उमर खालिद और
उनके सह-आरोपियों का मामला भारत में कानून और व्यवस्था की स्थिति के बारे में
गंभीर सवाल उठा रहा है। यह उन लोगों के लिए एक चेतावनी है जो यह मानते हैं कि कानून
का शासन हमेशा निष्पक्ष और तटस्थ होता है। यह मामला यह दर्शाता है कि कानून का
दुरुपयोग कैसे व्यक्तियों को निशाना बना सकता है, असहमति को दबा सकता है,
और पूरे समाज
में भय का माहौल पैदा कर सकता है।
उमर खालिद, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के पूर्व छात्र नेता, को सितंबर 2020 में गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के तहत गिरफ्तार किया गया था। उन पर 2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुए दंगों की साजिश रचने का आरोप है, जो नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों के बाद भड़के थे। उनके साथ शरजील इमाम, खालिद सैफी, और कई अन्य कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों को भी इस मामले में फंसाया गया है। साढ़े चार साल बाद, इनमें से अधिकांश लोग अभी भी जेल में हैं, बिना किसी ठोस सबूत के कि वे हिंसा के लिए जिम्मेदार थे।
यूएपीए का इस्तेमाल, जिसे आतंकवाद से निपटने के लिए बनाया गया था, इस मामले में असहमति को दबाने के लिए एक हथियार के रूप में किया गया है। इस कानून की कठोर प्रकृति, विशेष रूप से इसकी जमानत विरोधी धाराएं, अभियुक्तों के लिए अपनी निर्दोषता साबित करना लगभग असंभव बना देती हैं।
सामान्य आपराधिक कानून में, अभियोजन पक्ष को अपराध साबित करना होता है, लेकिन यूएपीए अभियुक्त को यह साबित करने की जिम्मेदारी देता है कि वह निर्दोष है। यह कानूनी सिद्धांतों का उल्टा है और यह सुनिश्चित करता है कि लोग बिना मुकदमे के लंबे समय तक हिरासत में रहें। उमर खालिद और अन्य के मामले में, यह प्रक्रिया ही सजा बन गई है।
लंबी हिरासत, सबूतों की कमी, और धीमी गति से चल रही जांच इस मामले को और जटिल बनाती है। दिल्ली पुलिस ने हजारों पन्नों की चार्जशीट दाखिल की है, लेकिन इसमें ज्यादातर सामान्य बयान, सोशल मीडिया पोस्ट, और गवाहों के बयान हैं जो अनुमान और संदेह पर आधारित हैं। कोई ठोस सबूत, जैसे कि हिंसा से सीधा संबंध, पेश नहीं किया गया है। फिर भी, अदालतें बार-बार जमानत याचिकाओं को खारिज कर रही हैं, जिससे यह संदेह पैदा होता है कि क्या यह प्रक्रिया निष्पक्ष है या राजनीतिक दबाव में संचालित हो रही है।
इस मामले का सबसे परेशान करने वाला पहलू यह है कि यह केवल उमर खालिद के बारे में नहीं है। यह उन असंख्य लोगों की कहानी है जो असहमति व्यक्त करने की कीमत चुका रहे हैं। यह एक ऐसी प्रणाली को उजागर करता है जो उन लोगों को दंडित करती है जो सत्ता के खिलाफ बोलते हैं, चाहे वह सीएए-एनआरसी के खिलाफ विरोध हो या सामाजिक-आर्थिक असमानताओं के खिलाफ आवाज उठाना।
यह एक चेतावनी है कि जब कानून का दुरुपयोग होता है, तो यह न केवल व्यक्तियों को प्रभावित करता है, बल्कि पूरे समाज में भय और आत्म-संयम का माहौल पैदा करता है।
न्याय का मतलब केवल अपराधियों को सजा देना नहीं है; इसका मतलब है निष्पक्षता, पारदर्शिता, और मानवाधिकारों का सम्मान। उमर खालिद और अन्य के मामले में, ये सिद्धांत स्पष्ट रूप से अनुपस्थित हैं। उनकी लंबी हिरासत, सबूतों की कमी, और यूएपीए जैसे कठोर कानून का दुरुपयोग यह दर्शाता है कि यह प्रणाली दमन के लिए बनाई गई है, न कि न्याय के लिए। यह एक ऐसी प्रणाली है जो असहमति को अपराध मानती है और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को कमजोर करती है।
इस स्थिति को बदलने के लिए, केवल कानूनी सुधार ही पर्याप्त नहीं हैं। एक ऐसी सामाजिक और राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है जो असहमति को लोकतंत्र का एक आवश्यक हिस्सा माने, न कि खतरा। जब तक ऐसा नहीं होता, उमर खालिद और अन्य जैसे लोग एक ऐसी प्रणाली के शिकार बने रहेंगे जो न्याय का दावा तो करती है, लेकिन व्यवहार में उसका उल्टा करती है।