“13 जुलाई 1931 के शहीदों की कब्र पर श्रद्धांजलि अर्पित की और फ़ातिहा पढ़ा। अनिर्वाचित सरकार ने मेरा रास्ता रोकने की कोशिश की और मुझे नौहट्टा चौक से पैदल चलने को मजबूर किया। उन्होंने नक्शबंद साहब की दरगाह का दरवाज़ा बंद कर दिया और मुझे दीवार फाँदने पर मजबूर किया। उन्होंने मुझे शारीरिक रूप से रोकने की कोशिश की, लेकिन आज मैं रुकने वाला नहीं था!”

यह जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का एक्स पर किया गया पोस्ट है। 14 जुलाई को दोपहर किये गये इस पोस्ट के साथ उन्होंने एक वीडियो भी नत्थी किया था जिसमें उनके साथ की जा रही धक्का-मुक्की साफ़ नज़र आ रही थी। यह आश्चर्यजनक था कि मुख्यमंत्री को शहीदों की कब्र पर फ़ातिहा पढ़ने से रोकने की कोशिश की गयी। 2019 में अनुच्छेद 370 ख़त्म किये जाने के बाद 13 जुलाई को शहीद दिवस मनाने के लिए हमेशा से जारी सार्वजनिक अवकाश को तो ख़त्म कर दिया गया था, लेकिन छह साल बाद शहीदों की कब्र पर फूल भी केंद्र को बर्दाश्त नहीं, यक़ीन करना मुश्किल है। उमर अब्दुल्ला ने एक दूसरे पोस्ट में सुप्रीम कोर्ट द्वारा राष्ट्रीय न्यायिक चयन आयोग ख़त्म किये जाने के फ़ैसले पर दिवंगत अरुण जेटली की प्रतिक्रिया को इस संदर्भ में याद किया- “यह अनिर्वाचित लोगों का निर्वाचित लोगों पर अत्याचार है!”

जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं

केंद्र सरकार के वादे के बावजूद जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं दिया गया है और चुने हुए मुख्यमंत्री के पास एक चपरासी के ट्रांसफ़र की भी शक्ति नहीं है। वे एक केंद्र शासित प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं जिस पर राज लेफ़्टिनेंट गवर्नर के माध्यम से मोदी सरकार ही कर रही है। उमर अब्दुल्ला के पोस्ट पर झलकती बेबसी साफ़ नज़र आ रही थी। ममता बनर्जी से लेकर एम.के.स्टालिन तक इंडिया गठबंधन के के तमाम मुख्यमंत्रियों और नेताओं ने अपनी आक्रोश भरी टिप्पणियों के साथ रीपोस्ट किया। इस ख़बर को सुर्खियों से ग़ायब करने वाले मीडिया के लिए यह एक चुनौती थी।
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‘शहीद दिवस’ की अहमियत क्या?

दरअसल, श्रीनगर स्थित ख्वाजा बहाउद्दीन नक्शबंदी की ऐतिहासिक सूफी दरगाह को अधिकारियों ने शनिवार (12 जुलाई) को ही सील करके स्थानीय राजनीतिक दलों के ‘शहीद दिवस’ मनाने की योजना को असफल कर दिया है। इस दरगाह पर 13 जुलाई 1931 में डोगरा सेना द्वारा मारे गए 22 कश्मीरी प्रदर्शनकारियों की कब्रें हैं। उमर अब्दुल्ला ने 13 जुलाई के जनसंहार की तुलना जलियाँवाला बाग़ से की और आरोप लगाया कि उन शहीदों को खलनायक बनाकर पेश किया जा रहा है क्योंकि वे मुसलमान थे। यह मुद्दा कश्मीर के लिए कितना भावनात्मक है, वह उमर अब्दुल्ला की प्रतिद्वंद्वी और पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती के बयान से समझा जा सकता है। उन्होंने एक्स पर एक लंबी पोस्ट लिखकर इस हरक़त की निंदा की, लेकिन शुरुआत में जो लिखा वह ग़ौर करने वाला है। उन्होंने लिखा- “जिस दिन कश्मीर के नायकों को वैसे ही स्वीकार किया जाएगा जैसे कि यहाँ के लोगों ने महात्मा गाँधी और भगत सिंह को स्वीकार किया है, उस दिन ही वास्तविक रूप से दिलों की दूरी ख़त्म होगी।”

आख़िर क्या था कश्मीर का वह हत्याकांड जिसे उमर अब्दुल्ला जलियाँवाला कांड बता रहे हैं और कौन थे वे शहीद जिन्हें नेशनल कान्फ्रेंस और पीडीपी दोनों ही हीरो मान रहे हैं। इसके लिए हमको 94 साल पीछे जाना होगा जब जम्मू कश्मीर पर अंग्रेज़ों के कृपापात्र महाराजा हरि सिंह का शासन था।

जम्मू कश्मीर का इतिहास

जम्मू-कश्मीर एक प्रिंसली स्टेट था यानी वहाँ महाराजा हरि सिंह का शासन था। प्रभुसत्ता तो अंग्रेज़ों की थी लेकिन शासन करने की आंतरिक स्वायत्तता महाराजा के पास थी। जनता के लिहाज़ से हालात वैसे ही ख़राब थे जैसे किसी सामंती शासन में होते हैं। किसानों दस्तकारों, मज़दूरों या निम्न वर्ग के अंदर असंतोष पल रहा था। बेगारी प्रथा आम थी। आबादी का बड़ा हिस्सा मुसलमान था इसलिए आम जनता की ख़राब हालत का अनुवाद मुसलमानों की ख़राब हालत से निकाला जाता था।

जम्मू कश्मीर में मुस्लिम बहुसंख्यक थे। कश्मीर घाटी में मुस्लिम आबादी 75-80% थी।जबकि कश्मीरी पंडितों की आबादी 5-6% थी लेकिन सरकारी नौकरियों में वर्चस्व था।सरकारी नौकरियों, जैसे रेवेन्यू, शिक्षा, और पुलिस में, कश्मीरी पंडितों और जम्मू के डोगरों का वर्चस्व था। इतिहासकार मृदु राय की पुस्तक Hindu Rulers, Muslim Subjects में बताया गया है कि डोगरा शासकों ने मुस्लिमों को व्यवस्थित रूप से प्रशासनिक और शैक्षिक अवसरों से वंचित रखा। दूसरी ओर, कम आबादी वाले कश्मीरी पंडित प्रशासन में प्रभावशाली थे। उनकी शिक्षा और साक्षरता दर अधिक थी, और वे तहसीलदार, पटवारी, और अन्य महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त थे। चित्रलेखा जुत्शी की पुस्तक Languages of Belonging में उल्लेख है कि कश्मीरी पंडितों को डोगरा शासन का “कृपा-प्राप्त समुदाय” माना जाता था। इस असमानता ने मुस्लिमों में असंतोष पैदा किया। भारी कर, जैसे बेगार, और शिक्षा तक सीमित पहुँच ने उनकी स्थिति को और खराब किया।
इस बीच शेष भारत में चल रहे राष्ट्रीय आंदोलन का प्रभाव जम्मू-कश्मीर पर भी पड़ा रहा था। तमाम विश्वविद्यालयों से पढ़कर लौटे नौजवान भी हालात बदलने के लिए आतुर थे, हालाँकि वे राजा हरि सिंह के शासन के ख़िलाफ़ नहीं थे। ऐसे ही एक नौजवान थे, शेख़ अब्दुल्ला। उन्होंने पयामे सदाक़त नाम के एक अखबार में लेख लिखा जिसका शीर्षक था-“हम क्या चाहते हैं।” उन्होंने लिखा-

“हम इस धरती से गरीबी, बेरोज़गारी, और अन्याय का ख़ात्मा चाहते हैं। हम चाहते हैं कि कोई किसी का ग़ुलाम न रहे और देश में शांति बनी रहे। हम धर्मों के प्रति समस्याएँ समाप्त करना चाहते हैं….राजा और प्रजा को पिता और पुत्र की तरह रहना चाहिए। सभी को भाइयों की तरह रहना चाहिए। यह तभी संभव है जब दमित मुसलमानों को भी उसी स्तर पर पहुँचाया जाये जा सके जो अन्य भाइयों, पंडितों, डोगराओं और राजपूतों ने हासिल किया है।”

शेख़ अब्दुल्ला के लेख की इन पंक्तियों में बहुसंख्यक मुसलमानों की तकलीफ़ें और उनकी चाहत स्पष्ट हैं। ऐसे ही हालात में 1931 का अप्रैल महीना आ गया।  29 अप्रैल को ईद के दौरान खुतबा पढ़ने से एक पुलिस अधिकारी खेमचंद ने इमाम को रोक दिया। इसे धार्मिक अधिकारों पर हस्तक्षेप मानते हुए आंदोलन होने लगे। इस बीच सांप्रदायिक विभेद फैलाने की तमाम अफ़वाहें भी फैलीं। क़ुरान के अपमान से लेकर जामिया मस्जिद  में डोगरा सैनिकों के जूता पहन कर घुसने तक की अफवाहें थीं। इस सबके बीच अब्दुल क़ादिर नाम के एक एक शख्स को भड़काऊ भाषण देने के आरोप में गिरफ्तार कर लिा गया  था। इस गिरफ़्तारी के बाद हालात और बिगड़े। अदालत में सुनवाई संभव नहीं थी तो जेल में जेल में सुनवाई का फैसला हुआ। 
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नरसंहार में 22 कश्मीरी शहीद हुए

13 जुलाई 1931 को श्रीनगर की सेंट्रल जेल के बाहर हजारों कश्मीरी अब्दुल कादिर के मुकदमे की सुनवाई देखने के लिए जमा हुए थे। जैसे ही ज़ुहर की नमाज़ का समय आया, भीड़ में से एक व्यक्ति ने अज़ान शुरू की। डोगरा सैनिकों ने इसे बर्दाश्त नहीं किया। कुछ हल्ला-गुल्ले के बाद उन्होंने भीड़ पर गोलियाँ चला दीं। इस नरसंहार में 22 कश्मीरी शहीद हुए। यह घटना डोगरा शासन के खिलाफ गुस्से का प्रतीक बनी और शहीद दिवस के रूप में याद की जाने लगी। 

जम्मू के कुछ हिंदू संगठनों और नेताओं ने इस नरसंहार की निंदा की, लेकिन जम्मू में कई लोगों ने इसे कानून-व्यवस्था पर हमला माना और महाराजा का समर्थन किया।

महाराजा हरि सिंह ने स्थिति को शांत करने के लिए ग्लांसी कमीशन बनाया, जिसने डोगरा शासन की नीतियों की आलोचना की और मुस्लिमों के साथ भेदभाव को स्वीकार किया। कमीशन ने प्रशासन में सुधार और मुस्लिमों की भागीदारी बढ़ाने की सिफारिश की। 

महाराजा ने धार्मिक स्वतंत्रता और प्रशासन में मुस्लिमों की भागीदारी के आश्वासन दिए, जिसके बाद आंदोलन धीरे-धीरे शांत हुआ। इस आंदोलन ने कश्मीर को एक नया नेता भी दिया। शेख़ अब्दुल्ला।

इस समय शेख मोहम्मद अब्दुल्ला एक शिक्षक के रूप में श्रीनगर के एक सरकारी स्कूल में काम कर रहे थे। उन्होंने 1930 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से फिजिक्स में मास्टर्स की डिग्री हासिल की थी। लेकिन उनकी राजनीतिक गतिविधियों, खासकर डोगरा शासन के खिलाफ आवाज उठाने के कारण, प्रशासन ने उनका स्थानांतरण श्रीनगर से दूर एक क्षेत्र में कर दिया। यह उन्हें आंदोलन से दूर रखने की साजिश थी। शेख अब्दुल्ला ने स्थानांतरण स्वीकार नहीं किया और अपनी शिक्षक की नौकरी से इस्तीफा दे दिया।

13 जुलाई की घटना के बाद, उनके साहस और नेतृत्व ने कश्मीरी जनता का दिल जीत लिया। जनता ने उन्हें शेर-ए-कश्मीर की उपाधि दी, जो उनकी बहादुरी का प्रतीक बनी। 1932 में, उन्होंने मुस्लिम कॉन्फ्रेंस की स्थापना की, जिसे बाद में नेशनल कॉन्फ्रेंस में बदला गया। वे कश्मीर में सामंती ढाँचे को तोड़ना चाहते थे और कांग्रेस ने ज़मींदारी उन्मूलन का वादा किया था। स्वाभाविक है कि शेख़ अब्दुल्ला को कांग्रेस के नेतृत्व वाला राष्ट्रीय आंदोलन रास आया।
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हरि सिंह की भूमिका

भारत को आज़ादी मिली तो हरि सिंह ने स्वतंत्र रियासत का सपना देखा जबकि शेख़ अब्दुल्ला ने सेक्युल हिंदुस्तान में मिलना बेहतर समझा। 13 जुलाई के शहीद उनके लिए प्रेरणा थे। हरि सिंह ने आज़ादी के तीन महीने बाद क़बायली हमले के बाद बाद में भारत में विलय को स्वीकार किया और इसके लिए विशेषाधिकार माँगा। यही अनुच्छेद ३७० था जिसे मुद्दा बनाकर बीजेपी ने शेष भारत में वोट बटोरे।

ज़ाहिर है, 13 जुलाई को दी गयी शहादत एक सामंती शासक और उसके ऊपर बैठे अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ विद्रोह के दौरान हुई थी। यह समझना मुश्किल है कि लोकतांत्रिक भारत में उन शहीदों को याद करने, उन्हें श्रद्धांजलि देने में क्या बुराई है। मोदी सरकार का दावा है कि कश्मीर में सब सामान्य है। 22 अप्रैल को हुई पहलागम की आतंकी घटना ने इस दावे पर गंभीर सवाल उठाया था और अब संविधान की शपथ लेकर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे उमर अब्दुल्ला को शहीद दिवस मनाने से रोकना बताता है कि यह सामान्य कितना असमान्य है।

प्रधानमंत्री रहते अटल बिहारी वाजपेयी ने हालात को सामान्य बनाने के लिए जम्मूहियत, इंसानियत और कश्मीरियत का नारा दिया था। मोदी सरकार ने कश्मीरियत पर चोट की है जिसकी गूंज लंबे समय तक सुनाई पड़ेगी।