अपने रिटायरमेंट के दिन विदाई समारोह में सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस ओका ने कहा कि यह कोर्ट चीफ जस्टिस केन्द्रित होती जा रही है जबकि जरूरत है इसे ज्यादा प्रजातांत्रिक बनाने की. विदाई समारोह में उनका यह भी कहना था कि वह अलोकप्रिय इसलिए थे क्योंकि संवैधानिक मूल्यों को बहाल करने में वह सख्त रवैया अपनाते थे.

अक्सर देखा गया है कि जज पद से हटने के बाद उस संस्था की कमजोरियां बताते हैं और वह भी विदाई समारोह में. यह बताता है कि वे भरे बैठे रहते हैं और मुक्त होते ही उस संस्था पर नकारात्मक टिप्पणियाँ करते हैं. इससे उस संस्था की मर्यादा घटती है. क्या यह बात उन्होंने फुल कोर्ट में या जजों की बैठकों में या अन्य औपचारिक लेकिन गोपनीय अवसरों पर उठाई थी? जब पद से हटाने जा रहे हैं तो यह बताना कि केसों की लिस्टिंग को एआई के जरिये और ऑटोमैटिक तरीके से करना चाहिए ताकि मानव-विवेक की कम भूमिका रहे, क्या संकेत देता है? जस्टिस ओका ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट में लिस्टिंग और प्रशासनिक फैसले मात्र पांच सीनियर जज ही लेते हैं जबकि हाई कोर्ट्स में लिस्टिंग के लिए प्रशासनिक समिति होती है जिससे मनमानी की गुंजाइश कम रहती है.

यह सच है कि जस्टिस ओका का जुडिशरी की दुनिया में सम्मान है लेकिन यह सब कह कर उन्होंने एक सन्देश देनी की कोशिश की है कि देश की सबसे बड़ी अदालत में सब कुछ ठीक नहीं है. दो जजों की बेंच या तीन जजों की खंड पीठ या पांच जजों की संविधान पीठ सड़क से लेकर संसद और संविधान तक के सभी विवाद पर फैसले देती है और वे अंतिम होते हैं. फिर यह कहना कि पांच जजों की कॉलेजियम या इकाई के प्रशासनिक फैसले प्रजातांत्रिक नहीं होते या उनमें कोई खोट होता है पूरी न्याय प्रक्रिया पर सवाल खड़े करता है. क्या जस्टिस ओका चाहते हैं कि कौन जज कहाँ ट्रान्सफर हो या कौन केस किस बेंच को दिया जाये इस पर सभी 35 जज वोटिंग करें? क्या देश की सबसे बड़ी कोर्ट में भी “पांच जज की लॉबी” है और उसके फैसलों में पक्षपात होता है?

फिर जस्टिस ओका का कहना कि वे अलोकप्रिय इसलिए थे क्योंकि वे संविधान के मूल्यों को बनाये रखने के लिए सख्त रवैया अपनाते थे, प्रकारांतर से यह कहना है कि किसी जज की लोकप्रियता या उसका अभाव उसके संवैधानिक प्रतिबद्धता की कसौटी है. यानि जो जज लोकप्रिय है वह उस प्रतिबद्धतता का पालना नहीं करता. यह परोक्ष किन्तु गंभीर कैसा आरोप है?

लेकिन कुछ तो खोट है

अदालतों को अपने फैसले की गुणवत्ता खराब होने पर आलोचना झेलनी पड़ती है. सुप्रीम कोर्ट की एक हीं बेंच से बोलने की आजादी को लेकर दो दिन के भीतर दो अलग-अलग फैसलों पर देश के बुद्धिजीवियों का एक वर्ग उद्वेलित है. पहला केस है एक राज्य के मंत्री का, जिसके सार्वजानिक बयान में एक समुदाय-विशेष की आर्मी प्रवक्ता पर घटिया आक्षेप है. दूसरे मामले में एक प्रोफेसर ने सोशल मीडिया पर अपनी टिप्पणी में एक समुदाय के खिलाफ बुलडोजर न्याय और माँब लिंचिंग के माहौल के बीच इसी प्रवक्ता को भारत-पाक झड़प के दौरान मीडिया में हाइलाइट करने की सरकारी नीति की निंदा की है. 

बेंच ने दोनों पर एसआईटी के गठन का आदेश दिया है. लेकिन प्रोफेसर को चेतावनी देते हुए जमानत दी है जबकि हाईकोर्ट की मंत्री के खिलाफ “गटर छाप भाषा” के इस्तेमाल के बावजूद एससी ने कोई ऐसी कार्रवाई नहीं की जिसे कम से कम संदेशात्मक भी कहा जा सके. न्याय की दुनिया में एक जुमला मशहूर है --- सुप्रीमकोर्ट इसलिए सुप्रीम नहीं है कि वह दोषशून्य है बल्कि इसलिए कि वह सुप्रीम है. 

दोनों फैसलों के प्रभावी अंश पढ़ने के बाद यह उक्ति चरितार्थ होती है. एक अन्य उदाहरण लें. पिछले कुछ वर्षों में इसी कोर्ट ने दर्जनों बार ईडी को अपनी सीमा से बाहर जाने या राजनीतिक आकाओं के प्रभाव में काम करने की ज़ुबानी ही नहीं फैसलों में भी कहा है. ताज़ा घटना ईडी के गैर-भाजपा शासित तमिलनाडु सरकार की एक संस्था के अधिकारियों पर छापे और उस संस्था के खिलाफ केस को लेकर है. 

एससी ने कहा कि ईडी ने कानून-प्रदत्त सभी सीमायें तोड़ कर संघीय व्यवस्था के मूल पर कुठाराघात किया है. पहले के फैसलों और कानून में भी बगैर किसी प्रेडीकेट (स्पष्ट) अपराध का मुकदमा हुए ईडी को जांच या एक्शन की इजाजत नहीं है. लेकिन हाल के कुछ वर्षों में इस संस्था ने कई विवादास्पद गिरफ्तारियां की जिनमें विपक्षी नेता भी शिकार बने. क्या “सुप्रीम” कोर्ट भी फ्री-स्पीच और कार्यपालिका की मनमानी पर असहाय है?