चोपड़ा से बात करते हुए स्वीकारोक्ति दी कि ये लोग ‘अराजनैतिक’ हैं। यह बात इस फ़िल्म के विवादास्पद गाने आज़ादी को लेकर हो रही थी। ग़ौरतलब है कि आज़ादी का गाना जेएनयू में कन्हैया कुमार और उनके साथियों द्वारा प्रदर्शन के दौरान लगाये नारों से प्रभावित है। हालाँकि जेएनयू में ऐसे नारे बहुत पहले से लगते रहे हैं पर आम जन मानस में कन्हैया मामले की बदौलत ही ये नारे पहुँचे। इस नारे को उसी उत्तेजना के साथ फ़िल्म गली बॉय में भी शामिल किया गया है।

  • लेकिन इस बातचीत के कुछ ही दिनों पहले रणवीर, आलिया समेत तमाम बॉलीवुड सितारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलने पहुँचे थे जहाँ रणवीर ने सेल्फ़ी ली और पीएम को झप्पी भी दी। इनके अलावा कंगना रनौत ने फ़िल्म 'मणिकर्णिका' के प्रमोशन के दौरान भी प्रधानमंत्री से मुलाक़ात की। इनसे पहले कलाकार स्वयंसेवक संघ के तौर पर अक्षय कुमार भी अपनी फ़िल्मों के प्रमोशन के लिए प्रधानमंत्री से मिलते रहे हैं। दिसंबर 2018 में अक्षय कुमार, अजय देवगन, करण जौहर इत्यादि स्वयंसेवकों का दल फ़िल्म इंडस्ट्री के नियमों को लेकर भी पीएम से मिला था। फिर जनवरी, 2019 में भी बहुत सारे लोग प्रधानमंत्री से मिले थे।
प्रधानमंत्री और उनकी टीम ने जवाबी भाईचारा दिखाते हुए सर्जिकल स्ट्राइक पर बनी फ़िल्म ‘उरी’ के प्रसिद्ध डायलॉग 'हाउ इज़ द जो?' का बार-बार इस्तेमाल किया। गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर और बजट पेश करते कार्यवाहक वित्तमंत्री पीयूष गोयल ने भी इसी डायलॉग का इस्तेमाल किया।

बॉलीवुड और राजनीति का यह भाईचारा इससे पहले अजय देवगन, परेश रावल, विवेक अग्निहोत्री, पहलाज निहलानी, अनुपम खेर, किरण खेर, मधुर भंडारकर, सलमान खान इत्यादि से शुरू हुआ था। राखी सावंत, पायल रोहतगी, विवेक ओबेरॉय, प्रसून जोशी, रवीना टंडन में से भी कुछ ने सफलता हासिल कर ली। हालाँकि गाँधी की हत्या को सही ठहराने के बाद भी पायल रोहतगी को वांछित सफलता नहीं मिल पाई है।

भाग 2: अराजनैतिक लोगों की दूसरी बीमारी- पैसा

और अनुमान लगाइए, इस भाईचारे के बाद ग्लैमर और राजनीति के शिखर व्यक्ति किस निष्कर्ष पर पहुँचे?

कलाकारों की टीम ने पीएम से कई बार मुलाक़ात की और इसके बाद वित्तमंत्री पीयूष गोयल ने कहा कि फ़िल्मों की एंटी-पायरेसी को लेकर कड़े कानून बनाये जाएँगे। इसके बाद फ़िल्म उद्योग में हर्ष की लहर दौड़ गई।

2016 में प्रधानमंत्री के विवादास्पद फ़ैसले नोटबंदी के नकारात्मक प्रभावों का पूरा अंदाज़ा अभी तक नहीं लगाया जा सका है। हर महीने कोई ना कोई उसके नए नकारात्मक प्रभाव ले के सामने आ जाता है। पर बॉलीवुड ने उसी साल नोटबंदी को मास्टर स्ट्रोक घोषित कर दिया था। शाहरुख, अजय, अक्षय, करण इत्यादि ने पीएम के फैसले को ख़ूब सराहा था। यहाँ ध्यान देने की बात है कि नोटबंदी से ग़रीब तबक़े की ही कमर टूटी है। उच्च वर्ग को इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ा।

अब फ़िल्मों का एंटी-पायरेसी क़ानून भी ग़रीब तबक़े पर ही लागू होने वाला है। पायरेटेड फ़िल्में ग़रीब तबक़ा ही देखता है। बीस हज़ार महीने कमाने वाला व्यक्ति भी पायरेटेड नहीं देखता। पैसे ख़र्च कर थिएटर में जाता है। उतने ख़राब प्रिंट में कोई फ़िल्म नहीं देखना चाहेगा।

पर ग़रीब लोगों का मनोरंजन बॉलीवुड से बर्दाश्त नहीं हो रहा। उन्हें फ़िल्म के पूरे पैसे चाहिए, एक-एक इंसान से। भले ही 'ठग्स ऑफ़ हिंदुस्तान' जैसी बुरी फ़िल्म को रिलीज करते हुए उसके टिकट के दाम पाँच सौ कर दिये जाएँ। 

इनका कहना है कि पायरेसी से फ़िल्म उद्योग प्रभावित हो रहा है। 'भाई', 'रेस-3', 'ठग्स ऑफ़ हिंदुस्तान', 'चेन्नई एक्सप्रेस' और कपिल शर्मा तक की फ़िल्में सौ करोड़ से कम नहीं कमातीं। और कितना पैसा चाहिए? ऐसा तो नहीं होता कि बॉलीवुड अपने कमाए पैसों को फ़िल्मों के सेट पर दिहाड़ी पर काम करनेवालों में बाँटता है। उन दिहाड़ी लोगों को भी उतना ही मिलता है, जितना किसी अन्य उद्योग के मज़दूरों को।
  • बॉलीवुड तो अपने लेखकों को सही पैसे नहीं देता। स्क्रीन-राइटर्स कब से इस चीज का विरोध कर रहे हैं। स्टंटमैन की मौत की ख़बरें आती रही हैं, हर बार पता चलता है कि इनके लिए कोई इंश्योरेंस भी नहीं रहता। यदा-कदा अमिताभ बच्चन या अन्य कलाकारों द्वारा किसी की मदद कर देने की ख़बरों से इतिश्री कर ली जाती है।

भाग 3: अराजनैतिक लोगों की तीसरी बीमारी- विक्टिम के लिए चुप्पी

पिछले दिनों अमोल पालेकर को एक सरकारी अधिकारी ने अपने विचार रखने से मना कर दिया क्योंकि वह सरकार की आलोचना कर रहे थे। इसके पहले नसीरुद्दीन शाह ने अल्पसंख्यक समाज में बढ़ती असुरक्षा को लेकर चिंता जताई थी तो उनकी ऐसी-तैसी कर दी गई। इससे पहले मरहूम ओम पुरी को सेक्युलरिज़्म पर बोलने के लिए ख़ूब गालियाँ दी गई थीं। तीन-चार साल पहले आमिर खान ने देश में डर लगने की बात कही तो उनको बुरी तरह ट्रोल किया गया था।

बॉलीवुड ने अपने इन कलाकारों का सपोर्ट नहीं किया। न ही कोई डेलिगेशन प्रधानमंत्री के पास गया यह समझाने कि असहमति ही लोकतंत्र का मूल है। ऐसा प्रतीत हुआ कि सारे लोग बोलनेवालों को बेवकूफ़ समझकर हँस रहे थे।

धीरे-धीरे मामला इतना बिगड़ा कि अनुपम खेर और परेश रावल जैसे लोगों ने तो हिंदुत्ववादी अजेंडे को ही सही ठहराना शुरू कर दिया। कंगना रनौत ने तो सद्गुरु के साथ मिलकर मॉब लिंचिंग को ही सामान्य प्रतिक्रिया बना दिया। मधुर भंडारकर और अनुपम खेर ने हिंदुत्ववादी अजेंडे के पक्ष में कैंडल मार्च भी निकाला। इससे भी संतुष्टि नहीं हुई तो सत्ता में बैठी सरकार के मन मुताबिक़ 'इंदु सरकार', 'द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर' जैसी फ़िल्में भी बना डालीं। विवेक ओबेरॉय तो पीएम की बायोपिक बना रहे हैं। हालाँकि पिछले कई सालों से वह भगवा वस्त्र धारण कर मूँछ बढ़ाकर बीजेपी कार्यालयों में भी नज़र आये हैं, पर उन्हें अभी तक मन मुताबिक़ सफलता नहीं मिली है।

भाग 4: अराजनैतिक लोगों की चौथी बीमारी- इतिहास से नफ़रत

'पद्मावत', 'मणिकर्णिका', 'बाजीराव मस्तानी' और अन्य ऐतिहासिक फ़िल्मों में हमने देखा है कि रिसर्च और तथ्यों से बॉलीवुड का बैर ही रहा है। आश्चर्यजनक रूप से बॉलीवुड अपने ही इतिहास को भी भूल गया है। अपने देश की सेंसिटिविटी और जटिलता को समझते हुए बॉलीवुड के ही लोगों ने एक से बढ़कर एक अच्छी फ़िल्में दी हैं। उनको सरकार की दमनकारी नीतियों के आगे नतमस्तक होने की नौबत नहीं आई।
  • इमरजेंसी के दौरान भी लोगों ने सरकारी तंत्र के विरोध में फ़िल्में बनाने की हिमाकत की थी। हाल-फ़िलहाल में विशाल भारद्वाज ने हैदर जैसी अद्भुत फ़िल्म बनाई। अनुराग कश्यप ने मुक्काबाज़ जैसी पॉलिटिकल फ़िल्म बनाई। पर ये लोग तथाकथित मेनस्ट्रीम फ़िल्मों से हटे हुए लोग हैं। जो कथित पॉपुलर कलाकार-निर्देशक हैं, वे इस तरह की फ़िल्में बनाने की ‘बेवकूफ़ी’ नहीं करते हैं। वे साठ-सत्तर के दशक की क़रारी चोट करती फ़िल्में बनाने में विश्वास नहीं रखते।

हरिकथा अनंता

ये तो समझ आ रहा है कि स्मृति ईरानी, हेमा मालिनी, बाबुल सुप्रियो, परेश रावल इत्यादि की तरह बहुत सारे लोगों को सांसदी नज़र आ रही है। पर रवीना टंडन, विवेक ओबेरॉय इत्यादि जैसे लोग तमाम प्रयासों के बावजूद भी अभी वह बात नहीं कह पाये हैं संभवतः जो उन्हें टिकट दिला दे। हाँ, कंगना रनौत ने जिस तरीक़े से करण जौहर और आलिया भट्ट समेत सबकी पोल-पट्टी खोलने की धमकी दी है, वह ज़रूर बता रहा है कि कंगना के पीछे कोई शक्ति तो है। आलिया भट्ट द्वारा काफ़ी विनम्रता से माफ़ी माँगने की बात के बाद भी कंगना ने उन्हें करण जौहर की चमची कहा। कुछ तो अंदाज़ा लगाया ही जा सकता है इस बात से। सत्तारुढ़ दल या किसी ऐसे व्यक्ति से कंगना ज़रूर संपर्क में हो सकती हैं जो उन्हें ग्लैमर के अलावा राजनैतिक ताक़त मुहैया कराने की क्षमता रखता हो।
  • आनेवाले वक़्त में काफ़ी संभावना है कि बहुत सारे कलाकार-निर्देशक इत्यादि संसद या सरकारी प्रतिष्ठानों के निदेशक के तौर पर बैठे नज़र आएँ। हालाँकि बहुत सारे कलाकार तो पीएम के साथ फ़ोटो खिंचाकर या शादी में बुलाकर ही ख़ुश हो जाते हैं।

बॉलीवुड का नाम वैसे भी हॉलीवुड को कॉपी कर बनाया गया है। राष्ट्रवादी सरकार में शायद इसका नाम भगवावुड या कलाकार स्वयंसेवक संघ कर दिया जाए।

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ज्योति यादव
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