बिहार विधानसभा चुनााव को लेकर लगातार दो दिनों तक आये एग्ज़िट पोल के नतीजों में फ़र्क़ को देखते हुए एक बार फिर यह सवाल उठा है कि आख़िर इसका मक़सद क्या है। क्या यह मतदान और मतगणना के बीच के समय में किया जाने वाला मनोरंजन भर है या फिर उत्तेजना और उत्सुकता का धंधा? चुनाव के पहले कई महीनों तक ओपीनियन पोल का खेल भी चलता है जो लोगों की इच्छा जानने से ज़्यादा लोगों की इच्छा के निर्माण का प्रयास ज़्यादा लगता है।


2015 और 2020 में बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर हुए एग्ज़िट पोल बुरी तरह धराशायी हुए थे। 2015 में ज़्यादातर सर्वेक्षण एजेंसियों ने महागठबंधन की बढ़त तो बताई थी लेकिन उसे अनुमान से काफ़ी ज़्यादा सीटें आयी थीं। आरजेडी-जेडीयू-कांग्रेस गठबंधन को 178 सीटें आयी थीं जबकि एनडीए महज़ 58 सीटों पर सिमट गया था जबकि ज़्यादातर ने उसे सौ के पार बताया था।


2020 में कोविड-19 और बेरोजगारी के मुद्दों के बीच बावजूद एनडीए को जीत हासिल हुई जबकि एग्ज़िट पोल आरजेडी के नेतृत्व वाले महागठबंधन को स्पष्ट विजेता बता रहे थे। ऐसा ही कुछ 2024 के लोकसभा चुनाव के समय भी देखने को मिला था जब ज़्यादातर सर्वेक्षण एजेंसियाँ एनडीए को किसी तरह खींचतान कर चार सौ पार करा रही थीं। ऐसा लग रहा था कि बीजेपी के चार सौ पार के नारे को सही साबित करने की होड़ लगी हुई है, जबकि हक़ीक़त इससे काफ़ी अलग थी। बीजेपी 240 पर सिमट गयी थी।

ताज़ा ख़बरें

सवाल है कि एग्ज़िट पोल अक्सर ग़लत भी होते हैं और सही हों तो भी इनका कोई आधिकारिक महत्व नहीं होता, फिर भी इन्हें आयोजित करने में समय और संसाधन क्यों ख़र्च किया जाता है?

एग्ज़िट पोल की शुरुआत कैसे?

एग्ज़िट पोल की शुरुआत मतदान केंद्रों से बाहर निकलते मतदाताओं से उनके वोट के बारे में पूछताछ करने की वैज्ञानिक विधि से हुई। इसका उद्देश्य चुनाव परिणाम आने से पहले ही संभावित विजेता और वोट शेयर का अनुमान लगाना था। 9 सितंबर 1919 को न्यूयॉर्क में जन्मे वारन जे .मित्रोफ्स्की को एग्ज़िट पोल का जनक यानी फादर ऑफ एग्जिट पोल्स कहा जाता है। कोलंबिया यूनिवर्सिटी से सांख्यिकी में एम.ए करने वाले वारन द्वितीय विश्वयुद्ध में अमेरिकी सेना में सांख्यिकी अधिकारी थे। 


वारन ने 1967 में एग्जिट पोल की शुरुआत की। अमेरिका में केंटकी राज्य के गवर्नर का चुनाव हो रहा था। सीबीएस न्यूज़ के लिए उन्होंने एग्जिट पोल किया। मतदान केंद्र के बाहर मतदाताओं से पूछा कि वोट किसे दिया। लेकिन यह स्टैटिफाइड रैंडम सैंपलिंग थी। यानी क्षेत्र, भाषा, लिंग, नस्ल सभी का ध्यान सैंपल में रखा गया। नतीजा क्रांतिकारी था। गलती एक फ़ीसदी से भी कम निकली।

इसके बाद तो वारन सर्वेक्षणों की दुनिया में छा गये। 1972 में एग्जिट पोल ने रिचर्ड निक्सन के राष्ट्रपति बनने का सही अनुमान लगाया गया। वारन ने 1976 के राष्ट्रपति चुनाव में जिमी कार्टर की जीत की सटीक भविष्यवाणी की। 1980 में रोनाल्ड रीगन की धमाकेदार जीत की घोषणा नतीजे से पहले कर दी।

ये छोटे नमूने से बड़े क्षेत्र के मिज़ाज को समझने की तकनीक थी जिसे ‘मित्रोफ्स्की मॉडल’ कहा गया। भारत में भी 1996 में पहली बार एग्जिट पोल इसी मॉडल पर आधारित था। वारन जे. मित्रोफ्स्की न केवल एक पोलस्टर थे, बल्कि चुनाव विज्ञान के आर्किटेक्ट थे। उन्होंने मतदाता के मन को पढ़ने की कला को विज्ञान बना दिया।


बहरहाल…ये सवाल तो फिर भी रह गया कि इस अनुमान का हासिल क्या होता है…ये क्यों किया जाता है?

और फिर धंधा बन गया!

दरअसल, आगे चलकर नतीजों को लेकर लोगों में पसरी उत्सुकता और उत्तेजना को व्यापार बना दिया गया। तमाम एग्जिट पोल एजेंसियाँ किसी चैनल के लिए काम करती हैं। उन्हें पैसे मिलते हैं। जब ये नतीजे देते हैं तो उन पर दिन भर चर्चा होती है जिसके बीच विज्ञापनों की भरमार होती है। एग्जिट पोल के बीच चलने वाले विज्ञापनों की दर आम दरों से काफ़ी ज़्यादा होती है। तो ये कमाई का भी धंधा होता है। यह सब क़ानूनी है लेकिन इसे लेकर एक और धंधा भी चलता है जो कई देशों में ग़ैरक़ानूनी है। यह है सट्टेबाज़ी का धंधा। नतीजों के आधार पर सट्टा लगाया जाता है। उधर शेयर बाज़ार भी इससे प्रभावित होता है जिस सरकार के आने की संभावना होती है उसकी नीतियों को देखते हुए शेयर बाज़ार में चुनिंदा कंपनियों के शेयर उछाल मारते हैं। यह अलग बात है कि नतीजे सही नहीं हुए तो ये शेयर उसी अनुपात में नीचे चले जाते हैं। कुल मिलाकर मतदान और मतगणना के बीच एक ऐसा खेल रचा जाता है जिसमें अरबों का व्यारा-न्यारा होता है।

विश्लेषण से और ख़बरें

एग्ज़िट पोल के अलावा ओपीनियन पोल्स का भी मायाजाल चलता है। ओपीनियन पोल यानी लोगों की ओपीनियन या राय जानने का तंत्र। इतिहास में दर्ज हुआ पहला ओपीनियन पोल 1834 का मिलता है जब हेरिसबर्ग पेन्सेलवेनिया ने 1836 में होने जा रहे अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव को लेकर लोगों के बीच रायशुमारी की थी। लेकिन सैंपल साइज़ बहुत छोटा था, एक ही शहर का था और रैंडम सैंपलिंग भी नहीं थी। यानी कोई वैज्ञानिक विधि नहीं अपनायी गयी थी। यह पोल "स्ट्रॉ पोल" (Straw Poll) कहलाता था – अनौपचारिक, गैर-वैज्ञानिक।


फिर एक शख़्स ने इसे प्रामाणिक बनाया लेकिन इसमें सौ साल लग गये। ऐसा करने वाले का नाम था जार्ज गैलप।


जार्ज होरेस गैलप क जन्म 18 नवंबर1901 को आयोवा, अमेरिका में हुआ था। गैलप सर्वेक्षण वैज्ञानिक, पत्रकार और सांख्यिकीविद थे। इन्हें ‘फादर आफ माडर्न पोलिंग’ कहा जाता है। जार्ज गैलप ने 1935 में अमेरिकन इंस्टीट्यूट आफ पब्लिक ओपीनियन की स्थापना की और 1936 के राष्ट्रपति चुनाव में रूज़वेल्ट की जीत की सटीक भविष्यवाणी की। उन्होंने एक वैज्ञानिक विधि बनायी थी लोगों की राय जानने के लिए: 

  • क्वोटा सैंपलिंग- बाद में रैंडम सैंपलिंग
  • राष्ट्रीय नमूना (पूरे देश से) 
  • मानकीकृत प्रश्न 
  • त्रुटि मार्जिन की अवधारणा शुरू की

गैलप का एक प्रसिद्ध कथन है- "The will of the people is the only legitimate foundation of any government.” यानी "लोगों की इच्छा ही किसी भी सरकार का एकमात्र वैध आधार है।” पर इच्छा जानने के इस खेल में क्या ‘इच्छा निर्माण’ का छिपा हुआ खेल भी शामिल है? 


अमेरिका के ही प्रसिद्ध भाषा विज्ञानी, दार्शनिक और मीडिया विश्लेषक नोम चॉम्स्की ने एडवर्ड एस.हर्मन के साथ एक सिद्धांत दिया—मैन्यूफ़ैक्चरिंग कन्सेंट यानी जनमत निर्माण। 1988 में इसी शीर्षक से प्रकाशित किताब में कहा गया था कि "मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ नहीं, बल्कि सत्ता का हथियार है।” मीडिया धन, विज्ञापन, मालिकों और सरकारी दबाव के कारण ऐसी खबरें दिखाता है जो सत्ता को फायदा पहुँचाए, न कि सच। इससे जनता झूठी सहमति (consent) देती है। मीडिया किसी नेता के कवरेज को इस अंदाज़ में कर सकता है कि जनता उसे महा-मानव मानने लगे। चोम्स्की ने सच्चाई और जनता के बीच पाँच फिल्टर्स की बात की:

चोम्स्की ने सच्चाई और जनता के बीच पाँच फिल्टर्स की बात की

इसका सटीक उदाहरण देखना हो तो इराक युद्ध (2003) को याद कीजिए। अमेरिकी मीडिया ने WMD (यानी वेपन आफ मास डिस्ट्रक्शन, जन संहारक हथियारों की झूठी खबरें चलायीं। नतीजा ये हुआ कि जनता ने युद्ध का समर्थन किया। बाद में इराक़ मैं ऐसा कोई हथियार नहीं मिला। 

भारत में ओपीनियन पोल

भारत में ओपीनियन पोल की शुरुआत 1950 के दशक में हुई और 1980 के दशक से मीडिया ने इन्हें लोकप्रिय बनाया। 1957 में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक ओपिनियन (IIPO) के प्रमुख एरिक डी. कोस्टा ने पहला सर्वे किया। 1960 के दशक में दिल्ली आधारित सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (CSDS) ने एग्जिट पोल को वैज्ञानिक रूप दिया। ये शोध-उन्मुख थे, मीडिया से दूर। लेकिन मीडिया कब तक इसे दूर रख सकता था। 1980 के दशक में मीडिया ने इसे अपना लिया।

सर्वाधिक पढ़ी गयी ख़बरें

1980 के दशक में प्रणय रॉय (जिन्होंने बाद में एनडीटीवी की स्थापना की) ने डेविड बटलर के साथ पहला मीडिया-आधारित सर्वे किया। इंडिया टुडे और दूरदर्शन ने ओपिनियन पोल शुरू किए। यह दशक "मीडिया पोलिंग" का दौर था। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के प्रसार ने एग्जिट पोल को नियमित बना दिया। 1996 के लोकसभा चुनाव में एग्जिट पोल दिखाया गया। 2000 से कई एजेंसियाँ मैदान में कूद पड़ीं और कहीं न कहीं जनमत को प्रभावित करने का खेल भी शुरू हो गया। 


1998 में चुनाव आयोग (ECI) ने संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत दिशानिर्देश जारी किए। लेकिन मीडिया ने इसे अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमला बताया। ऐसे में 2004 में जनप्रतिनिधित्व क़ानून में संशोधन किया गया: 

  • ओपिनियन पोल: अंतिम चरण से 48 घंटे पहले तक प्रकाशित किये जा सकते हैं। 
  • एग्ज़िट पोल अंतिम चरण के मतदान के बाद ही प्रसारित किये जा सकते हैं।

निश्चित ही इससे कुछ फ़र्क़ पड़ा वरना मतदान के हर चरण के बाद आने वाले एग्जिट पोल के नतीजे अगले चरण को प्रभावित कर सकते थे। और इस तकनीक का इस्तेमाल जनमानस को बनाने या बिगाड़ने के लिए किया जा सकता था। 


ये सही है कि कई बार एग्जिट पोल सही भी होते हैं और कई बार ग़लत भी। लेकिन इस बात को हमेशा याद रखना चाहिए कि यह कोई निर्दोष या साफ़ नीयत से किया जाने वाला खेल नहीं है। यह पैसे से सत्ता और सत्ता से पैसा बनाने के दुश्चक्र का ही एक हिस्सा बन चुका है। तकनीक के बेज़ा इस्तेमाल का एक और उदाहरण जो लोकतंत्र को कमज़ोर करता है और जनता को छलता है।