क़रीब दस साल पहले 'कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा?’ राष्ट्रीय विमर्श का मुद्दा बन गया था और 2023 में RRR फिल्म के गाने 'नाटू नाटू' को ऑस्कर में 'बेस्ट ओरिजिनल सॉन्ग' का पुरस्कार मिला था। बॉक्स ऑफिस पर धमाल मचाने वाली इन फ़िल्मों के निर्माता निर्देशक हैं एस. राजामौली। इन दिनों वे अपनी नयी फ़िल्म वाराणसी को लेकर चर्चा में हैं। लेकिन यह चर्चा उनकी क्रियेटिविटी के लिए नहीं, फ़िल्म के ट्रेलर रिलीज़ करते वक़्त दिये गये उनके एक बयान की वजह से है जिसकी वजह से उनके ख़िलाफ़ एफआईआर दर्ज हो गयी है। उन्हें क़ानूनी लफड़े में डाल दिया है।
15 नवंबर 2025 को हैदराबाद के रामोजी फिल्म सिटी में इस फिल्म का बड़ा इवेंट था। वहाँ टीजर दिखाने में टेक्निकल गड़बड़ हो गई। इससे राजामौली बहुत इमोशनल हो गए और भाषण में कहा–
“मुझे भगवान पर ज्यादा विश्वास नहीं है। मेरे पिता जी ने कहा था कि हनुमान जी मेरे पीछे हैं, सब संभाल लेंगे। लेकिन ये गड़बड़ हुई तो मैं हनुमान जी से नाराज हो गया। मैंने उनसे कहा – क्या ऐसा ही संभालते हो? मेरी पत्नी भी हनुमान जी की बड़ी भक्त हैं, उनसे भी बात करती हैं जैसे दोस्त हों। मैं उनसे भी गुस्सा हो गया – क्या ऐसे करते हैं?”
राजामौली ने ये भी कहा कि ‘वो खुद नास्तिक हैं, भगवान पर विश्वास नहीं करते।’ ये बात वायरल हो गई। और उन पर लग गया हिंदू भावनाओं को ठेस पहुँचाने का आरोप। ‘राष्ट्रीय वानर सेना’ ने हैदराबाद में और ‘हिंदू सेना’ ने दिल्ली में राजामौली के ख़िलाफ़ एफआईआर दर्ज करायी।
क्या नास्तिक होना गुनाह है?
राजामौली पर एफआईआर से ये सवाल उठ गया है कि क्या नये भारत में ईश्वर की अवधारणा पर विश्वास न करना यानी नास्तिक होना गुनाह हो गया है। क्या संविधान का वह अनुच्छेद ख़ारिज कर दिया गया है जिसमें सबको अपनी आस्था के हिसाब से। जीने का हक़ है और इसमें किसी पर आस्था न रखने का अधिकार भी शामिल है।
संविधान का अनुच्छेद 25- भारत के हर नागरिक को अंतःकरण की स्वतंत्रता देता है। संविधान का अनुच्छेद 19 अभिव्यक्ति की आज़ादी देता है। यानी आप किसी धर्म को मानें या न मानें, ये आपकी मर्जी। नास्तिक होना पूरी तरह कानूनी है। सुप्रीम कोर्ट ने भी कई बार कहा है कि नास्तिकता के प्रचार करने का हक़ है, ये अभिव्यक्ति की आजादी में आता है। जैसे किसी धर्म को मानने और उसके प्रचार की आज़ादी है।
वैसे, राजामौली के एक बयान को लेकर एफआईआर करवाने वाले धर्मध्वजाधारी क्या शहीदे आज़म भगत सिंह को दोबारा फाँसी पर चढ़ाने की माँग करेंगे जिन्होंने ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ' जैसे प्रसिद्ध लेख लिखा था। भगत सिंह सिर्फ बम-पिस्तौल नहीं थे, वे एक उच्च कोटि के दार्शनिक और लेखक भी थे। उन्होंने फाँसी के फंदे पर चढ़ने के पहले एक प्रसिद्ध लेख लिखकर बताया था कि वे नास्तिक क्यों हैं। उनसे कहा जा रहा था कि मरने से पहले ईश्वर में अपनी आस्था जता दें ताकि उनकी मुक्ति हो जाये। लेकिन भगत सिंह ने इसे कायरता माना और विस्तार से जवाब दिया कि नास्तिक होना उनका अहंकार नहीं, उन्होंने लंबे विचार-विमर्श और अध्ययन के बाद यह पाया है कि दुनिया को चलाने वाले किसी सर्वशक्तिमान ईश्वर की बात महज़ कल्पना है। इस लेख में वे कहते हैं..
“अंग्रेजों की हुकूमत यहाँ इसलिये नहीं है कि ईश्वर चाहता है बल्कि इसलिये कि उनके पास ताकत है और हममें उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं। वे हमको अपने प्रभुत्व में ईश्वर की मदद से नहीं रखे हैं, बल्कि बन्दूकों, राइफलों, बम और गोलियों, पुलिस और सेना के सहारे। यह हमारी उदासीनता है कि वे समाज के विरुद्ध सबसे निन्दनीय अपराध – एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र द्वारा अत्याचार पूर्ण शोषण – सफलतापूर्वक कर रहे हैं। कहाँ है ईश्वर? क्या वह मनुष्य जाति के इन कष्टों का मज़ा ले रहा है? एक नीरो, एक चंगेज, उसका नाश हो!”निश्चित ही भगत सिंह के इस लिखित बयान के सामने राजमौली की सिर्फ़ हनुमान जी को न मानने की बात बहुत सामान्य है। तो क्या न्यू इंडिया में भगत सिंह को सिर्फ़ पूजने की आज़ादी बचेगी, उनके इस लेख को बाँचना गुनाह करार दिया जाएगा।
फिर भगत सिंह ही क्यों भारत में कई धार्मिक धाराएँ भी ऐसी हैं जो हनुमान, राम, कृष्ण या किसी भी देवी-देवता को नहीं मानतीं। उनका क्या होगा?
आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती अवतारवाद और मूर्तिपूजा के कट्टर विरोधी थे। उनका लिखा सत्यार्थ प्रकाश एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है जिसमें इसका खंडन किया गया है। आज भी आर्यसमाज मंदिर हर शहर में हैं तो क्या नये भारत में उन पर ताला लगा दिया जाएगा। कोई हिंदू सेना या वानर सेना कभी भी उन पर हमला बोल सकती है।
वैसे, भारत में नास्तिकों की लंबी परंपरा है। ईसा से सैकड़ों साल पहले जन्मे बौद्ध और जैन दर्शनों में सर्वशक्तिमान ईश्वर की कोई कल्पना नहीं है। ये वेदों को नहीं मानते। गौतम बुद्ध कहते थे ‘अप्प दीपों भव’ यानी किसी की बात न मानकर अपना प्रकाश ख़ुद बनो। तभी किसी विचार को मानो जब उस पर तुम्हारी सहमति हो। किसी के कहने से नहीं।
जैन दर्शन क्या कहता है?
उधर, जैन दर्शन के अनुसार ब्रह्मांड शाश्वत है और अपने प्राकृतिक नियमों के अनुसार चलता है। इसमें किसी दिव्य रचयिता या नियंत्रक की आवश्यकता नहीं है। इसके अलावा चार्वाक और सांख्य दर्शन भी ईश्वर की अवधारणा में विश्वास नहीं करते। सांख्य दर्शन तो भारत के प्रसिद्ध षडदर्शनों में एक है।
चार्वाक दर्शन दुनिया का सबसे पुराना भौतिकवादी दर्शन है जो भारत में पनपा। इसके प्रणेता ब्रहस्पति ‘ऋषि’ कहे जाते हैं। चार्वाक दर्शन कहता है कि सिर्फ वो सच है जो आँखों से दिखे। ईश्वर, स्वर्ग-नर्क, पुनर्जन्म सब झूठ। कहते हैं कि चार्वाक दर्शन के तमाम ग्रंथों को नष्ट कर दिया गया। इसके बारे में जो मिलता है वह इसकी आलोचना करने वाले ग्रंथों में मिलता है जिसमें एक प्रसिद्ध श्लोक है “यावत् जीवेत् सुखं जीवेत्, ऋणं कृत्वा घृतं पीबेत्” – जब तक जियो सुख से जियो, उधार लेकर घी पीयो! चार्वाक कहते थे वेद झूठे हैं, पुजारी लोगों को बेवकूफ बनाते हैं।
सांख्य दर्शन में क्या?
सांख्य दर्शन के प्रणेता कपिल मुनि को माना जाता है। वे भी ईश्वर को मान्यता नहीं देते थे। सांख्य के मुताबिक़ पुरुष और प्रकृति से दुनिया चलती है। इसमें प्रकृति (पदार्थ) और पुरुष (आत्मा) को दो मूल और अलग-अलग तत्व माना जाता है। दिलचस्प बात ये है कि यह वेदों को प्रमाण मानता है, इसलिए इसे आस्तिक दर्शन माना जाता है। नास्तिक होने का एक अर्थ वेदों को प्रमाण न मानना भी है।
भारत में हिंदू धर्म में सबसे पवित्र वेद माने जाते हैं, लेकिन ऋग्वेद में ही ईश्वर के प्रमाण पर संशय किया गया है। जिन लोगों ने दूरदर्शन के ज़माने का भारत एक खोज सीरियल याद होगा, जिसे श्याम बेनेगल ने बनाया था, उन्हें शायद शुरुआत का वह गीत भी याद होगा। उसकी धुन आज भी ठिठकने को मजबूर करती है। यह ऋग्वेद के दसवें मंडल के नासदीय सूक्त का अनुवाद था। इसमें शुरू में कहा गया है कि-
सृष्टि से पहले सत् नहीं था,
असत् भी नहीं
अंतरिक्ष भी नहीं,
आकाश भी नहीं था।
छिपा था क्या, कहां,
किसने ढका था।
उस पल तो अगम, अतल
जल भी कहां था।
अंत में यह सूत्र कहता है…
सृष्टि ये बनी कैसे,
किससे
आई है कहां से?
कोई क्या जानता है,
बता सकता है?
देवताओं को नहीं ज्ञात
वे आए सृजन के बाद।
सृष्टि को रचा है जिसने,
उसको, जाना किसने।
सृष्टि का कौन है कर्ता,
कर्ता है व अकर्ता?
ऊंचे आकाश में रहता,
सदा अध्यक्ष बना रहता।
वहीं सचमुच में जानता
या नहीं भी जानता।
है किसी को नहीं पता,
नहीं पता,
नहीं हैं पता,
नहीं हैं पता।
यानी ऋग्वेद को भी संदेह है कि सचमुच सृष्टि का कोई रचनाकार है भी या नहीं! यह भारतीय तर्कशास्त्र का बीचमंत्र है। वैदिक काल में मनुष्य प्रकृति से जूझ रहा था। कभी आँधी से जूझता था तो कभी पानी से…कभी आग से परेशान हो जाता था। भारी जंगल थे तो सुबह की किरणें जब घने पेड़ों के पत्तों से छनकर धरती पर गिरती थीं तो उसे दैवीय आभा नज़र आती थी। इसीलिए वेदों में सबसे महत्वपूर्ण देवता वही हैं- अग्नि, वायु, इंद्र, उषा।विज्ञान का जन्म
बहरहाल, ऋग्वेद में जो संदेह है वही आगे चलकर मनुष्य की प्रश्नाकुलता बना। उसकी जिज्ञासा ने विज्ञान को जन्म दिया जिसके बल पर मनुष्य ने प्रकृति पर विजय प्राप्त की और प्राकृतिक कोप से बचने वाले तमाम देवताओं का लोप हो गया। भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में यही हुआ। नये-नये धर्म आये जिन्होंने माना कि एक निराकार ईश्वर है जिसने सृष्टि की रचना की। लेकिन विज्ञान का चक्का तेज़ होता चला गया। 2025 में दुनिया की सबसे बड़ी संचालक शक्ति विज्ञान ही है। कुछ समय पहले दिवंगत हुए मशहूर विज्ञानी स्टीफ़न हाकिंग ने किताब लिखी है जो उनकी आख़िरी किताब भी है- “Brief Answers to the Big Questions” हॉकिंग ने बिग बैंग और ब्लैक होल पर काम किया। उनका मानना था विज्ञान सब जवाब दे सकता है, ईश्वर की जरूरत नहीं। इस किताब में उन्होंने लिखा- ‘There is no God. No one created the universe and no one directs our fate.’
यानी ईश्वर नहीं है। किसी ने इस ब्रह्मांड की रचना नहीं की और कोई हमारे भाग्य का नियंता नहीं है। हॉकिंग मानते थे कि ब्रह्मांड खुद gravity यानी गुरुत्वाकर्षण के नियमों से बन गया। ईश्वर की ज़रूरत नहीं। सृष्टि रचना के सवाल पर उन्होंने कहा था– “सबसे सिंपल एक्सप्लानेशन यही है कि ईश्वर नहीं है। स्वर्ग-नर्क भी नहीं।”
धर्म, ख़ासतौर पर कर्मकांडों के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए भारत में हॉकिंग जैसे किसी विज्ञानी के लिए जेल ही जगह हो सकती है, लेकिन दुनिया में नास्तिकता (atheism) या धार्मिक रूप से अनबद्ध (unaffiliated) लोगों की संख्या बढ़ रही है। हाल के अध्ययनों के अनुसार, यह वृद्धि मुख्य रूप से विकसित और औद्योगिक देशों में हो रही है। गैलप इंटरनेशनल की 2025 की रिपोर्ट कुछ महत्वपूर्ण जानकारी देती है इसके मुताबिक़-
- 2005 से 2024 तक धार्मिक पहचान रखने वाले लोगों का प्रतिशत 68% से घटकर 56% हो गया है, जबकि नास्तिकों या गैर-धार्मिक लोगों की संख्या बढ़ी है।
- प्यू रिसर्च की 2025 की रिपोर्ट के मुताबिक़ दुनिया की कुल आबादी (करीब 8.2 अरब) में गैर-धार्मिक लोग लगभग 23-25% हैं, जो करीब 1.9 अरब लोग हैं।
- सख्त नास्तिक (जो स्पष्ट रूप से ईश्वर को नकारते हैं) का प्रतिशत 7-14% के बीच है।
- 2010 से 2020 तक अनबद्ध लोगों की संख्या 17% बढ़ी है।
यही नहीं, प्यू रिसर्च की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक़ दुनिया के दस देश ऐसे हैं जहाँ ईश्वर को न मानने वालों की तादाद धार्मिक लोगों से ज़्यादा हो गयी है। चीन में 91%, जापान में 86%, स्वीडन में 78%, चेक रिपब्लिक में 75%, ब्रिटेन में 72%, बेल्जियम में 72%, एस्टोनिया में 72%, ऑस्ट्रेलिया में 70%, नार्वे-70% और डेनमार्क में 68% लोग ईश्वर को नहीं मानते।
किन देशों में नास्तिकता बढ़ रही?
यहाँ ये गौर करने वाली बात है कि जिन देशों में नास्तिकता बढ़ रही है वे आर्थिक रूप से समृद्ध देश हैं। यानी रोटी, कपड़ा और मकान या शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए लोगों को मंदिर, मस्जिद या चर्च की शरण में नहीं जाना पड़ता। सरकार ने जो तंत्र बनाया है, या अर्थव्यवस्था की गति के कारण उनकी यह ज़रूरतें पूरी होती हैं? तो क्या ईश्वर का अस्तित्व भय और आशंका पर टिका है। बहुत लोग इसका जवाब ‘हाँ’ में देते हैं।
भारतीय अर्थव्यवस्था कहने को तो चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है पर प्रति व्यक्ति आय के मामले में भारत 194वें देशों में142वें स्थान पर है। एक फ़ीसदी लोगों के पास कुल संपत्ति का चाालीस फ़ीसदी है। अस्सी करोड़ लोग सरकार के पाँच किलो राशन पर आश्रित है और मौजूदा सरकार के लिए यह शर्म नहीं, गर्व की बात है। इसका ढिंढोरा पीटकर चुनावों में वोट लिया जाता है। सवाल करने वालों को देशद्रोही बताया जाता है।
इसलिए राजमौली के ख़िलाफ़ हुई एफआईआर कोई अलग-अलग घटना नहीं है। यह बौद्धिक रूप से बदहाल और आर्थिक रूप से लोगों को कंगाल बनाने वाली व्यवस्था को बचाये और बनाये रखने का सुरक्षा चक्र है जो धर्मरक्षा का नारा देकर नौजवानों को वानर सेना में बदल रहा है।