प्रधानमंत्री मोदी ने जिस मनरेगा को कभी कांग्रेस की असफलताओं का स्मारक बताते हुए उसे बनाये रखने का दावा किया था, उसमें अब आमूलचूल परिवर्तन करने की तैयारी है। मंगलवार को संसद में पेश हुए 'जी राम जी’ बिल के ज़रिये ग्रामीण रोज़गार का पूरा परिदृश्य बदलने की तैयारी की गयी है, यहाँ तक कि महात्मा गाँधी का नाम भी हटा दिया गया है। यह बिल अगर क़ानून बनता है तो इस योजना में हुए खर्च का पूरा ज़िम्मा केंद्र के पास नहीं रहेगा। यही नहीं, पंचायत स्तर पर रोज़गार की गारंटी देने की जगह अब केंद्र की कृपा महत्वपूर्ण होगी। आलोचक कह रहे हैं कि ‘जी राम जी’, दरअसल मनरेगा का ‘राम नाम सत्य’ करने के लिए है।
2015 की बात है। प्रधानमंत्री बने हुए ज़्यादा समय नहीं हुआ था और नरेंद्र मोदी पूरे उत्साह में थे। कांग्रेस को कोसने का उनका अभियान पूरे शबाब पर था। 27 फ़रवरी 2015 को राष्ट्रपति के अभिभाषण पर हुई बहस का जवाब देते हुए उन्होंने मनरेगा, यानी महात्मा गाँधी ग्रामीण रोज़गार गारंटी क़ानून को मुद्दा बनाया। उन्होंने कहा—
"मेरी राजनीतिक सूझबूझ कहती है कि मनरेगा बंद मत करो... मनरेगा आपकी (कांग्रेस की) नाकामियों का जीता-जागता स्मारक है। आज़ादी के 60 साल बाद भी लोगों को गड्ढे खोदने भेजना पड़ रहा है। इसे मैं बंद नहीं करूंगा, इसे बचाकर रखूंगा ताकि दुनिया को दिखा सकूं कि कांग्रेस ने क्या किया।”
यानी मनरेगा कांग्रेस की असफलताओं का स्मारक था। पर यह बात न ग्रामीण जनों को समझ में आयी न अर्थशास्त्रियों को क्योंकि भारत में यह पहला क़ानून था जिसने रोज़गार को क़ानूनी अधिकार बनाया था। यह कोई योजना नहीं, क़ानून था।
कोवीड काल में मनरेगा
2020 में कोविड के दौरान इस क़ानून का महत्व फिर से स्थापित हुआ। मोदी सरकार ने मार्च 2020 में कोरोना संक्रमण रोकने के नाम पर अचानक देश भर में लॉकडाउन का ऐलान कर दिया था। जो जहाँ था, वहीं थम गया था। कारख़ाने बंद हो गये थे। न बसें चल रही थीं न ट्रेनें। ऐसे में गाँव से शहर कमाने गये लोगों को सबसे ज़्यादा परेशानी हुई। ज़्यादातर दैनिक मज़दूरी करते थे जो ठप हो गयी थी। छोटी-मोटी फ़ैक्टरियों में काम करने वालों का वेतन भी नहीं मिल रहा था। सरकार की ओर से भी कोई मौद्रिक मदद नहीं मिल रही थी। आख़िरकार परेशान लोग पैदल ही महानगरों से निकलकर अपने गाँवों की ओर जाने लगे। सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलते कारवाँ की तस्वीरें पूरी दुनिया में सुर्खी बनी थी। इतनी बड़ी तादाद में लोगों के गाँव लौटने से दबाव बढ़ा पर इसी मनरेगा ने स्थिति सँभाल ली। लोगों को काम मिला तो वे सिर उठाकर चल सके। मनरेगा यह असफलताओं का स्मारक नहीं, व्यवस्था को सफल बनाये रखने का पिटारा बनकर उभरा।
मंगलवार 16 दिसंबर को संसद में पेश हुए विकसित भारत-गारंटी फॉर रोजगार एंड आजीविका मिशन (ग्रामीण) (VB-G RAM G) बिल 2025 के ज़रिए रोज़गार के अधिकार को सीमित करने की तैयारी हो रही है। नाम से साफ़ है कि अब इस क़ानून में महात्मा गाँधी का नाम नहीं होगा। उनकी जगह खिचड़ी भाषा के इस्तेमाल से बने वाक्य में शब्द संक्षेप के सहारे ‘राम’ जोड़ा गया है। आगे पीछे ‘जी’ भी है। यानी लोकप्रिय भाषा में इसे जय रामजी क़ानून बताया जाएगा। महात्मा गाँधी का नाम हटाने के लिए राम का सहारा लिया गया है। इस तरह से कांग्रेस और महात्मा गाँधी की छाप इस क़ानून से हट जाएगी।विपक्ष सरकार के इस रवैये से नाराज़ है। कांग्रेस नेता प्रियंका गाँधी ने साफ़ कहा कि “नाम हटाने के पीछे सरकार की नीयत क्या है? महात्मा गाँधी विश्व के सबसे महान नेता हैं। जब किसी योजना का नाम बदला जाता है तो दस्तावेज़ों को बदलने में बहुत खर्च भी होता है।”
प्रियंका गाँधी ने लोकसभा के अंदर भी विरोध जताया और बाहर भी महात्मा गाँधी की तस्वीर लेकर प्रदर्शन किया। विपक्ष के कई अन्य नेताओं ने भी इसे महात्मा गाँधी का अपमान बताया। कहा गया कि आरएसएस के शताब्दी वर्ष में महात्मा गाँधी का नाम हटाना, गोडसेवादी विचारधारा का प्रतीक है।
बहरहाल, मसला नाम से कहीं ज़्यादा है। प्रस्तावित बिल में बहुत कुछ ऐसा है जिससे पता चलता है कि मक़सद ही बदल दिया गया है।
मनरेगा क्यों लाया गया?
2004 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में चल रही एनडीए सरकार की लोकसभा चुनाव में पराजय हुई। कांग्रेस के नेतृत्व वाला यूपीए सत्ता तक पहुँचा और सोनिया गाँधी ने सबको चौंकाते हुए मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनवाया जो एक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री थे और नरसिम्हाराव मंत्रिमंडल के वित्तमंत्री के रूप में उदारीकरण की दिशा में देश को ले जाने में अहम भूमिका निभाई थी। लेकिन इस बार उनके सामने एक नया कार्यभार था। सोनिया गाँधी हमेशा ‘डेवलेपमेंट विद् ह्यूमन फ़ेस’ की बात करती थीं, यानी विकास का फल सबसे कमजोर व्यक्ति को मिलना चाहिए। इसी सोच के तहत ग्रामीण रोज़गार गारंटी एक्ट बनाया गया। बाद में इसमें महात्मा गाँधी का नाम जोड़ा गया। यह रोज़गार का अधिकार देने वाला पहला क़ानून था:
- यह क़ानून "नेशनल रूरल एम्प्लॉयमेंट गारंटी एक्ट" के नाम से 23 अगस्त 2005 को संसद में पास हुआ और फरवरी 2006 से लागू हुआ।
- 2009 में इसमें महात्मा गांधी का नाम जोड़ा गया जिससे ये महात्मा गांधी नेशनल रूरल एम्प्लॉयमेंट गारंटी एक्ट (MGNREGA) बन गया।
- इसके तहत हर वित्तीय वर्ष में सौ दिन रोज़गार की गरंटी दी गयी। रोज़गार माँगने पर पंद्रह दिन के अंदर काम देना अनिवार्य है।
- मनरेगा के तहत मज़दूरी का सौ फ़ीसदी और लागत का 75 फ़ीसदी वहन करने की ज़िम्मेदारी केंद्र सरकार की होती है। केंद्र और राज्य के बीच खर्च का अनुपात 90:10 रहता है।
मनरेगा में कितने दिन काम मिले?
मनरेगा का मक़सद दलितों, आदिवासियों, महिलाओं और अन्य वंचित और गरीब समुदायों को उनके निवास स्थान के पास काम उपलब्ध कराके उन्हें आर्थिक रूप से सशक्त बनाना था। साथ ही ग्रामीण क्षेत्र में बुनियादी ढाँचे का विकास और पर्यावरण संरक्षण हो। जैसे तालाब खोदना, पेड़ लगाना, रास्ते आदि बनाने का काम। इस स्कीम ने ग्रामीण पलायन रोकने में अहम भूमिका निभाई। लेकिन यह भी सही है कि बीते कुछ सालों में सरकार ने इसमें अरुचि दिखाई और सौ दिन काम शायद ही कहीं मिला हो।
आँकड़े बताते हैं कि सौ दिन काम देने की गारंटी कभी पूरी नहीं की गयी-
- 2020-21: 51.54 दिन
- 2021-22: 50.07 दिन
- 2022-23: 47.84 दिन
- 2023-24: 52.07 दिन
- 2024-25: 44.62 दिन
कोविड के समय (2020-21) में मांग ज्यादा थी, इसलिए औसत थोड़ा ऊपर था, लेकिन सामान्य वर्षों में 40-50 दिन के आसपास ही रहा। सिर्फ 7-10% परिवारों को ही पूरे 100 दिन मिल पाते हैं। कारण: बजट की कमी, माँग दबाना, और काम की उपलब्धता कम होना। ज़ाहिर है, केंद्र सरकार पर इसे लेकर निशाना साधा जाता है तो अब नये क़ानून के ज़रिए वह इस जिम्मदारी से भागना चाहती है।
अब सरकार तय करेगी खर्च
नये बिल में सौ की जगह 125 दिन काम देने की बात है लेकिन जब औसतन पचास दिन भी काम नहीं दिया गया तो यह सिर्फ़ खोखला वादा ही लगता है। मनरेगा में कुल ख़र्च का 90% केंद्र वहन करता था, लेकिन अब राज्यों के ज़िम्मे 40 फ़ीसदी होगा। केंद्र 60% योगदान ही करेगा। इसके अलावा ‘माँग’ रोज़गार देने का आधार नहीं होगा। पहले माँग होने के पंद्रह दिन के अंदर रोज़गार देना अनिवार्य था। नया बिल कहता है कि केंद्र यह तय करेगा कि किस क्षेत्र में किस योजना पर कितना खर्च होना है (GIS, बायोमेट्रिक, AI ऑडिट के साथ)। उसी के हिसाब से रोज़गार दिया जायेगा। यह गारंटी क़ानून को सर के बल खड़ा करना है। पंचायतों का महत्व ख़त्म हो जाएगा। इसके अलावा कटाई-बुवाई सीज़न में साठ दिन तक मनरेगा के काम को स्थगित कर दिया जायेगा। मज़दूरी में कमी तय है।
एक सवाल ये भी है कि जब राज्यों पर चालीस फ़ीसदी खर्च वहन करने की ज़िम्मेदारी दी जाएगी तो यह योजना कैसे लागू हो पायेगी? ज़्यादातर राज्य, ख़ासतौर पर हिंदी पट्टी के राज्य काफ़ी क़र्ज़ में है। यूपी और बिहार जैसे राज्य घाटे का बजट चलाते हैं और उन पर सात से आठ लाख करोड़ का क़र्ज़ा है। ऐसे राज्य चालीस फ़ीसदी खर्च कैसे वहन कर पायेंगे।
सवाल ये भी है कि मोदी जी जब दावा कर रहे हैं कि भारत चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है तो केंद्र सरकार अपना खर्च कम क्यों कर रही है? ये तो ग़ज़ब है। जब देश गरीब था, कमजोर था यानी कांग्रेस के ज़माने में तो सौ दिन काम की गारंटी भी देता था और पूरी मज़दूरी भी और अब अमीरी के कथित अमृतकाल में सरकार पैसा खर्च नहीं करना चाहती। वैसे, एक तथ्य ये भी है कि केंद्र सरकार पर लगभग दो लाख करोड़ का क़र्ज चढ़ गया है जो 2014 में 58 लाख करोड़ ही था।
यानी नया बिल मनरेगा को निष्प्राण करके उसे नयी पोशाक पहनाने की कोशिश है। यह 'जी राम जी’ योजना नहीं, रोज़गार के अधिकार को ‘राम नाम सत्य’ करने की योजना है।