जिस कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष ने यशवंत सिन्हा को राष्ट्रपति उम्मीदवार उतारा है क्या सभी विपक्षी दल उनको समर्थन करेंगे? क्या कांग्रेस की दलीलों के बाद विपक्षी दल यशवंत सिन्हा के समर्थन में आएँगे? अब कांग्रेस नेता अजय कुमार ने तो सिन्हा के लिए समर्थन जुटाने के लिए यहाँ तक कह दिया है कि एनडीए की राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू 'इविल फिलॉस्फी ऑफ़ इंडिया' यानी 'दुष्ट विचारधारा' का प्रतिनिधित्व करती हैं और उन्हें 'आदिवासियों का प्रतीक' नहीं बनाया जाना चाहिए। इस टिप्पणी पर बीजेपी या दूसरे दलों के नेता जैसी भी टिप्पणी करें, लेकिन क्या इससे यह साफ़ नहीं होता है कि विपक्षी दल द्रौपदी मुर्मू का समर्थन करती नज़र आ रही हैं।
तो सवाल है कि आख़िर जिस विपक्ष ने अपना उम्मीदवार उतारने के लिए एक के बाद एक कई बैठकें कीं, कई नामों पर चर्चा की और फिर जब नाम तय भी कर लिए तो अब इसमें से कई दल बीजेपी के नेतृत्व में एनडीए उम्मीदवार का समर्थन क्यों कर रहे हैं? आख़िर उनकी क्या मजबूरी है?
ओडिशा में बीजेडी, झारखंड में जेएमएम और पश्चिम बंगाल में टीएमसी जैसे दलों को छोड़ भी दें तो महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना बीजेपी की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू को समर्थन करती क्यों नज़र आ रही है? यह वही उद्धव ठाकरे हैं जिनकी कुर्सी कथित तौर पर बीजेपी की वजह से चली गई, क्योंकि शिवसेना के ही बागी के साथ उसने सरकार बना ली। उद्धव खेमा ही आरोप लगाता रहा है कि बीजेपी ने महा विकास अघाडी सरकार को गिरा दिया।
शिवसेना ने खुले तौर पर द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति चुनाव में समर्थन देने का ऐलान कर दिया है। उद्धव ठाकरे ने मंगलवार को ही कहा है कि पिछले कई दिनों से महाराष्ट्र में शिवसेना के कुछ सांसदों और जिला अध्यक्षों ने राष्ट्रपति के चुनाव में एनडीए की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू को समर्थन करने की मांग की थी जिसके बाद पार्टी ने फैसला किया है कि राष्ट्रपति के चुनाव में द्रौपदी मुर्मू को शिवसेना समर्थन करेगी।
बीजेपी की धुर विरोधी ममता की टीएमसी भी द्रौपदी मुर्मू को लेकर दुविधा में है। टीएमसी वह पार्टी है जो विपक्षी उम्मीदवार तय किए जाने को लेकर काफी सक्रिय रही थी। इसने कई बठकें कराईं। माना जाता है कि यशवंत सिन्हा के उम्मीदवार उतारे जाने में टीएमसी का भी हाथ रहा है। तो सवाल है कि अब यही टीएमसी असमंजस में क्यों है?
क्या टीएमसी को डर है कि द्रौपदी मुर्मू का विरोध करने पर पश्चिम बंगाल में अगले साल होने वाले पंचायत चुनाव और 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले आदिवासी मतदाता नाराज़ हो सकते हैं?
पश्चिम बंगाल की आबादी में आदिवासियों की हिस्सेदारी 7 से 8 प्रतिशत के बीच है।
तो क्या यही वह डर है जो कई विपक्षी दलों को भी सता रहा है? क्या आदिवासी जनसंख्या या मतदाताओं के छिटकने की आशंका में ही विपक्षी दल द्रौपदी मुर्मू के समर्थन में आ रहे हैं?
इन सवालों के जवाब देश में और राज्यों में आदिवासियों की जनसंख्या से लगाया जा सकता है। पूरे देश की बात करें तो भारत की जनसंख्या की क़रीब 8.6 फ़ीसदी आबादी आदिवासी है। वैसे तो पूर्वोत्तर के राज्यों में आदिवासी बहुसंख्यक में हैं, लेकिन ओडिशा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में भी आदिवासियों की जनसंख्या ठीकठाक है।
झारखंड में आदिवासियों की आबादी 26.2 प्रतिशत तो छत्तीसगढ़ में 30.6 प्रतिशत है। ओडिशा में भी 22.8 फ़ीसदी आबादी आदिवासियों की है।
![few opposition parties support nda presidential candidate draupadi murmu - Satya Hindi few opposition parties support nda presidential candidate draupadi murmu - Satya Hindi](https://satya-hindi.sgp1.cdn.digitaloceanspaces.com/app/uploads/24-12-19/5e0173444dc50.jpg)
तो क्या यही वजह है कि झारखंड में कांग्रेस के साथ सरकार बनाने वाले हेमंत सोरेन के जेएमएम ने एनडीए उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू को समर्थन देने की बात कही है? मुर्मू झारखंड की राज्यपाल रही थीं। वह ऐसा करने वाली पहली आदिवासी महिला थीं। क्या आदिवासियों की बड़ी आबादी ही वह वजह है कि ओडिशा में सत्तारूढ़ नवीन पटनायक ने द्रौपदी मुर्मू को समर्थन देने की बात कही है? हालाँकि मुर्मू का संबंध ओडिशा से रहा है क्योंकि यह उनका गृह राज्य है। इधर आदिवासियों की ठीकठाक आबादी वाले छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार है और कांग्रेस फ़िलहाल यशवंत सिन्हा के समर्थन में ही है।
वैसे, बीजेपी द्वारा आदिवासी समुदाय से आने वाली द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति उम्मीदवार उतारे जाने पर इसे 'मास्टर स्ट्रोक' कहा जा रहा है। क्या यह सच में मास्टर स्ट्रोक ही है? या फिर बीजेपी का आदिवासियों के उत्थान को लेकर की गई एक पहल?
इस सवाल का जवाब इससे भी मिल सकता है कि क्या आदिवासियों की अधिकता वाले राज्यों में आदिवासी कभी ऊँचे पदों पर पहुँचे? मिसाल के तौर पर त्रिपुरा जैसे राज्यों में क्या आदिवासी मुख्यमंत्री नहीं बनाया जा सकता था? क्या वहां का मुख्यमंत्री कोई आदिवासी हो सकता है?
उत्तर पूर्व के ही अरुणाचल प्रदेश, नगालैंड, मिजोरम, मेघालय जैसे राज्यों में क्या आदिवासी राजनीति में ताक़तवर स्थिति में हैं? उत्तर पूर्व के सिक्किम में 33.8 फ़ीसदी और मणिपुर में 35.1 फ़ीसदी आदिवासी आबादी है। तो क्या अब यह उम्मीद की जा सकती है कि उन राज्यों में भी अब सभी राजनीतिक दल आदिवासियों को ऐसी ही अहमियत देंगे ताकि उनका उत्थान हो सके? क्या मुर्मू के राष्ट्रपति बनने पर स्थिति बदल सकती है? क्या दलितों की स्थिति बदली जब राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद चुने गए?
अपनी राय बतायें