भारत आख़िर युद्धविराम के लिए सहमत क्यों हुआ, वह भी तब जब पाकिस्तान के ख़िलाफ़ भारतीय सेना का शानदार अभियान चल रहा था, पाकिस्तानी हमले नाकाम हो रहे थे, लाहौर में पाकिस्तान का एयर डिफेंस सिस्टम तहस-नहस कर दिया गया था और भारतीय सेना की धमक का अहसास पाकिस्तानी सेना के मुख्यालय रावलपिंडी तक था? आख़िर भारत ने ऐसा फ़ैसला क्यों किया जिसमें यह ऐसे युद्धविराम के लिए सहमत हुआ जिसकी कथित तौर पर अमेरिका ने मध्यस्थता की। भारत द्विपक्षीय मामलों में मध्यस्थता का विरोध करता रहा है। तो सवाल वही है कि आख़िर भारत ने क्या सोचकर युद्धविराम के लिए हामी भरी?

दरअसल, 22 अप्रैल को कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले ने इस तनाव को भड़काया। इसके बाद भारत ने ऑपरेशन सिंदूर के तहत पाकिस्तान में आतंकी ठिकानों पर हमले किए। इसके जवाब में पाकिस्तान ने भी सैन्य कार्रवाई की। भारत और पाकिस्तान के बीच हाल ही में बढ़े तनाव ने एक बार फिर वैश्विक ध्यान खींचा, खासकर जब दोनों देशों के बीच सैन्य झड़पें परमाणु युद्ध की आशंका तक पहुँच गईं।

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भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव उस समय चरम पर पहुँच गया जब पाकिस्तानी और भारतीय वायुसेनाओं के बीच हवाई झड़पें शुरू हुईं और पाकिस्तान ने भारत की वायु रक्षा के ख़िलाफ़ 300-400 ड्रोन भेजे। सबसे गंभीर घटना तब हुई जब पाकिस्तान के रावलपिंडी में नूर खान वायुसेना अड्डे पर विस्फोट हुए। यह अड्डा न केवल पाकिस्तान की सैन्य परिवहन और हवाई ईंधन भरने की क्षमता का केंद्र है, बल्कि यह पाकिस्तान की रणनीतिक योजनाएँ संभालने वाली इकाई के मुख्यालय के क़रीब भी है। यह यूनिट देश के लगभग 170 परमाणु हथियारों की देखरेख करती है।

एक पूर्व अमेरिकी अधिकारी के अनुसार, भारत के हमले को पाकिस्तान ने अपनी परमाणु कमान पर हमले की चेतावनी के रूप में देखा, जिससे परमाणु युद्ध का ख़तरा बढ़ गया लगा।

न्यूयॉर्क टाइम्स ने रिपोर्ट दी है कि यह साफ़ नहीं है कि क्या अमेरिकी खुफिया जानकारी थी जो संघर्ष के तेजी से, और शायद परमाणु ख़तरे की ओर इशारा कर रही थी। कम से कम सार्वजनिक रूप से परमाणु ख़तरे का संकेत पाकिस्तान से आया। पाकिस्तान में स्थानीय मीडिया ने बताया कि प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने राष्ट्रीय कमांड प्राधिकरण की बैठक बुलाई थी। यह छोटा समूह परमाणु हथियारों का उपयोग कैसे और कब करना है, इस बारे में निर्णय लेता है। 2000 में स्थापित इस निकाय की अध्यक्षता प्रधानमंत्री करते हैं और इसमें वरिष्ठ नागरिक मंत्री और सैन्य प्रमुख शामिल हैं। वास्तव में इस समूह के पीछे की अहम ताक़त सेना प्रमुख जनरल सैयद आसिम मुनीर हैं। लेकिन पाकिस्तान के रक्षा मंत्री, ख्वाजा मुहम्मद आसिफ ने इस बात से इनकार किया कि यह समूह कभी मिला। शनिवार को युद्धविराम की घोषणा से पहले पाकिस्तानी टेलीविजन पर उन्होंने परमाणु विकल्प की मौजूदगी को स्वीकार किया लेकिन कहा, 'हमें इसे बहुत दूर की संभावना के रूप में मानना चाहिए; हमें इस पर चर्चा भी नहीं करनी चाहिए।' फिर भी, यह साफ़ था कि दोनों देश एक ख़तरनाक स्थिति की ओर बढ़ रहे थे।

विश्लेषण से और

यह स्थिति कितनी ख़तरनाक़ थी, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि शुरुआत में अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वेंस ने फॉक्स न्यूज़ को दिए साक्षात्कार में कहा था कि यह संघर्ष 'मूल रूप से अमेरिका का मामला नहीं है।' लेकिन जैसे ही परमाणु युद्ध का ख़तरा बढ़ा, अमेरिका को हस्तक्षेप करना पड़ा। शुक्रवार सुबह तक व्हाइट हाउस ने महसूस किया कि सार्वजनिक बयान और दोनों देशों के अधिकारियों से बातचीत पर्याप्त नहीं थी। सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात जैसे देशों के हस्तक्षेप का भी कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा। 

इसके बाद वेंस ने भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सीधे बात की और कहा कि हिंसा में नाटकीय वृद्धि की आशंका है, जो पूर्ण युद्ध में बदल सकती है। दूसरी ओर, अमेरिकी विदेश मंत्री और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मार्को रुबियो ने पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल असीम मुनीर और विदेश मंत्री इशाक डार से बात की। रुबियो ने भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर से भी संपर्क किया। इन बातचीत ने युद्धविराम की नींव रखी।

पाकिस्तानी खुफिया अधिकारी ने अमेरिकी हस्तक्षेप, खासकर रुबियो की भूमिका को समझौते का निर्णायक फ़ैक्टर बताया। शहबाज शरीफ ने भी डोनाल्ड ट्रंप की भूमिका की सराहना की। हालाँकि, भारत ने आधिकारिक तौर पर अमेरिकी मध्यस्थता को स्वीकार नहीं किया और इसे द्विपक्षीय समझौते के रूप में पेश किया।

भारत द्वारा युद्धविराम के लिए सहमति दिए जाने के पीछे कई कारण थे। परमाणु युद्ध का ख़तरा वास्तविक था। रिपोर्ट है कि नूर खान अड्डे पर हमला भारत की ओर से एक मज़बूत संदेश था। यह पाकिस्तान को परमाणु हमले के रूप में प्रतिक्रिया देने के लिए उकसा सकता था। भारत ने अपनी सैन्य ताक़त का प्रदर्शन कर दिया था। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि ऑपरेशन सिंदूर ने रावलपिंडी में पाकिस्तानी सेना मुख्यालय तक भारत की ताक़त का अहसास कराया। एक और बड़ी वजह यह बताई जा रही है कि भारत नहीं चाहता था कि यह संघर्ष अंतरराष्ट्रीय मंचों पर जाए, जहां कश्मीर मुद्दे को फिर से उठाया जा सकता था।

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कहा जा रहा है कि भारत ने युद्धविराम के लिए सहमति इसलिए दी क्योंकि परमाणु युद्ध का ख़तरा और क्षेत्रीय अस्थिरता दोनों देशों के लिए विनाशकारी हो सकती थी। अमेरिकी हस्तक्षेप ने दोनों पक्षों को बातचीत की मेज पर लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, लेकिन भारत ने इसे द्विपक्षीय ढाँचे में रखने की कोशिश की। फिर भी, पाकिस्तान द्वारा समझौते के उल्लंघन की ख़बरें बताती हैं कि यह युद्धविराम नाजुक है। भारत की रणनीति आतंकवाद के ख़िलाफ़ कड़ा रुख बनाए रखने की है, जैसा कि विदेश मंत्री जयशंकर ने कहा, 'भारत आतंकवाद के सभी रूपों और अभिव्यक्तियों के ख़िलाफ़ दृढ़ और समझौता न करने वाला रुख बनाए हुए है।' हालाँकि, यह अभी तक आधिकारिक तौर पर नहीं कहा गया है कि युद्धविराम के फ़ैसले के पीछे क्या-क्या वजहें रहीं।