भारत में मुग़लों को लुटेरा करार देने की प्रवृत्ति केवल ऐतिहासिक बहस नहीं, बल्कि एक राजनीतिक एजेंडा बनती जा रही है। जानिए कैसे यह नैरेटिव विभाजनकारी राजनीति को बढ़ावा दे रहा है और इतिहास के साथ छेड़छाड़ कर रहा है।
एनसीईआरटी की किताबों से मुग़ल और दिल्ली सल्तनत के अध्यायों को हटाने के फैसले ने एक गंभीर सवाल खड़ा किया है: क्या इतिहास की किताबों से किसी अध्याय को हटा देने से अतीत को बदला जा सकता है? भारत के इतिहास में मुग़ल काल एक ऐसा अध्याय है, जिसने देश की संस्कृति, कला, वास्तुकला और प्रशासनिक व्यवस्था को गहराई से प्रभावित किया। ताजमहल, लाल क़िला और हुमायूँ का मक़बरा जैसे वैभवशाली स्मारक आज भी भारत की वैश्विक पहचान हैं। लेकिन राजनीतिक कारणों से मुग़ल काल को निशाना बनाया जा रहा है, बिना यह सोचे कि इससे भारत के इतिहास की कई सदियाँ गुम हो जाएँगी।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस और भारतीय जनता पार्टी यानी बीजेपी के नेताओं द्वारा दशकों से मुग़लों को "लुटेरा" और "विदेशी" बताने का अभियान चलाया जा रहा है। इस नैरेटिव के तहत मुग़लों को भारत के लिए विध्वंसकारी हत्यारा ठहराया जाता है। लेकिन सवाल यह है कि अगर मुग़ल लुटेरे थे, तो उन्होंने क्या लूटा और लूटी हुई संपत्ति कहाँ ले गए? ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं कि मुग़लों ने भारत में ही अपनी संपत्ति निवेश की। औरंगज़ेब के शासनकाल में भारत की जीडीपी वैश्विक जीडीपी का लगभग 25% थी। मुग़लों ने कृषि, व्यापार, और शहरीकरण को बढ़ावा दिया। भारत उस समय विश्व का सबसे बड़ा कपास और कपड़ा निर्यातक था। सिंचाई प्रणालियों और सड़कों का विकास हुआ, जिसने व्यापार और अर्थव्यवस्था को बल दिया।
मुग़ल बादशाहों ने भारत को यहीं अपना घर बनाया। बाबर को छोड़कर, सभी मुग़ल सम्राट यहीं दफ़्न हुए। फिर सवाल उठता है कि अगर वे लुटेरे थे, तो उन्होंने लूटी हुई संपत्ति को विदेश क्यों नहीं भेजा, जैसा कि अंग्रेजों ने किया? सच तो यह है कि मुग़ल भारत के इतिहास का एक अभिन्न हिस्सा थे, और उन्हें "विदेशी" या "लुटेरा" कहना ऐतिहासिक सत्य को तोड़-मरोड़कर पेश करना है।
2025-26 सत्र के लिए एनसीईआरटी की सातवीं कक्षा की नई सामाजिक विज्ञान की किताब "Exploring Society: India and Beyond" में मुग़ल और दिल्ली सल्तनत के अध्यायों को हटा दिया गया है। इनकी जगह प्राचीन भारतीय राजवंश जैसे मौर्य, शुंग, और सातवाहन पर फोकस किया गया है। साथ ही, महाकुंभ और तीर्थ स्थलों जैसे विषय जोड़े गए हैं। कुछ नया जोड़ना स्वागत योग्य हो सकता है, लेकिन साढ़े छह सौ साल के इतिहास को पूरी तरह हटा देना क्या उचित है? यह फ़ैसला उस स्वायत्तता को भी प्रश्नांकित करता है, जिसके लिए एनसीईआरटी जानी जाती थी। यूपीए शासन में भी एनसीईआरटी ने इमरजेंसी की आलोचना वाला पाठ शामिल किया था, जबकि तब कांग्रेस सत्ता में थी। लेकिन आज स्वायत्तता एक "विदेशी विचार" बन चुकी है।
यह विडंबना है कि अगर मुग़लों को पढ़ाया ही नहीं जाएगा, तो उन्हें लुटेरा कहने का आधार क्या होगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि मुग़ल इतिहास का अध्ययन इस नैरेटिव को झूठा साबित कर दे, और डर इसी बात का है?
यह सब राष्ट्रवाद के नाम पर हो रहा है, लेकिन क्या यह वास्तव में राष्ट्रवाद है? नेताजी सुभाषचंद्र बोस और शिवाजी जैसे महानायकों की राय इस मामले में बिल्कुल उलट थी।
नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने 1943 में रंगून में अंतिम मुग़ल सम्राट बहादुर शाह ज़फ़र के मज़ार पर सजदा किया और 50 हज़ार रुपये नज़राना चढ़ाया। उनके लिए मुग़ल वंश ने भारतीय इतिहास में एक "गौरवशाली अध्याय" जोड़ा था। नेताजी ने कहा था कि अशोक और गुप्त वंश के बाद मुग़ल काल में भारत ने फिर से उत्कर्ष हासिल किया। यह धारणा कि भारत केवल अंग्रेजों के शासन में ही एकजुट हुआ, पूरी तरह गलत है।
इसी तरह, शिवाजी ने औरंगज़ेब से युद्ध लड़ा, लेकिन इसे हिंदू-मुस्लिम संघर्ष के रूप में देखना गलत है। शिवाजी की सेना में कई मुस्लिम सिपहसालार थे, और औरंगज़ेब की सेना में हिंदू सेनानायक। शिवाजी ने औरंगज़ेब को पत्र लिखकर अकबर की प्रशंसा की और उन्हें "जगद्गुरु" कहा। उन्होंने कुरान को ईश्वर वाणी माना और हिंदू-मुस्लिम एकता की वकालत की। यह पत्र इस बात का प्रमाण है कि शिवाजी के लिए मुग़ल विदेशी नहीं, बल्कि भारतीय शासक थे।
मुग़ल काल में मंदिर विध्वंस के आरोप अक्सर लगाए जाते हैं, खासकर औरंगज़ेब पर। यह सच है कि औरंगज़ेब ने काशी विश्वनाथ और मथुरा के मंदिरों को तोड़ा, लेकिन यह कोई नीति नहीं थी। उन्होंने कई मंदिरों को अनुदान भी दिया, जैसे चित्रकूट का बालाजी मंदिर, उज्जैन का महाकालेश्वर मंदिर, और असम का कामाख्या मंदिर। विद्रोह से जुड़े मंदिरों को निशाना बनाया गया, जो मध्यकाल की स्थापित परंपरा थी। औरंगज़ेब ने गोलकुंडा की जामा मस्जिद भी तुड़वाई थी। भारत के प्राचीन इतिहास पर नज़र डालें तो कश्मीर के राजा हर्ष से लेकर पुष्मित्र शुंग और शशांक तक तमाम नरेश इस श्रेणी में मिलेंगे जिन्होंने अलग धर्म के शासकों पर विजय प्राप्त करने के बाद उनके पवित्र स्थानों का ध्वंस किया।
कल्हण की राजतरंगिणी के मुताबिक़ तो कश्मीर के राजा हर्ष ने मंदिरों की मूर्तियों को नष्ट करने के लिए बाक़ायदा एक अधिकारी नियुक्त किया हुआ था।
इसी तरह, धर्मांतरण के बारे में भी अतिशयोक्ति भरे दावे किए जाते हैं। औरंगज़ेब के शासनकाल में भारत की 80-85% आबादी हिंदू थी, और मुस्लिम आबादी 10-15% के बीच। अगर बड़े पैमाने पर धर्मांतरण हुआ होता तो 2011 की जनगणना में मुस्लिम आबादी 14.23% कैसे होती? स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि मुस्लिम शासन ने शोषित और ग़रीब लोगों को आज़ादी का स्वाद चखाया, और धर्मांतरण ज़्यादातर जमींदारों और पुरोहितों के शोषण से मुक्ति के लिए हुआ, न कि तलवार के जोर पर। आज के माहौल के उलट स्वामी विवेकानंद कहते थे कि इस्लामी शरीर और वेदांती मस्तिष्क के मेल में ही भारत का भविष्य है।
इतिहास कोई इमारत नहीं है, जिसे तोड़कर नया नक्शा बनाया जा सके। मुग़ल काल को हटाने के पीछे एक बड़ा कारण यह है कि इसका अध्ययन आरएसएस के उस नैरेटिव को कमजोर करता है, जो मुग़ल काल को केवल हिंदू-मुस्लिम संघर्ष के रूप में चित्रित करता है। मुग़ल दरबार में राजा मान सिंह, टोडरमल और बीरबल जैसे हिंदू नवरत्न थे, तो महाराणा प्रताप के साथ हकीम ख़ाँ सूर जैसे मुस्लिम योद्धा। शिवाजी की सेना में तोपखाने का प्रमुख इब्राहिम ख़ान और नौसेना प्रमुख दौलत ख़ान था। यह एकता और सहयोग का इतिहास है, जिसे मिटाने की कोशिश हो रही है।
मुग़ल उतने ही अच्छे या बुरे थे, जितना राजतंत्र में कोई शासक हो सकता है। राजतंत्र क्रूरता पर ही आधारित होता है और सिंहासन के दावेदारों के प्रति बेहद निर्मम होता है। लेकिन आधुनिक काल की कसौटियों पर कसने पर मुग़ल ही नहीं, सभी राजतंत्रीय शासन क्रूर और लुटेरे ही निकलेंगे। राजतंत्र मनुष्य पर मनुष्य के शासन की व्यवस्था थी, इसीलिए लोकतांत्रिक व्यवस्था का ईजाद हुआ। समस्या तब होती है जब लोकतांत्रिक व्यवस्था के बीच मध्ययुगीन बर्बरता के तौर-तरीक़े अपनाये जाते हैं। ख़ुद को राजा समझा जाता है या धर्म के आधार पर शासन चलाने की नीति अपनाई जाती है।
इतिहास का सबसे बड़ा सबक यही है कि उससे कोई सबक नहीं लेता। सरकारों की उम्र इतिहास के सामने पानी के बुलबुले जैसी होती है। मुग़ल काल को मिटाने की कोशिश न केवल ऐतिहासिक सत्य के साथ अन्याय है, बल्कि यह भारत की उस समृद्ध परंपरा को भी नकारता है, जो विविधता और सहिष्णुता में विश्वास रखती थी।